Ghoul Review: डराने के साथ समाज और राजनीति पर गहरी चोट करती है Netflix की हॉरर सीरीज ‘ग़ूल’
भारत की दूसरी सीरीज़ ‘ग़ूल’ को नेटफ्लिक्स ने एक्शन, हॉरर फिक्शन और थ्रिलर जैसी कैटगरीज़ में रखा है. महज़ तीन एपिसोड्स की ये सीरीज़ इन तीनों कैटगरीज़ के साथ न्याय करती है.
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नेटफ्लिक्स की लेटेस्ट सीरीज़ ‘ग़ूल’ भारत में बनने वाले हॉरर फिल्मों से कहीं आगे है. ये सस्पेंस बिल्ड करती है और भूत के कॉन्सेप्ट को जिस तरीके से पेश करती है उसकी वजह से आपको ‘ग़ूल’ के होने पर यकीन होता है. 1920 जैसी भारत की सफलतम हिंदी फिल्मों में भूत का वही दोहराव भरा कॉन्सेप्ट है जिसमें भूत किसी मरे हुई व्यक्ति की आत्मा होती है जो बदला लेने आती है. वहीं, इसे हनुमान चालीसा और चर्च के क्रॉस जैसे हथियारों से हराया जा सकता है. लेकिन ‘ग़ूल’ के भूत का कॉन्सेप्ट बिल्कुल जुदा है, इतना जुदा की ये आपको उसके होने का यकीन दिलाता है.
कैसे शुरू होती है कहानी
नेटफ्लिक्स की लेटेस्ट सीरीज़ ‘ग़ूल’ में राधिक आप्टे ‘सेक्रेड गेम्स’ के बाद एक बार फिर से एक्शन मोड में हैं. इस सीरीज़ में वो ‘नेशनल प्रोटेक्शन स्कॉवड’ में एडवांस इटेरोगेशन अधिकारी निदा के रोल में हैं. ये मिनिस्ट्री ऑफ़ नेशनल प्रोटेक्शन के अंदर आता है जिसे देश हित में मुसलमानों को इटेरोगेट करने के लिए बनाया गया है. अमेरिकी सिनेमा के तर्ज पर ये सीरीज़ अभी की नहीं बल्कि भविष्य की बात करती है जहां ऐसा वक्त आ गया है कि भारत के मुसलमानों के लिए लगभग सभी चीज़ें बैन कर दी गई हैं. ऐसा इस वजह से हुआ है क्योंकि धार्मिक हिंसा अपने चरम पर है. ऐसे में निदा का किरदार देश हित में एक बड़ा फैसला लेता है और ये उसकी ज़िंदगी बदलकर रख देता है. यहीं से शुरू होती है ‘ग़ूल’ की कहानी.
कैसे होती है ‘ग़ूल’ की एंट्री
कहानी में अगला मोड़ एक डिटेंशन सेंटर है, जहां अली सईद (महेश बलराज) को लाया जाना है. ये एक बड़ा आतंकी है जिसपर देश में दंगे फैलाने, बम धमाके करने और एंटी नेशनल एक्टिविटीज़ को बढ़ावा देने के आरोप है. इस कुख्यात डिटेंशन सेंटर को इसलिए जाना जाता है क्योंकि यहां लाए जाने के बाद हर कैदी सब कुछ उगल देता है. लेकिन अली सईद के मामले में सब उल्टा हो जाता है और उसकी एंट्री से डिटेंशन सेंटर हॉरर हाउस में बदल जाता है. सब बदलने की बड़ी वजह होती है ‘ग़ूल’ की एंट्री, लेकिन वो कब, कैसे और क्यों होती है उसके लिए आपको ये सीरीज़ देखनी पड़ेगी.
सीरीज़ के सेंटर में मुसलमान अली से पहले इस डिटेंशन सेंटर में निदा को लाया जाता है. निदा ने अभी तक अपनी ‘नेशनल प्रोटेक्शन स्कॉवड’ की अपनी ट्रेनिंग भी पूरी नहीं की होती है, बावजूद इसके उसे यहां इसलिए लाया जाता है क्योंकि वो एक मुसलमान है. सीनियर ऑफिसर्स को लगता है कि अली सईद से इंटेरोगेशन के दौरान निदा के हाव-भाव से साफ हो जाएगा कि वो मुसलमान होने के बावजूद देश के साथ है या गद्दार है. इसी बीच निदा को कई परिक्षाओं से गुज़रान पड़ता है, वो भी उस माहौल में जबकि डिटेंशन सेंटर हॉरर हाउस में बदल चुका है. इस बीच निदा से लेकर वहां मौजूद बाकी के लोगों की ज़िंदगी के कई राज़ खुलते हैं जिसकी वजह से क्लाइमेक्स तक सब बदल जाता है.
‘सेक्रेड गेम्स’ से ज़्यादा चोटीला है ‘ग़ूल’ भारतीय समाज और राजनीति पर ‘सेक्रेड गेम्स’ की तरह ‘ग़ूल’ भी बड़े हमले करती है. लेकिन ‘ग़ूल’ इसलिए अलग है क्योंकि ये देश में चल रहे हालिया घटनाक्रम और इसके संभावित भविष्य पर चोट करती है. अन्ना आंदोलन के बाद से गांधी परिवार को कुछ भी कह देना सबसे आसान काम है. गाहे-बगाहे ‘सेक्रेड गेम्स’ ने यही किया है. लेकिन ‘ग़ूल’ ने सीरीज़ को हॉरर फिक्शन के जॉनर में रखने के अलावा एक फिक्शन की दुनिया तैयार करके उस ख़तरनाक भविष्य की चेतावनी दी है जो हमारे इंतज़ार में है. सीरीज़ की अगली किश्त शायद ये भी बताए कि देश वहां तक कैसे पहुंचा.
