मूवी रिव्यू: RTE जैसे गंभीर विषय पर बनी इंटरटेनिंग फिल्म है 'हिंदी मीडियम'
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स्टारकास्ट- इरफान खान, सबा कमर, दीपक डोबरियाल, अमृता सिंह
डायेरक्टर- साकेत चौधरी
रेटिंग- *** (तीन स्टार)
'इस देश में अंग्रेजी सिर्फ ज़ुबान नहीं क्लास है...', 'English is India and India is English.' ये हर हिंदी भाषी के दिल का दर्द है जो अपने छोटे शहर से निकलकर कुछ बनना चाहता है. आप भले ही हिंदी में काम कर रहे हों लेकिन ईमेल से लेकर इंटरव्यू तक सब कुछ अंग्रेजी में होता है. हिंदी फिल्मों के डायलॉग भी अंग्रेजी में लिखे जाते हैं. मोबाइल पर प्रमोशनल मैसेज अंग्रेजी में आता है. किसी भी नौकरी के लिए एप्लिकेशन फॉर्म अंग्रेजी में भरा जाता है. ऐसे में हिंदी भाषी लोग जिस परेशानी का सामना कर रहे हैं वो कभी नहीं चाहते कि उनके बच्चों को भी उसी समस्या से जूझना पड़े. यही कारण है कि हमेशा से ही ऐसे पैरेंट्स अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम के किसी बड़े स्कूल में शिक्षा दिलाने की होड़ में लगे रहते हैं. लेकिन जब बात राजधानी दिल्ली की हो तो यहां बड़े स्कूल में बच्चों को एडमिशन दिलाना बच्चों का खेल नहीं है. ऐसे ही हम और आप में से किसी एक पैरेंट्स की कहानी आज रिलीज हुई फिल्म 'हिंदी मीडियम' में बड़े ही इंटरटेनिंग अंदाज में दिखाई गई है.
ये फिल्म में Right To Education Act (शिक्षा का अधिकार, 2009) के उस मुद्दे को उठाती है जिसमें कहा गया है कि हर एक बड़ा स्कूल 25 फीसदी सीटों पर गरीब बच्चों को एडमिशन देगा. ये वो बच्चें हैं जो बड़े स्कूल का खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं हैं और इन्हें गरीब कोटा के तहत एडमिशन दिए जाने का प्रावधान है. लेकिन जब एडमिशन का समय आता है तो ऐसी धांधली की खबरें अक्सर ही सुनने को मिलती हैं कि किसी अमीर ने गरीब बनकर उस बच्चे के सीट पर अपने बच्चे को एडमिशन दिला दिया. ये सब जुगाड़ है जो भारत में आसानी से लगाया जा सकता है. फिल्म में एक डायलॉग भी है कि इसके लिए 'गरीब होना जरूरी नहीं सिर्फ गरीबी के डॉक्युमेंट्स होना जरूरी है.'
जो अमूमन होता है फिल्म में भी वही दिखाया गया है कि पैरेंट्स हों या फिर टीचर की सोच यही होती है कि गरीब बच्चा जब अमीर बच्चों के बीच आएगा तो उनके साथ बाचतीत से लेकर, उठने-बैठने और खाने-पीने तक किसी भी चीज में उनकी बराबरी नहीं कर पाएगा, फिर वो डिप्रेशन में चला जाएगा. तो इससे बेहतर है कि उसकी जगह किसी अंग्रेजी वाले को ही एडमिशन मिले. ऐसी ही गंभीर मुद्दे को ये फिल्म बहुत ही मनोरंजक अंदाज में दिखाती है.
कहानी
ये कहानी पुरानी दिल्ली में रहने वाले राज बत्रा (इरफान खान) की है जिसका अपना गारमेंट्स का शो रूम है. राज खुद हिंदी बोलता है. उसकी बीवी मीता (सबा कमर) अंग्रेजी मीडियम से पढ़ी है और चाहती है कि उसकी बेटी पिया को कभी किसी बात की परेशानी ना हो इसलिए वो अंग्रेजी मीडियम में पढ़े. इसके लिए राज और मीता को पहले खुद अपनी बोली और अपना लाइफस्टाइल सुधारना पड़ता है क्योंकि दिल्ली में सिर्फ बच्चों के टैलेंट पर नहीं बल्कि पैरेंट्स के इंटरव्यू के बाद ही एडमिशन मिलता है. जब ऐसे बात नहीं बनती है तब वो गरीब कोटा से एडमिशन लेने की ठानते हैं और गरीब बनने का ढ़ोंग करते हैं. उनकी मुलाकात श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल) से होती है जो खुद अपने बेटे को गरीब कोटा से एडमिशन दिलाना चाहता है.
