मुंबई: दुनिया के दर्द को शिद्दत से महसूस करनेवाले और इंसानियत की बेहतरी के लिए सोचनेवालों की मौत उस वक्त नहीं होती है, जब ऐसे लोग इस दुनिया से चले जाते हैं, बल्कि उनकी मौत उस वक्त होती है जब वही समाज- जिसे वो आईना दिखाने की कोशिश कर रहे होते हैं; वो ऐसे जुनूनी लोगों को अहमियत देना बंद कर देता है और उनकी सोच को समझना छोड़ देता है.


उर्दू के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो की मौत को तो एक अर्सा हो गया है, मगर उनका लिखा आज भी जिंदा है और पहले से कहीं ज्यादा मौजू है. इसे हम आज के दौर की विडम्बना और जरूरत दोनों के रूप में देख सकते हैं.


सबसे जहीन कहानीकारों में से एक सआदत हसन मंटो की अपनी लेखनी के जरिये समाज को बदलने की तमाम फिक्रों और कोशिशों, कदम-कदम पर लोगों से मिलने वाली मायूसी को डायरेक्टर नंदिता दास की 'मंटो' बड़ी ही सादगी मगर पुरजोर अंदाज से पेश करती है. 'फिराक' के बाद सिनेमाई पर्दे पर नंदिता दास की इस दूसरी कोशिश को यकीनन काबिल-ए-तारीफ कहा जा सकता है.



इन वजहों से देख सकते हैं मंटो




  • अपनी कहानियों के लिए चर्चित और उतने ही विवादित रहे सआदत हसन मंटो के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी खूब फब्ते हैं और मंटो के रूप में एक लेखक के दर्द को जीने की कोशिशों में वो कोई कसर छोड़ते नजर नहीं आते हैं. दुनिया की तंग सोच को बदलने, सामाजिक बुराइयों से लड़ने और इंसानियत को बचाये रखने से जुड़े तमाम जज्बात नवाज के चेहरे पर इस प्रभावशाली ढंग से उभरते हैं कि हम जल्द भूलने लगते हैं कि मंटो का रोल निभा रहा शख्स खुद मंटो नहीं, बल्कि एक अदद अदाकार है. फिल्म में नवाज की‌ अदाकरी की यही खासियत 'मंटो' को और खास बनाती है.

  • मशहूरियत से नाकामी के गर्त में डूबते लेखक के सफर को नवाज ने बेहद ही संजीदगी से अदा किया है. हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद धीरे-धीरे मंटो के जेहन में घर करती जाती नाउम्मीदी और मायूसी से उपजे द्वंद में हमें एक हारे हुए इंसान का अक्स नवाज एक उम्दा अंदाज में दिखा‌ने में कामयाब होते हैं.

  • फिल्म में मंटो की सुख-दुख की साथी के रोल में रसिका दुग्गल अपनी छाप छोड़ती हैं. जेहनी तौर पर अपने परिवार से धीरे-धीरे दूर होते अपने शौहर की हालत को देख-देख घुटनेवाली सफिया की बेचारगी को रसिका ने बखूबी जिया है. 40 के दशक के स्टार और मंटो के दोस्त बने श्याम चड्ढा के रोल में ताहिर राज काफी प्रभावी हैं.

  • हिंदुस्तान के बंटवारे से उपजी त्रासदी को नंदिता दास ने खून- खराबे और रोने-धोने जैसे सीन्स की बजाय मंटो की कलम की धार से टपकते दर्द के जरिये पेश किया है. फिल्म के आखिर में 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र दिल तोड़कर रख देता है. 'ठंडा गोश्त' के लिए लाहौर की अदालत में मुकदमा झेलनेवाले मंटो की इस कहानी का संक्षिप्त चित्रण बेहद मार्मिक है. रणवीर शौरी और दिव्या दत्ता ने कहानी के इन दो किरदारों को पूरी शिद्दत के साथ निभाया है.

  • कम बजट की फिल्म होने के बावजूद 'मंटो' इस बात का एहसास नहीं कराती है कि फिल्म का एंबीयंस और कैनवस छोटा है. फिल्म में 40 के दशक के भारत और पाकिस्तान को दिखाने के लिए मिलते-जुलते रियल लोकेशन्स और प्रॉप्स का सहारा ज्यादा और वीएफएक्स का सहारा कम लिया गया है.


कार्तिक विजय द्वारा की गयी फिल्म की सिनेमाटोग्राफी फिल्म के मूड को गहराई से पकड़ती है. जाकिर हुसैन का बैकग्राउंड स्कोर भी फिल्म को अच्छे से कॉम्प्लिमेंट करता है और श्रीकार प्रसाद की फिल्म एडिटिंग फिल्म को लाजवाब बनाने में अपना भरपूर योगदान देती है.



'ठंडा गोश्त' के लिए अश्लीलता फैलाने का मुकदमा लड़ रहे मंटो द्वारा पेश की जानेवाली दलीलें और उनका पिक्चराइजेशन बेहद दिलचस्प है. कटघरे में एक गवाह के तौर पर जावेद अख्तर की भी एक झलक भी दिखायी देती है, जो फिल्म में गेस्ट अपीरियंस करने वाले कलाकारों की लम्बी फेहरिस्त का एक और प्रभावी नाम हैं. एक नामी प्रोड्यूसर के रूप में ऋषि कपूर, जिस्मों के सौदागर के तौर पर परेश रावल और बोल्ड लेखिका इस्मत चुगताई के रोल में राजश्री देशपांडे ऐसे चंद और नाम हैं.


ऐसे तमाम कलाकारों और मददगारों की मदद से ही नंदिता दास ने 'मंटो' को बड़े पर्दे पर साकार किया है, जिसे बिल्कुल भी मिस नहीं किया जाना चाहिए. आपके लिए सआदत हसन मंटो जैसे प्रोग्रेसिव कहानीकार की जिंदगी को दो घंटे में देखना न सिर्फ बेहद दिलचस्प अनुभव साबित होगा, बल्कि हम जो नहीं सोचते हैं और जो सोचना बेहद जरूरी है, 'मंटो' को देखना उसके बारे में सोचने-समझने का भी एक बेहद अच्छा मौका है.