नई दिल्ली: हम सभी ने अपनी स्कूल की किताबों में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की वीरता की कहानियां पढ़ी हैं. हिंदुस्तान की ऐसी महिला जो अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत से जा टकराई. जीत का जुनून लिए लक्ष्मी बाई मैदान-ए-जंग में उतरीं और अंग्रेज़ों पर कहर बनकर टूटीं. उसी रानी लक्ष्मी बाई पर अब एक फिल्म बनी है, जिसका नाम ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’. इस फिल्म में लक्ष्मी बाई का किरदार अभिनेत्री कंगना रनौत ने निभाया है. फिल्म का ट्रेलर और गाने काफी पसंद किए जा रहे हैं. 25 जनवरी को बड़े परदे पर दस्तक देने जा रही इस फिल्म का लोगों को कितना इंतज़ार है ये तो इसकी रिलीज़ के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन आज हम आपको झांसी की उस असली रानी के बारे में बता रहे हैं, जिनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है.



कहां हुआ था जन्म?


आज़ादी की लड़ाई की पहली वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 1828 में वाराणसी के अस्सी घाट के नज़दीक अस्सी मोहल्ले में हुआ था. उनके पिता का नाम मोरेपंत और मां का नाम भागीरथी बाई था. लक्ष्मी बाई के पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा, लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था. महज़ 4 साल की उम्र में मणिकर्णिका उर्फ मनु अपनी जन्भूमि को हमेशा के लिए छोड़ कर अपनी मां और पिता के साथ बिठूर चली गई थीं.


कानपुर के पास बिठूर का गंगा तट और बिठूर के गंगा तट पर था पेशवा बाजीराव का महल. बाजीराव की अपनी कोई संतान नहीं थी लिहाज़ा वंश को आगे बढ़ाने लिए उन्होंने नानासाहेब को गोद लिया था. नानासाहेब की उम्र मनु यानि लक्ष्मी बाई से कोई 11 साल ज़्यादा थी, लेकिन लक्ष्मीबाई का बचपन उन्हीं के साथ खेलते-कूदते बीतने लगा.



उधर झांसी के राजा गंगाधर राव निःसंतान थे. उन्हें अपना वंश बढ़ाए जाने की चिंता थी क्योंकि अंग्रेजों ने शर्त लगा रखी थी की उनकी मौत के बाद उनका अपना खून ही झांसी की गद्दी पर बैठ सकता है और अगर ऐसा नहीं हुआ तो झांसी को अंग्रेजी हुकूमत में मिला लिया जाएगा.


झांसी के राजा गंगाधर राव के लिए योग्य लड़की की तालाश में झांसी के राजपुरोहित, पंडित तांत्या दीक्षित जब बिठूर पहुंचे तो उनकी नज़र मणिकर्णिका पर पड़ी.


14 साल की उम्र में मणिकर्णिका बनी थीं दुल्हन


1842 में मणिकर्णिका जब महज़ 14 साल की थीं तब राजा गंगाधर राव से झाँसी के गणेश मंदिर में उनकी शादी हो गई. शादी के बाद मणिकर्णिका के पति और झांसी के राजा गंगाधर राव ने उनका नाम लक्ष्मी बाई रख दिया.


झांसी के राजमहल में 1851 में लक्ष्मी बाई मां बनीं. महारानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया. राजमहल में खुशियां लौट आईं, लेकिन ये खुशियां ज्यादा दिन नहीं ठहरी. महज़ 4 महीने बाद ही लक्ष्मी बाई और गंगाधर राव के बेटे की मौत हो गई. अपनी विरासत को बचाने के लिए गंगाधर राव ने दामोदर राव नाम के एक बच्चे को गोद लिया. लेकिन उनके अपने बेटे के मौत के सदमे से वो उबर नहीं सके.



झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर को झांसी का कानूनी वारिस बनवाने के लिए लंदन की अदालत तक कानूनी लड़ाई लड़ी, लेकिन उन्हें इंसाफ नहीं मिला. अंग्रेजी हुकूमत ने रानी लक्ष्मी बाई को झांसी छोड़ देने का फरमान जारी कर दिया और गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने झांसी पर कब्ज़ा कर लक्ष्मी बाई को राजगद्दी से बेदखल करने का फैसला जारी कर दिया.


मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी- रानी लक्ष्मी बाई


झांसी की रानी ने ठान ली थी कि वो जीते जी झांसी को अंग्रेजो के हवाले नहीं करेंगी. जब अंग्रेजो के दूत रानी लक्ष्मी बाई के पास झांसी छोड़ने का फरमान लेकर आए तो सिंहासन से उठकर, गरज कर लक्ष्मी बाई ने कहा, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी.



जनवरी 1858 में अंग्रेजो की सेना झांसी की तरफ बढ़ने लगी. महारानी लक्ष्मी बाई की सेना ने अंग्रेजो को आगे बढ़ने से रोक लिया और जंग 2 हफ़्तों तक जारी रही. लड़ते-लड़ते लक्ष्मी बाई की सेना थकने लगी. आखिरकार 3 अप्रैल 1858 को अंग्रेज़ों ने झांसी के किले पर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने अपने दत्तक पुत्र यानि गोद लिए पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांधा और कुछ भरोसेमंद सैनिकों के साथ अंग्रेज़ों की आंख में धूल झोंक कर भाग निकलने में कामयाब हुईं.


कालपी में ही रानी लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर के किले पर अधिकार करने की रणनीति बनाई, क्योंकि यहां से आगरा और मुंबई को जोड़ने वाली रोड पर नियंत्रण रखा जा सकता था. ग्वालियर के महाराजा जिवाजी राव सिंधिया किसी भी तरह के हमले के लिए तैयार नहीं थे. उधर महारानी लक्ष्मी बाई 30 मई को अचानक ही पूरे लाव-लश्कर के साथ गवालियर आ धमकी और 1 जून को गवालियर के इसी किले पर अपना कब्ज़ा कर लिया. ग्वालियर का किला जैसे ही लक्ष्मी बाई के अधिकार में आया, तो ये खबर अंग्रेजी सेना के लिए बहुत ही शर्म की बात थी उनकी बहुत ही बड़ी हार थी.



लड़ाई का दूसरा और लक्ष्मी बाई का आखिरी दिन
18 जून 1858 का दिन ग्वालियर में लड़ाई का दूसरा और महरानी लक्ष्मी बाई की ज़िन्दगी का आखिरी दिन था. आज़ादी की इस पहली लड़ाई में लक्ष्मी बाई ने अपनी जान की बाज़ी लगा लेने का फैसला कर लिया था. महारानी लक्ष्मी बाई अपने वफादार घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों पर बिजली की तरह टूट पड़ीं और अंग्रेजों का सफाया कर तेज़ी से आगे बढ़ने लगीं. रानी लक्ष्मी बाई लड़ते लड़ते एक नाले तक आ पहुंची, लेकिन वहां पहुंचने के बाद उनका नया घोडा अड़ गया, ऐसे में लक्ष्मी बाई को दुश्मनो ने चारों ओर से घेर लिया. लक्ष्मी बाई ने मरते मरते भी दुश्मन के सैनिकों को मार डाला. लक्ष्मी बाई नहीं चाहती थीं कि उनके मरने के बाद उनका शरीर अंग्रेज छू पाएं.



लक्ष्मीबाई भले ही अपनी झांसी को दोबारा ना पा सकीं, लेकिन उनका महाबलिदान बेकार नहीं गया. अंग्रेज़ों के खिलाफ उन्होंने जो जंग छेड़ी वो आगे चल कर इतनी तेज़ हो गई कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा.


यहां देखें फिल्म का ट्रेलर...