इतिहास गवाह है कि भारत में विलय के साथ ही जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की जो आग जलनी शुरू हुई तो उसे आज तक बुझाया नहीं जा सका है. समय-समय पर इस आग पर पानी भी पड़ता है, लेकिन अंदर-अंदर ही वो आग सुलगती रहती है ...अचानक से एक शोला उठता है और पूरे कश्मीर में फिर से धधकने लगता है. लेकिन क्या कोई फिल्म भी इतना प्रभाव डाल सकती है कि कुछ वक्त तक शांत रहा जम्मू-कश्मीर एक फिल्म की वजह से सुलग उठे. क्या किसी विदेशी फिल्म का इतना भी प्रभाव हो सकता है कि वो जम्मू-कश्मीर में आतंकियों को हथियार उठाने के लिए प्रेरित कर सके. इसका जवाब हां में है. एक फिल्म है, जो भारत में रिलीज नहीं हो रही थी. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के फैसले के बाद फिल्म रिलीज हुई और उसकी वजह से आतंकवाद ने जो सिर उठाया, तो उसे अब तक नहीं कुचला जा सका है. ये एक हॉलीवुड फिल्म द लॉयन ऑफ डेजर्ट की बात हो रही है.
ये बात है साल 1981 की. तब हॉलीवुड में एक फिल्म बनी थी. नाम था द लॉयन ऑफ द डेजर्ट. फिल्म एक लड़ाके ओमर मुख्तार पर बनी थी, जिसने इटली वाले फासिस्ट शासक मुसोलिनी की पूरी सेना के खिलाफ लीबिया में गोरिल्ला वॉर किया था. 1911 से 1931 तक चली इस जंग के बाद ओमर मुख्तार पकड़ा गया था और उसे मुसोलिनी की सेना ने फांसी दे दी थी. एंथनी क्वीन की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म के क्लाइमेक्स में एक डॉयलाग था-
''हम कभी सरेंडर नहीं करेंगे. हमलोग जीतेंगे या मरेंगे. तुमको अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए लड़ना होगा.''
तब लीबिया के शासक मोहम्मद गद्दाफी ने इस फिल्म को बनाने के लिए फंडिंग की थी. लेकिन इटली में इस फिल्म को बैन कर दिया गया. भारत में भी ये फिल्म रिलीज नहीं हो पा रही थी. लेकिन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला इस फिल्म से बड़े प्रभावित थे. उन्हें लगता था कि इस फिल्म को देखने के बाद कश्मीर घाटी के लोगों का झुकाव उनके पिता शेख अब्दुल्ला की तरफ हो जाएगा और पूरी घाटी में भारत के खिलाफ एक माहौल बनेगा. फारुख अब्दुल्ला इसका फायदा उठा लेंगे और तब केंद्र में इंदिरा गांधी को मजबूरी में फारुख अब्दुल्ला के साथ समझौता करना ही पड़ेगा और फारुख अब्दुल्ला की कुर्सी बची रहेगी.
जब फारुख ने अपने सलाहकारों से इस योजना को साझा किया तो उनके सलाहकारों ने कहा कि दांव उल्टा पड़ सकता है, फारुख को फिल्म रिलीज नहीं होने देनी चाहिए. फारुख के हिमायतियों ने सलाह दी कि इस फिल्म के सामने आने से घाटी के लोग दो शेरों यानी कि लीबिया के शेर ओमर मुख्तार और कश्मीर के शेर शेख अब्दुल्ला की तुलना करने लगेंगे और इससे हो सकता है कि लोग शेख अब्दुल्ला से दूरी बनाने लगें. लेकिन फारुख ने सलाह नहीं मानी. जनवरी 1984 में श्रीनगर के रीगल सिनेमा में इस फिल्म को रिलीज कर दिया गया. फिल्म के डायलॉग भले ही अंग्रेजी में थे और ज्यादातर कश्मीरियों की समझ से बाहर थे. लेकिन देखने वालों ने ये जरूर देखा कि ओमर मुख्तार अपने जिस मकसद के लिए जंग लड़ रहा था, उससे वो कभी पीछे नहीं हटा.
तो लोगों ने तुलना शुरू कर दी. शेख अब्दुल्ला ने केंद्र सरकारों ने जो समझौते किए थे चाहे वो समझौता नेहरू के साथ रहा हो या फिर इंदिरा के साथ, लोगों को सब याद आने लगा. उन्हें लगा कि जिस आजादी के मकसद के लिए उन्हें लड़ाई में झोंका गया था, उस मकसद को लेकर तो उनके नेता ने उन्हें धोखे में रखा है. फिल्म देखने के बाद जो भीड़ निकली और जिसे इस फिल्म ने प्रभावित किया था, वो अपने घर न जाकर मुजाहिद मंजिल की ओर बढ़ गए. मुजाहिद मंजिल यानी कि शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला की बनाई पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस का दफ्तर. भीड़ ने दफ्तर पर पत्थरबाजी कर दी और शेख अब्दुल्ला के लगे आदमकद पोस्टरों को फाड़ दिया. इससे भी मन नहीं भरा तो भीड़ ने पैसे देकर शेख अब्दुल्ला के पोस्टर खरीदे और फिर उन्हें सार्वजनिक तौर पर या तो फाड़ दिया या फिर जला दिया.
इस फिल्म को देखने वाली भीड़ में एक नाम यासिन मलिक का भी था. वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी भटनागर और आरसी गंजू अपनी किताब फारुख ऑफ कश्मीर में लिखते हैं कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बनाने वाला आतंकी यासीन मलिक तब एक छात्र हुआ करता था. जिस दिन यासीन मलिक ने फिल्म देखी, वो उसके दिमाग में छप गई. इस फिल्म के बारे में यासीन मलिक ने बताया था-
'मैं और मेरी तरह के बहुत से युवाओं को इस फिल्म औैर ओमर मुख्तार ने प्रभावित किया. हमें ये महसूस हुआ कि शेख अब्दुल्ला और उनका परिवार कभी कश्मीरी भावनाओं के साथ था ही नहीं. वो सिर्फ अपनी सत्ता बचाने और संपत्ति बनाने की कोशिश में लगे रहे थे. द लॉयन ऑफ डेजर्ट देखने के बाद मैं और मेरे जैसे कई युवा मिलिटेंसी की तरफ बढ़ते चले गए.''
फिल्म देखने के बाद घाटी के युवाओं को लगा कि हथियारबंद विद्रोह की कश्मीर की आजादी का एक रास्ता है. लिहाजा बहुत से युवा जमात और जेकेएलएफ से जुड़ गए. बहुत से युवा बॉर्डर पार चले गए ताकि हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले सकें. उन्होंने ट्रेनिंग ली और लौटे तो उनके हाथों में एके 47 जैसे खतरनाक हथियार थे, जिन्हें वो बखूबी चलाना जान गए थे. और एक बार जो ये सिलसिला शुरू हुआ, तो वो रोके नहीं रुका. उसके बाद तो इतिहास ही है कि कैसे जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल जगमोहन ने राज्यपाल शासन लगाया और उसके बाद जो विधानसभा चुनाव हुए उसमें हुई धांधली ने उन आतंकियों को जन्म दिया, जिसकी वजह से आज तक जम्मू-कश्मीर में कभी शांति नहीं हो पाई है. वो कहानी फिर कभी.
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