स्टार कास्ट: कीर्ति कुल्हारी, नील नितिन मुकेश, अनुपम खेर, सुप्रिया विनोद, टाटा रॉय चौधरी


डायरेक्टर: मधुर भंडारकर


रेटिंग: ** (दो स्टार)


1975 में लगी 'इमरजेंसी' के दौर को लोकतंत्र के 'काले अध्याय' के रूप में पहले से ही जाना जाता है. उस दौरान प्रेस पर पाबंदी, जबरन नसबंदी, मीसा ( आंतरिक सुरक्षा क़ानून) के नाम पर लोगों की जबरदस्ती गिरफ्तारी जैसे कई गंभीर आरोप सरकार पर लगे. उस वक्त देश ने जो दर्द महसूस किया उसे सिनेमाई पर्दे पर उतारने की हिमाकत आज तक कोई नहीं कर पाया. इस मुद्दे के इर्द गिर्द अब तक बॉलीवुड में एक दो फिल्में ही बनी हैं. ऐसे में जब मधुर भंडारकर जैसा एक जाना माना डायरेक्टर उस दौर पर फिल्म बनाने की सोचे तो लोगों की उम्मीदें जग जाती हैं. लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद ये कहा जा सकता है कि बॉलीवुड को अब पॉलिटिकल मुद्दों पर फिल्म बनाने के बारे में ज्यादा सोचना नहीं चाहिए.



रिलीज से पहले इस फिल्म को लेकर काफी विवाद भी हुए. डायरेक्टर मधुर भंडारकर पर आरोप लगा कि इस फिल्म के जरिए इंदिरा गांधी और संजय गांधी की छवि धूमिल करने की कोशिश की जा रही है. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और फिर फिल्म को रिलीज करने की अनुमति मिली. लेकिन यहां गौर करने वाली बात ये है कि छवि धूमिल करना तो दूर, मधुर भंडारकर इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की असली तस्वीर भी नहीं दिखा पाए हैं. जितना इमरजेंसी के बारे में अभी तक जितना पढ़ा, सुना या देखा है उस हिसाब से फिल्म में कैरेक्टर्स के निगेटिव शेड्स ना के बराबर नज़र आए.



किरदारों को निगेटिव फ्रेम में लाने के लिए फिल्म में सिर्फ भारी-भरकम डायलॉग हैं जो बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करते. जैसे 'इमरजेंसी में सरकार से पंगा लेने का मतलब है ऊपर वाले से पंगा लेना'. एक सीन में संजय गांधी कहते हैं, 'इमरजेंसी में इमोशन नहीं मेरे ऑर्डर चलते हैं...', 'सरकारें चैलेंज से नहीं चाबुक से चलती हैं.' लोगों को डराने के लिए अक्सर कहा जाता है, 'इस्तीफा रखो वरना मीसा में अंदर करवा दूंगा'... इत्यादि.


इस फिल्म की सबसे बड़ी परेशानी ये है कि ये फिल्म में उस दौर के सभी चर्चित घटनाओं को दिखाने की कोशिश की गई है. जैसे जबरन नसबंदी, तुर्कमान गेट कांड जैसी घटनाएं. प्रेस से लेकर कलाकारों पर किस तरह से दबाव बनाया गया इसे किशोर कुमार पर लगे बैन के जरिये दिखाया है. इरजेंसी के दौरान किशोर कुमार ने जब कांग्रेस की रैली में जाने से मना किया तो उनके गानों को टीवी, रे़डियो से बैन कर दिया गया. इसमें 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...' सीन भी रखा गया है. ये सारे सीन टुकड़ों में बंटे हुए लगते हैं. इस सीन खत्म होता है और दूसरा शुरू होता है. कहीं भी कड़ियां एक दूसरे से जुड़ी हुई नहीं लगती. आप सब कुछ वही देख और सुन रहे होते हैं जो आपने इमरेजंसी के बारे में पहले से ही पता है. कुछ भी नया देखने को नहीं मिला है. जैसा कि ट्रेलर में भंडारकर ने अनटोल्ड होने का दावा किया था.


हद तो ये है कि इंदिरा गांधी के कई पोस्टर भंडारकर ने रिलीज किए थे जिसे देखने के बाद इस फिल्म को लेकर विवाद बढ़ गया. लेकिन इस फिल्म में इंदिरा गांधी का सिर्फ एक सीन है वो भी फिल्म खत्म होते-होते. दर्शकों के लिए इससे ज्यादा निराशाजनक बात क्या होगी.


