नई दिल्ली: मुंशी प्रेमचंद के बाद क्रांतिकारी कलमकार के तौर पर जिन्होंने सबसे ज्यादा नाम कमाया वह मंटो ही हैं. साहित्य में दिलचस्पी रखने वालों के लिये मंटो कभी इस दुनिया से रुखसत ही नहीं हुये. उनकी कहानियां बंटवारे और उसके फौरन बाद के दौर में जितनी मौजूं थीं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं. मंटो ने क्या लिखा और कितना लिखा ये उनकी मौत के करीब 60 साल बाद शायद उतना जरूरी नहीं है जितना ये कि उन्होंने जो लिख दिया वो आज भी हमारे समाज की हकीकत है और उसे आइना दिखाने का काम कर रहा है.


मंटो ने जहां अपनी कहानियों में शहरी पृष्ठभूमि में किरदारों और उनकी बेचैनियों को बेलाग तरीके से पेश करने की हिम्मत दिखाई वहीं हर कहानी को ऐसा अंजाम दिया कि वह एक सबक के तौर पर पाठक के दिमाग पर अपनी छाप छोड़े. मंटो ने समाज की हकीकत दिखाई लेकिन उन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे. हिंदुस्तान में 1947 से पहले उन्हें अपनी कहानी ‘धुआं’, ‘बू’ और ‘काली सलवार’ के लिये मुकदमे का सामना करना पड़ा तो वहीं विभाजन के बाद पाकिस्तान में ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘उपर-नीचे-दरमियान’ के लिये मुकदमे झेलने पड़े. मंटो हालांकि इन आलोचनाओं से डरे नहीं और उन्होंने बड़ी बेबाकी से इनका जवाब दिया. आलोचनाओं के जवाब में वह कहते थे, ''अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लग रही हैं तो जिस समाज में आप रह रहे हैं वो अश्लील और गंदा है. मेरी कहानियां समाज का सच दिखाती हैं.''


ठंडा गोश्त: 'मंटो' की इस कहानी पर मचा था खूब बवाल, मुकदमा भी चला, पढ़ें पूरी कहानी


मंटो की शख्सियत कितनी दिलचस्प थी इसका अंदाजा इस बात से हो जाता है कि एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘उर्दू का सबसे बड़ा अफसानानिगार आठवीं जमात में उर्दू में फेल हो गया.’ ये खुद पर ही तंज करने का उनका अंदाज था. मंटो दरअसल जिंदगी का एक पूरा फलसफा थे. वह समाज के सच को सामने रखने के लिये ऐसे तल्ख शब्दों का इस्तेमाल करते थे कि सियासत और समाज के अलंबरदारों की नींद हराम हो जाती थी.


फिल्म की रिलीज से पहले हैवानियत', 'रिआयत', 'ख़बरदार' जैसी कहांनियों के जरिए 'मंटो' को जानें


अब 'मंटो' पर बॉलीवुड की जानी मानी शख्सियत नंदिता दास फिल्म लेकर आ रही हैं. इसमें मंटो के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं. ये फिल्म 21 सितंबर को रिलीज होने वाली है. फिल्म की रिलीज से पहले एबीपी न्यूज़ आपके लिए लेकर आया उनकी कुछ कहानियां जिन्होंने खूब चर्चा बटोरी. इस सीरिज में आज पढ़ें 'खुदकुशी'.



'खुदकुशी'


ज़ाहिद सिर्फ नाम ही का ज़ाहिद नहीं था. उसके जोहद व तकवे के सब कायल थे. उसने पच्चीस बरस की उम्र में शादी की. उस ज़माने में उसके पास दस हज़ार रुपये के करीब थे, शादी पर दस हज़ार सिर्फ’ हो गये. इतनी ही रकम बाकी रह गयी. ज़ाहिद बहुत खुश था. उसकी बीवी बड़ी खुश खासलत और खूबसूरत थी. उसको उससे बेपनाह मुहब्बत हो गयी. वह भी उसको दिल व जान से चाहती थी. दोनों समझते थे कि जन्नत में आबाद हैं.


