क्या बॉलीवुड में अब नहीं आएंगे 'मोगैंबो' और 'गब्बर' जैसे यादगार खलनायक?
हिंदी सिनेमा में खलनायकों की मौत हो रही है और हम चुपचाप खड़े देख रहे हैं. ये सच है. आज के दौर की सिनेमा में ऐसे कितने खलनायक नज़र आते हैं, जो फिल्म के नायक पर भारी पड़ते हों?
नई दिल्ली: हीरो, हिरोइन और विलेन ये वो तीन किरदार हैं जो कि भारतीय फिल्मों की पटकथा को बनाते हैं. अब अगर इनमें से एक भी अपनी अहमियत खो दे तो फिल्म देखने का दर्शकों का एक्सपीरियंस नीरस हो सकता है. बीते कुछ सालों की बात करें तो हिंदी सिनेमा के विलेन के किरदारों में अब वैसा दम नज़र नहीं आता जो कि पहले के जमाने में हुआ करता था. हिंदी सिनेमा का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कई फिल्मों के विलेन हीरो से ज्यादा मशहूर हो गए. लेकिन बीते कई सालों की फिल्मों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए आपको एक भी ऐसा दमदार विलेन नजर नहीं आएगा, जिसको देखकर आप खौफज़दा हो उठे हों. कई कलाकार तो इसलिए नापसंद किए जाने लगे थे क्योंकि वो अक्सर फिल्मों में विलेन के तौर पर नजर आया करते थे जिसकी वजह सो दर्शक उन्हें रील के साथ साथ रियल लाइफ में भी विलेन समझते थे.
‘मोगैंबो खुश हुआ’ ये डायलॉग 31 साल पुरानी फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ का है. लेकिन अमरीश पुरी का निभाया ये रोल आज तक फिल्म के दीवानों के लिए ताजा ही है.
गब्बर सिंह और मोगैंबो से आगे और कौन?
हिंदी सिनेमा में विलेन का मजबूत दौर 1960 से लेकर 1990 और इसके एक दो साल पहले या बाद तक रहा. बॉलीवुड में आप ताकतवर विलेन को ढूंढने निकलेंगे तो हर बार अमजद खान (गब्बर) अमरीश पुरी (मोगैंबो) कुलभूषण खरबंदा (शाकाल) और डैनी डैंगजोंगपा (कातिया और कांचा चीना) और प्राण(पूरब और पश्चिम, जिस देश में गंगा बहती है) तक ही खुद को सीमित पाएंगे. अपने जमाने के ये वो विलेन थे, जिनके डायलॉग्स सालों बाद भी हर जेनरेशन को पसंद आती हैं. आज भी इन विलेन्स को निगेटिव किरदारों के रोल मॉडल के तौर पर ही देखा जाता है.
इनके अलावा ‘मदर इंडिया’ के ‘लाला’ का किरदार कौन भूल सकता है. गरीबों की खून-पसीने की कमाई को जितनी शिद्दत के साथ लाला (कन्हैया लाल) ने पिया शायद ही कोई पी पाए. साल 1998 में आई फिल्म ‘दुश्मन’ में आशुतोष राणा का किरदरा लाजवाब था. आशुतोष ने गोकुल पंडित के किरदार को हकीकत में जीया. यही वजह है कि अच्छे विलेन्स की लिस्ट में उनको शामिल न करना उनके साथ ज्यादती होगी.
‘कितने आदमी थे’ फिल्म ‘शोले’ में गब्बर सिंह ने जब जब ये डायलॉग बोला तब तब लोगों ने तालियां बजाईं. आज भी टीवी पर ‘शोले’ जब भी आता है लोग रुक कर गब्बर सिंह के डॉयलॉग्स जरूर सुनते हैं.
हीरो पर भारी पड़ने वाले विलेन अब कहां?
हिंदी सिनेमा में खलनायकों की मौत हो रही है और हम चुपचाप खड़े देख रहे हैं. ये सच है. आज के दौर की सिनेमा में ऐसे कितने खलनायक नज़र आते हैं, जो फिल्म के नायक पर भारी पड़ते हों? वर्तमान सिनेमा ने विलेन की साख़ को कमजोर ही नहीं किया, बल्कि धीरे-धीरे खत्म करती जा रही है. हालांकि अभी कुछ उम्मीद की किरण नजर जरूर आई है.
‘बदलापुर’ और ‘किक’ जैसी फिल्मों में नवाजुद्दीन का ग्रे शेड वाला रोल लोगों को भाया है. तारीफ भी मिली है. इसके अलावा हालिया रिलीज फिल्म ‘रेड’ में अजय देवगन से टक्कर लेते सौरभ शुकला ने भी अच्छी अदाकारी की. ‘बागी 2’ में मनोज बाजपेयी भी ठीक ठाक रहे. लेकिन ये भी हीरो पर भारी नहीं पड़े. बल्कि ये हीरो के आगे पस्त ही नजर आए.
फिल्म ‘वांटेड’ और ‘सिंघम’ में नजर आने वाले साउथ के जाने माने कलाकार प्रकाश राज ने भी खलनायकी में अच्छा काम किया. लेकिन इनका रोल भी लोग सालों तक याद रख सकें उस लेवल का नहीं रहा है.
‘कुत्ते का पिल्ला कुत्ता होता है शेर नहीं” | ‘घातक’ में सनी देओल के जादू को फीका करने का दम किसी में था तो वो कातिया ही था.
नायक जो खलनायक बनें
इस दौर में कोई भी नायक खलनायक के रोल में कुछ बड़ा कमाल नहीं दिखा पाया है. जिस तरह फिल्म ‘डर’ में शाहरुख खान ने लोगों को डरा दिया था वैसा कुछ आज तक किसी नायक ने नहीं किया. कोशिश तो कई कलाकारों ने की. विवेक ओबेरॉय ‘क्रिश 3’ में खलनायक बने, लेकिन हंसाने के अलावा कुछ भी न कर सके.
‘अग्निपथ’ की रीमेक में संजय दत्त ने अपने लुक से तो काफी इंप्रेस किया लेकिन असली कांचा चीना की ऊंचाई को वो भी नहीं छू पाए. हां, फिल्म ‘पद्मावत’ में रणवीर सिंह ने अपने निगेटिव किरदार को जैसे निभाया वो वाकई काबिले तारीफ है. पर ये देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले सालों में रणवीर के खिलजी अवतार को कितने लोग याद रख पाते हैं.
जब फिल्म ‘शान’ में शाकाल कहता है “ये मेरा नया शौक है, मेरा नया खिलौना” तो दर्शक उसकी दमदार आवाज का कायल हो जाता है.
जमाने के साथ खलनायक भी बदले
ऐसा नहीं है कि आज के दौर के खलनायक किसी काम के नहीं हैं. फिल्मों में उनकी जरूरत पर सवाल खड़े करना उनके साथ नाइंसाफी होगी. हो सकता है आज के जमाने के खलनायक दर्शकों की जरूरत को पूरा करने के नजरिए के साथ गढ़े जाते हों. लेकिन जिस तरह के खलनायक का जिक्र यहां हो रहा है वो आजकल देखने को नहीं मिलते.
इस दौर का खलनायक बॉडी बिल्डिंग में महारत रखता है. चार्मिंग और डैशिंग भी होता है. लेकिन उसके पास वो कद नजर नहीं आता, जिसे देखकर या महसूस करके लोग सिहर जाएं. आज का खलनायक मार्शल आर्ट्स तो जानता है, लेकिन अपनी अदाकारी से हीरो को कमजोर करना उसको नहीं आता.