स्टार कास्ट: जाह्नवी कपूर, ईशान खट्टर, आशुतोष राणा,


डायरेक्टर: शशांक खेतान

रेटिंग: ** (दो स्टार)

गरीब लड़का, अमीर लड़की, भागकर शादी करना... वगैरह, आप कई फिल्मों में देख चुके हैं लेकिन जब 2016 में मराठी फिल्म 'सैराट' रिलीज हुई तो इसने हमारे समाज की सोच पर करारी चोट की थी. इस फिल्म ने बड़े पर्दे पर समाज की जातिगत सोच को इस कदर निर्वस्त्र किया कि देशभर में बहस शुरू हो गई. 'सैराट' ने दिखाया कि समाज का समर्थवान तबका भले ही लड़की को बुलेट और ट्रैक्टर चलाने की आज़ादी दे दे, उससे घुड़सवारी कराए और तेज तर्रार बना दे लेकिन जैसे ही वो अपनी बिरादरी से बाहर निकलकर 'प्रेम' चुनती है उसका जीना दुश्वार हो जाता है. समाज तो उसे बेदखल करता ही है उसका परिवार भी उससे जीने की हर वजह छीन लेना चाहता है. सैराट का ही हिंदी रीमेक है 'धड़क'.

कहानी

उदयपुर के दबंग नेता रतन सिंह (आशुतोष राणा) किसी भी तरह विधानसभा चुनाव जीतना चाहते हैं इसके लिए वो किसी की बेटी की इज्जत उछालने से भी परहेज नहीं करते. उनकी बेटी पार्थवी (जाह्वनी कपूर) कॉलेज में पढ़ाई करती है और उसे छोटी जाति के लड़के मधुकर (ईशान खट्टर) से प्यार हो जाता है. जैसे ही इस बारे में घरवालों को भनक लगती है वो मधुकर की पिटाई करवा देते हैं. अपने प्यार को बचाने के लिए पार्थवी हर मुमकिन हथकंडे अपनाती है और फिर दोनों भाग जाते हैं. उदयपुर से मुंबई, नागपुर होते हुए ये दोनों कोलकाता पहुंचते हैं. खास ज़िंदगी छोड़कर इस आम ज़िंदगी को चुनने वाली पार्थवी क्या मधुकर के साथ प्यार निभा पाती है? फिल्म में बहुत से ट्विस्ट और टर्न हैं.

एक्टिंग

ये फिल्म एक्टिंग के मामले में बहुत कमजोर है. जाह्नवी को इस फिल्म में ऐसा किरदार मिला है कि अपने सारे शेड्स दिखा सकती थीं. चाहें बाइक चलाना हो या फिर गन. नैना चार करने से लेकर प्यार, तकरार, बागीपन तक... हर रंग दिखाने का मौका था जाह्नवी के पास लेकिन वो कहीं भी उसे अपनी एक्टिंग में उतार नहीं पाई हैं. जाह्नवी कपूर को अपनी भाषा में राजस्थानी टच देना होता है जिसकी वजह से बिल्कुल ही फिट नहीं बैठती हैं. डायलॉग बोलते समय उनका एक्सेंट भी फेक लगता है.



इमोशनल सीन्स में वो बिल्कुल भी जान नहीं भर पाती. इसमें उन्हें बहुत ही सशक्त लड़की का किरदार मिला है जिसे गाड़ी के साथ-साथ गन चलाना भी आता है लेकिन जाह्नवी कॉन्फिडेंट नहीं दिखतीं. अगर आपने 'सैराट' देखी हो तो उसमें रिंकू राजपुरोहित जब बुलेट से स्कूल जाती हैं तो उसका 'बेफिक्रापन'  दिखता है. वो अपने हीरो को पिटने से बचाती है तो उनमें 'साहस' दिखता है, जब वो गोली चलाती है तो उनमें 'दम' दिखता है. लेकिन जाह्नवी के रवैये में ढ़ीलापन नज़र आता है, उन्हें 'बागी' दिखाया गया है लेकिन उनमें 'बागीपन' नज़र नहीं आता.