एक बरस बाद उनके एक लड़की पैदा हुई जो मां पर थी, यानि वैसी ही हसीन. बड़ी-बड़ी गिलाफी आँखें, इन पर लम्बी पलके महीन अबरू छोटासा लब दहन! उस लड़की का नाम सोचने में काफी देर लग गयी. जाहिद और उसकी बीवी को दूसरे के तज़वीज किए हुए नाम पसन्द नहीं आते. वह चाहती थी कि खुद ज़ाहिद नाम बताए.


ज़ाहिद देर तक सोचता रहा, लेकिन उसके दिमाग में ऐसा कोई मौजू व मुनासिब नाम न आया जो वह अपनी बेटी के लिए मुन्तखिब करता. उसने अपनी बीवी से कहा, “इतनी जल्दी क्या है! नाम रख लिया जाएगा.” बीवी मुसिर थी कि नाम ज़रूर रखा जाय “मैं अपनी बेटी को इतनी देर बे नाम नहीं रखना चाहती.”


वह कहता, “इसमें क्या हर्ज“ है! जब कोई अच्छा सा नाम ज़हन में आएगा तो इस गुल गोथनी के साथ टाँक देगे.” “पर मैं इसे क्या कह कर पुकारूँ?! मुझे बड़ी उलझन होती है.”


“फिलहाल बिटिया कह देना काफी है.”


“यह काफी नहीं है! मेरी बिटिया का कोई नाम होना चाहिए.”


“तुम खुद ही कोई मुंतखिब कर लो.”


“यह काम आपका है मेरा नहीं.”


“तो थोड़े दिन इन्तज़ार करो! मैं उर्दू की लगत लाता हूँ! उसके पहले सफहे से आखारी सफहे तक गौर से देखूँगा! यकीनन कोई अच्छा सा नाम मिल जाएगा.” “मैंने आज तक यह नहीं सुना था कि लोग अपने बच्चों बच्चियों के नाम डिक्शनरियों से निकालते हैं.”


“नहीं मेरी जान, निकालते हैं! मेरा एक दोस्त है. उसके यहां जब बच्ची पैदा हुई तो उसने फौरन लुगत निकाली और उसने वर्क गरदानी करने के बाद एक नाम चुन लिया.”


“क्या नाम था.”


“निकहत.”


“इसके माने क्या हैं.”


“खुश्बू”


“बड़ा अच्छा नाम है! निकहत! याने खुश्बू”


“यही नाम रख लो.”


ज़ाहिद की बीवी ने अपनी बच्ची को जो सो रही थी एक नज़र देखा और कहा “नहीं! मैं अपनी बिटिया के लिए पुराना नाम नहीं चाहती! कोई नया नाम तलाश कीजिए! जाइए डिक्शनरी ले आइए.”


ज़ाहिद मुसकुराया! “लेकिन मेरे पास पैसे कहां हैं?”


ज़ाहिद की बीवी भी मुसकुराइ, “मेरा पर्स अलमारी पर पड़ा है, उसमें जितने रुपये आपको चाहिए निकाल लीजिए.”


ज़ाहिद ने “बहुत बेहतर” कहा और अलमारी खोल कर उसमे से अपनी बीवी का पर्स निकाला और दस रुपये का एक नोट लेकर बाज़ार रवाना हो गया लुगत खारीदने. वह कई कुतुब फरोश दुकानों में गया! कई लुगत देखे. बाज़ तो बहुत कीमती थे, जिन की तीन-तीन जिल्दें थी. कुछ बड़े नाकिस! आखिर उसने एक लुगत जिसकी कीमत वाजबी थी खरीद लिया और रास्ते में उसकी वर्क गरदानी करता रहा, ताकि नाम का मसला जल्द हल हो जाये.


(सआदत हसन मंटो की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)


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