कहानी


इस फिल्म में इंदु सरकार (कीर्ति कुल्हारी) नाम की महिला की कहानी दिखाई गई है जो कविताएं लिखती है, हकलाती है और अनाथ है. जिसकी जिंदगी से बस इतनी चाहत है कि वो एक अच्छी बीवी बनना चाहती है. इमरजेंसी की वजह से कुछ ऐसा होता है कि उसकी जिंदगी बदल जाती है. जो इंदु स्टेज पर अपनी कविता कहने से भी डरती है वो अपना आत्म सम्मान बचाने के लिए सिस्टम और सरकार के खिलाफ लड़ती है. वजह क्या है ये जानने के लिए तो आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. इमरजेंसी के बारे में जो बातें ऊपर लिखी हैं उनके साथ-साथ इंदु की कहानी चलती है. फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह उस दौरान सरकार के साथ काम कर रहे लोगों ने इमरजेंसी को अपने ख्वाब पूरे करने के लिए गलत इस्तेमाल किया.


कमियां


इसमें महिलाओं के आत्म-सम्मान और उनके हक के बारे में भी बात की गई है. एक डायलॉग है, 'औरतें अपना घर टूटते हुए देखकर टूट जाती हैं.' इंदु का पति उससे कहता है, 'जो हकलाता है वो हक मांगने चला है.' इस तरह मधुर भंडारकर ना तो इंदु के किरदार के साथ न्याय कर पाए हैं और ना ही इमरजेंसी के दौरान लोगों पर हुए जुल्म को पर्दे उतार पाए हैं.



मधुर ने बिना गलती लोगों की जान लेने, आंदोलनकारियों को जेल में डालने औऱ टार्चर करने से लेकर बिना उम्र देखे 70 साल के बूढ़े या 13 साल के लड़के की नसबंदी समेत जुल्म की सारी हदें दिखायी. लेकिन ये उनके डायरेक्शन की कमजोरी है इतना सब देखने के बाद फिल्म के किसी भी किरदार या दृश्य से सहानुभूति नहीं हो पाती. बेहद संवेदनशील औऱ भावुक दृश्य भी बेहद मामूली से दिखते हैं.एक बानगी- एक महिला अपने की मौत को कुछ इस तरह बयां करती है- 'एक गोली ने मेरे 6 फुट के बेटे को 6 इंच की तस्वीर बना दी.'


एक्टिंग


इंदु सरकार की भूमिका में कीर्ति कुल्हारी ने बहुत ही शानदार एक्टिंग की है. ये फिल्म भंडारकर के लिए तो नहीं लेकिन कीर्ति के लिए एक बार देखी जा सकती है. कीर्ति जितने भी सीन में दिखी हैं उन्होंने इंप्रेस किया है. इससे पहले कीर्ति पिंक में भी नज़र आ चुकी हैं लेकिन उस वक्त उस फिल्म में उन्हें लेकर ज्यादा चर्चा नहीं हुई.लेकिन इस फिल्म के हर एक सीन में उन्होंने खुद को साबित कर दिया है.



संजय गांधी की भूमिका में नील नितिन मुकेश का लुक पोस्टर में  तो बहुत ही शानदार लगा था,  फिल्म में भी वो वैसा ही दिखते हैं लेकिन फिल्म में वो कहीं भी रियल नहीं लगते.  जब वो कहते हैं कि 'सरकारें चैलेंज से नहीं चाबुक से चलती हैं..' तो सुनकर उनपर गुस्सा भी नहीं आता बल्कि उनपर दया आती है कि ऐसी फिल्मों के लिए वो कैसे राजी हो जाते हैं.


इंदु सरकार के पति नवीन सरकार की भूमिका में टाटा रॉय चौधरी ने भी अच्छी एक्टिंग की है. इसके अलावा अनुपम खेर भी जब पर्दे पर आते हैं तो अपने किरदार के साथ न्याय करते हैं.


क्यों देखें/ना देखें


'ट्रैफिक सिग्नल', 'पेज थ्री', 'फैशन' और 'चांदनी बार' जैसी बेहतरीन और यादगार फिल्में बनाकर कई अवॉर्ड जीतने वाले मधुर भंडारकर इस बार चूक गए हैं. 2 घंटे 20 मिनट की ये फिल्म ना तो इंटरटेन करती है और ना ही इमरजेंसी के दौरान की कोई भी वास्तविक झलक पेश कर पाती है. फिल्म के सारे बेस्ट सीन ट्रेलर में हैं. इस फिल्म में ऐसे ऐतिहासिक और गंभीर मुद्दे की आत्मा को ही मार दिया गया है. इसे देखकर इमरजेंसी पर ग़ुस्सा नहीं बल्कि फ़िल्म पर तरस आता है. इसे आप सिर्फ कीर्ति कुल्हारी के लिए देख सकते हैं.


Twitter- @rekhaTripathi