Monday Motivation: 'भीखू म्हात्रे' यूं ही तो 'सरदार खान' नहीं बन गया होगा, मनोज बाजपेयी में ऐसा क्या खास है?
Monday Motivation: बिहार से निकला नौजवान एक दिन इस तरह से अपनी जगह बना लेगा, ऐसा उस बच्चे को भी नहीं पता रहा होगा. लेकिन उसे ये जरूर पता था कि रिजेक्शन से खुद की काबिलियत को कम नहीं होने देना है.
Monday Motivation: मनोज बाजपेयी हिंदी फिल्मों का वो चेहरा हैं, जो धीर-धीरे दर्शकों की पसंद बनते गए. शाहरुख, सलमान और रणबीर-रणवीर जैसे अभिनेताओं के बीच चुपके से अपने लिए एक जगह बना लेना वाकई काबिल-ए-तारीफ है. ऐसा नहीं है कि मनोज बाजपेयी की एक्टिंग में शुरुआत कोई ढीलापन रहा हो, जो बाद में समय के साथ निखरकर आया. अगर ढीलापन होता तो 'भीखू म्हात्रे' और 'शूल' का सिरफिरा दरोगा की आज भी कई मौकों पर बात नहीं हो रही होती. बस फर्क ये है कि उन्हें फेम मिलने में थोड़ा टाइम लग गया.
साल 2023 में अर्थ कल्चरल फेस्ट में उन्होंने अपने संघर्षों पर बात की थी. मनोज ने कहा था, ''जब कोई काम नहीं होता है, तो बहुत काम होता है.'' मनोज ने बताया था कि उनके करियर की शुरुआत में असफलता और रिजेक्शन जैसी चीजों का सामना कर उन्हें कैसे संभाला.
मनोज ने कहा था, ''आपको लोग रिजेक्ट कर रहे हैं, इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि आप कुछ नहीं हैं. असफलता से आपको परिभाषित नहीं किया जा सकता. और बिल्कुल उसी तरह अगर आप सक्सेसफुल हैं तो भी इसका मतलब ये नहीं है कि इससे भी आपको परिभाषित किया जा सके.''
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खुद को साबित करने के लिए बस उस खास मौके की तलाश
मनोज बाजपेयी ने बताया था कि जब वो सबसे निचले स्तर पर थे, तो उन्हें पता कि उन्हें बस उस एक शॉट की जरूरत है जिससे वो खुद को साबित कर सकें. उन्होंने एक कमाल की बात कही थी, ''जब मैं असफल हो रहा था तब भी मैं बुरा एक्टर नहीं था. बस मैं मार्केट और कॉमर्शियल पहलुओं के हिसाब से असफल था. लेकिन मेरा पर्सपेक्टिव ये है कि मैं जो कर रहा था वो फेलियर नहीं था. मुझे बस एक बात पता थी कि मुझे एक मौका मिलेगा और मैं कमबैक कर लूंगा''.
'सरदार खान' बनने तक का सफर रहा मुश्किलों भरा
गैंग्स ऑफ वासेपुर के सरदार खान तक पहुंचने में मनोज बाजपेयी ने जो कुछ भी फेस किया वो जितना इंट्रेस्टिंग लगेगा सुनने में उतना ही परेशान करने वाला भी. मनोज बाजपेयी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि 12वीं के बाद जब उन्हें दिल्ली पढ़ाई के लिए आना था, तो उन्हें पता भी नहीं था कि टिकट रिजर्वेशन नाम की भी कोई चीज होती है. 17 साल की उम्र में दिल्ली आए मनोज के लिए चीजें आसान नहीं थीं. जब वो दिल्ली में मौजूद नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन के लिए अप्लाय कर रहे थे, तो हर बार रिजेक्ट हो जा रहे थे. तीन बार रिजेक्ट होने के बाद जब रघुबीर यादव ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें बैरी जॉन की वर्कशॉप अटैंड करनी चाहिए, तो उन्होंने ऐसा ही किया. दिलचस्प बात ये है कि उन्हें एनएसडी में स्टूडेंट नहीं टीचर की पोजीशन ऑफर कर दी गई.
