नई दिल्ली: भारत रंग महोत्सव-17 में अभिनेता मनोज वाजपेयी ने एक बातचीत के दौरान अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहा, ‘‘मुझे ‘नटवा’ नाटक के चरित्र से बाहर आने के लिए बहुत मेहनत करनी पडी और यही स्थिति ‘शूल’ फिल्म के समय भी हुई. जिस तरह चरित्र में जाने का एक तरीका है, उसी तरह का उससे बाहर आने का भी एक आनंद है.’’


उन्होंने कहा, ‘‘नटवा में मैंने एक नर्तक का किरदार अदा किया था. जो पुरूष है लेकिन उसके किरदार की वजह से उसके हाव.भाव महिलाओं की तरह हो गए, हालांकि वह समलैंगिक नहीं है. उसकी शादी भी हुई है लेकिन सारा समाज उसकी पत्नी उसके हाव.भाव की वजह से उलाहना देता है. इस नाटक में उसकी जंग समाज में अपनी पत्नी को पर्याप्त सम्मान दिलाने की है.’’ वाजपेयी ने कहा, ‘‘इस नाटक को कई बार कर लेने के बाद मेरे निजी जीवन में भी हाव-भाव महिलाओं की तरह हो गए थे. तब मैंने कहीं पढा था कि कमल हासन साहब बहुत अच्छे भरतनाट्यम के जानकार हैं और उन्हें भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पडा था तो उन्होंने कसरत करना शुरू किया था. मैंने भी इस चरित्र से बाहर आने के लिए कसरत करना शुरू किया.’’ उन्होंने कहा कि इसी प्रकार ‘शूल’ के वक्त भी उन्हें उस किरदार से बाहर आने के लिए मनौवैज्ञानिक की मदद लेनी पड़ी थी.


तीन बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने में नाकाम रहने वाले अभिनेता वाजपेयी ने एक सवाल के जवाब में कहा, ‘‘बार-बार असफल रहने के बाद भी वह यहां :नाट्य विद्यालय: सिर्फ अवसर की तलाश, अपने को अभिनय में पारंगत बनाने और तकनीक सीखने के लिए आना चाहते थे.’’


नाट्य विद्यालय को मुंबई जाने की एक सीढी के तौर पर प्रयोग करने और भारत में नाटक के भविष्य के एक सवाल पर वाजपेयी कहा, ‘‘यह हमारी नजर का दोष है. हम सिर्फ मुंबई जाने वालों पर नजर रखते हैं. कितने लोग नाट्य विद्यालय से वापस जाते हैं, उनको हम कभी देखते ही नहीं.’’ उन्होंने कहा कि इसलिए नाटक को भारत में सिर्फ कुछ लोगों के जुनून ने ही जिंदा रखा हुआ है. अगर यह जुनून ना हो तो नाटक बचेगा ही नहीं. इसलिए हमें उनकी ओर भी देखना होगा जो वापस जा रहे हैं और अपने राज्यों में नाटक के क्षेत्र में काम कर रहे हैं.


अंत में उन्होंने अपने पिता की एक चिट्ठी का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘पिताजी ने मुझे लिखा था कि, ‘मैं जानता था कि तू मेरा ही बेटा है. मुझे पता था कि तू अभिनेता ही बनेगा. लेकिन मैं फिर भी अपनी किस्मत आजमा रहा था कि शायद तू डॉक्टर बन जाए.’’ उन्होंने कहा कि उनके पिताजी को पता नहीं था कि वह दिल्ली में अभिनय करते हैं. लेकिन एक बार ‘इंडिया टुडे’ में उनके एक नाटक की तस्वीर छपी थी. इसके बाद उन्हें पता चला कि वे अभिनय करते हैं और फिर उन्होंने वह पत्रिका पूरे गांव को घूम-घूम कर दिखाई.


नाटक के छात्रों से उन्होंने बार.बार ऑडीशन देने के लिए कहा.