कमियां
इस सीरीज़ के पहले सीज़न की कमज़ोरियां ये हैं कि इसने भारत की फिक्शनल जांच एजेंसी ‘नेशनल प्रोटेक्शन स्कॉवड’ से लेकर ‘एडवांस इटेरोगेशन सेंटर’ ‘मेघदूत- 1’ तक को एफबीआई और अमेरीकी कैदखानों से कॉपी करने की कोशिश की है जिसकी वजह से सीरीज़ के सीन तो दमदार हैं, लेकिन एक्टर्स की एक्टिंग और बॉडी लैंगवेज कई जगहों पर मार खा जाती है. राधिका आप्टे से लेकर बाकी के एक्टर्स ने अपनी जान लगा दी है, लेकिन कुछ जगहों पर इमोशन की भारी कमी है. अगर सिर्फ इस एक चीज़ को संभाल लिया जाता तो पहली किश्त शानदार हो सकती थी.
एक और कमी ये है कि ‘ग़ूल’ का कॉन्सेप्ट ज़ॉम्बी के जैसा लगता है. लेकिन जिस तरह से इसकी कहानी गढ़ी गई है, उसकी वजह से आपके ज़ेहन से ज़ॉम्बी का ख़्याल कब ग़ायब हो जाता है, आपको पता भी नहीं चलता.
क्यों देखें हॉरर जिनका फेवरेट जॉनर है उन्हें ये सीरीज़ बहुत पसंद आएगा. अर्से बाद हिंदी में हॉरर के नाम पर कुछ ऐसा आया है जो आपकी हथोलियों में पसीना ला देगा और आपको सोफे के किनार बिठाए रखेगा. सीरीज़ वर्तमान राजनीति और समाज पर करारा हमला करती है. लेकिन आपको इसका एहसास नहीं होने देती कि बात राजनीति और समाज की हो रही है. इसकी वजह से ये उनके लिए बोरिंग नहीं होगी जो कहते हैं- ‘आई हेट पॉलिटिक्स.’ कॉन्सेप्ट नया है और उसे बहुत अच्छे तरीके से लैपटॉप स्क्रीन पर उतारा गया है. राधिका आप्टे के किरदार को ‘ग़ूल’ में ‘सेक्रेड गेम्स’ की तरह बिना बात के नहीं मारा गया. सबसे बड़ी बात ये है कि इसके महज़ तीन एपिसोड्स हैं, ऐसे में आप तीन घंटे के भीतर पहला सीज़न ख़त्म कर सकते हैं.
भारत की दूसरी सीरीज़ ‘ग़ूल’ को नेटफ्लिक्स ने एक्शन, हॉरर फिक्शन और थ्रिलर जैसी कैटगरीज़ में रखा है. महज़ तीन एपिसोड्स की ये सीरीज़ इन तीनों कैटगरीज़ के साथ न्याय करती है.
डायरेक्टर पैट्रिक ग्राहम पैट्रिक ग्राहम सीरीज़ के डायरेक्टर हैं. ब्रिटिश मूल के पैट्रिक मायानगरी मुंबई में हिंदी फिल्म और टीवी इंडस्ट्री से जुड़े हैं. ये उनके जीवन की पहली बड़ी सीरीज़ है जिसे उन्होंने लिखने के साथ-साथ डायरेक्ट भी किया है. पैट्रिक हिंदी इंटरटेनमेंट जगत में काम करने वाले पश्चिमी मूल के इकलौते डायरेक्टर हैं.
अब जाकर भारत ने दी है नेटफ्लिक्स पर दस्तक भारत की दूसरी नेटफ्लिक्स सीरीज़ ‘ग़ूल’ को वैसी पब्लिसिटी नहीं मिली जैसी ‘सेक्रेड गेम्स’ को मिली थी. ज़ाहिर सी बात है कि भारत में कद के मामले में ‘ग़ूल’ के डायरेक्टर पैट्रिक ग्राहम ‘सेक्रेड गेम्स’ के डायरेक्टर अनुराग कश्यप के आस-पास भी नहीं हैं. ऊपर से ‘सेक्रेड गेम्स’ में अनुराग के साथ विक्रमादित्य मोटवानी और वरुण ग्रोवर जैसे जाने-माने लोगों का भी नाम जुड़ा था. हिंदी सिनेमा के इन स्थापित नामों की वजह से ‘सेक्रेड गेम्स’ को बहुत ज़्यादा हाइप मिला. लेकिन आठ एपिसोड्स वाली सीरीज़ ‘सेक्रेड गेम्स’ तीन एपिसोड वाली सीरीज़ ‘ग़ूल’ के सामने इसलिए फीकी है क्योंकि ‘सेक्रेड गेम्स’ का अंत आपको इस पशोपेश में नहीं डलाता कि अब आगे क्या होगा, लेकिन ‘ग़ूल’ आपके ज़ेहन में ये सवाल छोड़ जाता है. देखने वाले के भीतर अगर एक वेब सीरीज़ ये सवाल नहीं छोड़ती, तो इसकी सफलता पर बड़ा सवाल खड़ा होता है.
जब ‘सेक्रेड गेम्स’ रिलीज़ हुई थी तब उसे भारत की पहली नेटफ्लिक्स सीरीज़ बताकर प्रमोट किया गया था, लेकिन नेटफ्लिक्स जैसा प्लेटफॉर्म है उसके लिहाज़ से ‘ग़ूल’ को यहां भारत की असली दस्तक कह सकते हैं.
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