मेहनत छुपती नहीं, नजर में आ ही जाती है
मनोज बाजपेयी को शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' में पहला ब्रेक मिला. पर उन्हें असल पहचान 'सत्या' के भीखू म्हात्रे वाले रोल से मिली. रामगोपाल वर्मा और मनोज बाजपेयी दोनों ने कई मौकों पर इस बारे में बात की है कि वर्मा ने उन्हें ढूंढकर ये रोल ऑफर किया था. ऐसा इसलिए क्योंकि उस जमाने में सोशल मीडिया और मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे, इसलिए मनोज से संपर्क कर पाना डायरेक्टर वर्मा के लिए मुश्किल था. तो बात ये है कि अगर आप मेहनत करने के बावजूद भी रिजेक्शन का सामना कर रहे हैं, तो इसका मतलब ये नहीं है कि लोगों को आपका फेल होना ही दिख रहा है. कहीं न कहीं कोई न कोई ये भी देख रहा होता है कि आपमें कितना पोटेंशियल है और आप क्या कर सकते हैं. मनोज की ये कहानी सीख भी है क्योंकि अगर वो भीखू म्हात्रे न बने होते तो आज 'फैमिली मैन' बनकर एंटरटेन न कर रहे होते.
मैशेबल इंडिया के साथ इंटरव्यू में मनोज ने कहा था कि ऐसा नहीं है कि उनका लाइफस्टाइल रातोंरात बदल गया हो. काम मिलने के बाद उन्हें अपना घर बनाने में 6 साल लग गए थे.
फेम हाथों से फिसल रहा और जगह बनाने की जद्दोजहद जारी रही
70-80 के दशक में जब अमिताभ और धर्मेंद्र, विनोद खन्ना जैसे एक्टर्स की तूती बोलती थी, उस जमाने में संजीव कुमार ने चुपके-चुपके अपनी जगह बना ली थी. उनकी अपनी खुद की बनाई सीट में वो जब तक रहे बैठे रहे. दर्शकों को पसंद आते रहे. ये कहानी मनोज बाजपेयी के साथ भी खुद को दोहराती नजर आई. मनोज बाजपेयी को शूल, सत्या यहां तक कि वीर जारा में छोटे से रोल के साथ पसंद तो किया जा रहा था.
लोग उनकी बात तो कर रहे थे, लेकिन फेम नहीं मिल रहा था. बीच में कोई ऐसी फिल्म आ जाती थी, जिसमें मनोज बाजपेयी की एक्टिंग की तारीफों के पुल बांधते क्रिटिक्स थकते ही नहीं थे, जैसे फिल्म दस कहानियां में उनके रोल की तारीफ हुई थी. लेकिन फिर से वो उस 'फेम' वाली कैटेगरी में आने से चूक जाते थे. मनोज बाजपेयी ने ये कहा भी था कि आपके रिजेक्शन का मतलब ये नहीं है कि आप अपने काम में बेहतर नहीं हैं. और उन्होंने इस बात को साबित भी कर दिया फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर से. इसके बाद, मनोज बाजपेयी फिल्मों में और ओटीटी में छाते चले गए. और आज जिस मुकाम पर पहुंच गए हैं वो आपको भी पता है.
मनोज बाजपेयी की ये कहानी आपको सिर्फ ये याद दिलाने के लिए है कि अगर आप 'फेल' हो रहे हैं, तो इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि आप अपने काम में बेहतर नहीं हैं, बस आपको लगे रहना है. कोई न कोई आपको भी देख ही रहा होगा. कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर वही मनोज बाजपेयी वाला 'फेम' जो कई बार देर से मिलता है, लेकिन आपके इंतजार में जरूर बैठा होगा.
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