फिल्म देखने जाने से पहले पढ़ें, कैसी है 'टॉयलेट: एक प्रेम कथा'...
अक्षय कुमार यानि केशव और भूमि यानी जया की प्रेम कहानी को बुनने की कोशिश की गयी है. एक तरफ जया एक पढ़ी लिखी लड़की और केशव हाई स्कूल तक पढ़ा लिखा, मगर समझदार. दोनों में प्यार होता है और फिर शादी. शादी में विलन है शौच.
जया शादी के पहले ही दिन अपने पति केशव और ससुराल से बगावत करती है जब उसे पता चलता है की उनके घर टॉयलेट नहीं है . दरअसल जया एक पढ़ी लिखी और खुले विचारों वाले परिवार की लड़की है और खुले में शौच जाना उसे बिल्कुल भी गवारा नहीं. केशव का साथ उससे जरूर मिलता है मगर वह भी अपने पिता की रूढ़िवादी सोच और अंधविश्वास के आगे बेबस हो जाता है, ऐसे में केशव अपनी पत्नी के लिए कुछ न कुछ करता है ..जिसे जया "जुगाड़" कहती... है. मगर यह बहुत वक्त तक चल नहीं पाता और अंत में केशव अपने प्यार को वापस लाने के लिए ज़माने की पुरानी परंपरा और रूढ़िवादी सोच के खिलाफ खड़ा होता है और समाज के इस दकियानूसी सोच के खिलाफ आवाज उठाता है.
फिल्म का फर्स्ट हॉफ अक्षय कुमार यानि केशव और भूमि यानी जया की प्रेम कहानी को बुनने की कोशिश की गयी है. एक तरफ जया एक पढ़ी लिखी लड़की और केशव हाई स्कूल तक पढ़ा लिखा, मगर समझदार. दोनों में प्यार होता है और फिर शादी. शादी में विलन है शौच. तो यह हो गया Title का दूसरा हिस्सा यानी "एक प्रेम कथा" फिल्म का सेकेंड हाफ यानि टाइटल का फर्स्ट हाफ "टॉयलेट" जो अब शुरू होती है. फिल्म के इस हिस्से में स्वछता अभियान, प्रधानमंत्री द्वारा नोटबंदी का ज़िक्र..." वहीं फिल्म में “बिल सरकार पर फाड़ो और खुद की कोई ज़िम्मेदारी नहीं" जैसे डायलॉग्स इस फिल्म को पूरी तरह एक सरकारी डाक्यूमेंट्री बनाती है.एक्टिंग और डायलॉग्स
अभिषेक ने डायलॉग्स अच्छे लिखे हैं...अक्षय कुमार हमेशा ही वन लाइनर्स को बहुत ही नेचुरल तरीके से डिलीवर करते हैं. उनका अभिनय बेहतरीन है, तो यहां भी वह अपने फैंस को निराश नहीं करेंगे. देशभक्ति वाली फिल्मों की फेहरिस्त में इस फिल्म का नाम जरुर शामिल होगा, मगर सरकारी. भूमि का किरदार सशक्त है मगर वैसा ही ही जैसा उन्होंने अपनी पहली फिल्म दम लगा के हईशा में की थी. दोनों की जोड़ी अच्छी लग रही है.अक्षय के भाई के किरदार में दिव्येंदु और पिता के किरदार में सुधीर पांडे का काम अच्छा है.
म्यूजिकगाने बहुत ही औसत हैं. हंस मत पगली और बखेड़ा ठीक तक है. चूंकि यह गाना फिल्म में कई जगह बजता है, तो शायद लोगों को कुछ देर तक याद रहे. "पर्दा शौच पर लगाने की जगह सोच पर लगाइये". फिल्म का इरादा नेक है और मैसेज भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन इस बात को तो निर्देशक और एडिटर श्री नारायण सिंह एक 10 मिनट की डाक्यूमेंट्री में भी समझा सकते थे. मेरे लिए यह फिल्म एक स्वच्छ भारत अभियान के कैंपेन से ज़्यादा कुछ भी नहीं.