मधुकर के रोल में ईशान खट्टर ने अच्छा किया है. हालांकि उनसे इस फिल्म में शानदार एक्टिंग की उम्मीद की जा रही थी. वजह ये भी है कि इससे पहले 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' में ईशान को काफी पसंद किया गया था. इस फिल्म में वो अपने सीन में तो फिट बैठते हैं लेकिन फिर भी वो उभर कर सामने नहीं आ पाते.

आशुतोष राणा बाकी फिल्मों की तरह इसमें भी आंखें तरेरने वाले रोल में हैं. उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया है जिसके बारे में अलग से लिखा जा सके. इसके अलावा फिल्म में बंगाली किरदार में जिन एक्टर्स को रखा गया है वो अपनी तरफ ध्यान जरूर खींचते हैं.

डायरेक्शन

'धड़क' के लिए जब डायरेक्टर शशांक खेतान का नाम आया तो उम्मीदें थोड़ी बढ़ीं. वजह ये थी कि दो साधारण लव स्टोरी 'बदरीनाथ की दुल्हनिया' और 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनियां' को वो डायरेक्ट कर चुके हैं और ये दोनों ही फिल्में कमर्शियली कामयाब रही हैं. लेकिन 'धड़क' की कहानी के साथ वो बिल्कुल भी न्याय नहीं कर पाए हैं. चाहे एक्टिंग हो, स्क्रीन प्ले हो या फिर डायरेक्शन, ये फिल्म हर मामले में निराश करती हैं.



साफ शब्दों में कहें तो शशांक खेतान ने एक बहुत ही खूबसूरत, प्रेरणादायक और मर्मस्पर्शी फिल्म की कहानी को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है. सिनेमा हमेशा दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ संदेश भी देता है. लेकिन यहां इतने महत्वपूर्ण मुद्दे को दर्शकों तक पहुंचाने में वो नाकामयाब रहे हैं.

कमियां

इसमें बड़ी जाति और छोटी जाति की बात कही गई है लेकिन वो दिखाई नहीं देता. मधुकर के पापा जब उससे कहते हैं कि 'हम छोटी जाति के हैं तू उससे दूर रह...' तब दर्शक को पता चलता है कि मामला यहां जाति का भी है. सबसे बड़ी खामी ये है कि सेकेंड हाफ में फिल्म के बाकी किरदारों को गायब कर दिया गया है. पूरा फोकस पार्थवी और मधुकर की ज़िंदगी को दिखाने पर है. कहीं-कहीं फिल्म इतनी स्लो है कि आगे ही नहीं बढ़ती, तो कहीं इतनी तेज आगे बढ़ जाती है कि आप सोचने लगते हैं कि ये हो क्या रहा है. मेकर्स को खुद ही नहीं पता कि फोकस किस पर करना है.



म्यूजिक

'धड़क को म्यूजिक दिया है अतुल और अजय ने. सैराट में भी इन्हीं दोनों का म्यूजिक था जो हिट हुआ था. मराठी गाने के बोल भी अजय और अतुल ने ही लिखे थे लेकिन हिंदी में इसके बोल अम‍िताभ भट्टाचार्य ने ल‍िखे हैं. टाइटल ट्रैक और 'झिंगाट' सहित इसमें चार गाने हैं. 'सैराट' के समय से ही 'झिंगाट' लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है लेकिन बाकी गानें सिनेमाहॉल से निकलने के बाद आपको याद भी नहीं रहते.

क्यों देखें/ना देखें

अगर आपने 'सैराट' देखी हो तो उसके कुछ सीन तो ऐसे हैं कि आपकी धड़कनें रुक जाती हैं, सांसें थम जाती हैं लेकिन 'धड़क' आपका दिल नहीं 'धड़का' पाती. फिल्म की शुरुआत तो बिल्कुल 'सैराट' जैसी है. क्लाइमैक्स में थोड़ा बदलाव किया गया है जो शानदार है,  लेकिन एकाध सीन से फिल्म अच्छी तो नहीं हो सकती ना. अगर आपको पास ज्यादा वक्त है तो 'सैराट' देख सकते हैं जिससे आपका मनोरंजन तो होगा ही साथ ही समाज को लेकर अंदर एक कौध भी होगी. लेकिन 'धड़क' आप अपने रिस्क पर देखिए.