राज की बेटी को एडमिशन तो मिल जाता है लेकिन जब उसे पता चलता है कि उसने अपने ही दोस्त श्याम के बच्चे का हक छीन लिया है तो उसे अपनी गलती का एहसास होता है. लेकिन क्या वो अपनी गलती सुधारने के लिए कुछ करता है? छोटे स्कूल के बच्चे भी उतने ही टैलेंटेड होते हैं जितने की अमीर बच्चे... ये साबित करने के लिए राज क्या करता है? क्या उसकी वजह से अमीर लोगों की सोच बदल पाएगी? यही फिल्म का क्लाइमैक्स है.
फिल्म की छोटी-छोटी मगर मोटी बातें-
एडमिशन तो एक मुद्दा है ही..लेकिन इसके अलावा भी फिल्म में बच्चों से जुड़ी कई ऐसी बातें दिखाई गई हैं जो आमतौर पर हमारे घरों में होती हैं. बहुत ही सरल भाषा में कई बड़ी समस्याओं पर व्यंगात्मक तरीके से बात की गई है. जैसे बच्चे अगर स्कूल जाने से मना कर दें तो हम उन्हें लालच देते हैं. फिल्म में भी राज अपनी बच्ची को लॉलीपॉप देने की बात करता है तब उसे ऐसा करने से मना किया जाता है. अगर आपको अपने बच्चे से देश की गरीबी के बारे में बताना हो तो क्या कहेंगे. इस पर राज हंसते हुए कहता है कि उसे बताना क्या है गरीबी तो हर जगह दिख रही है जैसे रेड लाइट पर भीख मांगते बच्चें...
एक्टिंग-
चाहें कोई भी रोल इरफान खान उसमें खुद को ढ़ाल लेते हैं. इस फिल्म में भी उन्होंने एक-एक सीन में जान डाल दी है. चाहें कॉमिक टाइमिंग की बात हो या फिर सीरियस सीन हो इरफान हर जगह बेस्ट हैं.
इरफान का साथ पाकिस्तानी एक्ट्रेस सबा कमर ने बखूबी निभाया है. बेटी को अंग्रेजी मीडियम में एडमिशन दिलाने के लिए वो अपने पति को डराने से भी बाज नहीं आती हैं. वो फिल्म में कई बार कहती दिखी हैं, ‘सरकारी स्कूल में जाएगी तो कुछ नहीं सीख पाएगी, कोई अंग्रेजी में बात करेगा तो उसकी रूह कांप जाएगी, सोसाइटी में फिट नहीं हो पाई तो लोनली और डिप्रेस हो जाएगी… और फिर अगर ड्रग्स लेने लगी तो?' सबा और इरफान की केमेस्ट्री खूब जमी है इस फिल्म में.
'तनु वेड्स मनु' में पप्पी के किरदार से मशहूर हुए दीपक डोबरियाल ने एक गरीब परिवार के मुखिया के रोल में जी जान डाल दी है. स्कूल के प्रिसिंपल की भूमिका में अमृता सिह हैं और उन्होंने काफी इंप्रेस भी किया है.
डायरेक्शन
डायरेक्टर साकेत चौधरी इससे पहले 'प्यार के साइड इफेक्टस' (2006) और 'शादी के साइड इफेक्ट्स' (2014) जैसी फिल्म बना चुके हैं. इन्हें किसी भी कहानी को सरल लेकिन प्रभावशाली तरीके से पेश करने के लिए जाना जाता है. इस बार भी उन्होंने ना ही बहुत भारी संवाद का उपयोग किया है ना ही दर्शकों पर बहुत प्रेशर डालने की कोशिश की है. आम ज़ुबान, सरल भाषा और हंसी-मजाक में ही सारी समस्याओं को दिखा दिया है.
फिल्म का क्लाइमैक्स बॉलीवुड की मसाला फिल्मों जैसा है जिसे और भी प्रभावशाली तरीके से पेश किया जा सकता था. लेकिन इसके बावजूद पूरी फिल्म देखने लायक और मजेदार है.
क्यों देखें
बच्चों की शिक्षा बहुत ही गंभीर विषय है जिसपर बहस होनी चाहिए. इस पर गरीब बच्चे का भी उतना ही हक जितना अमीर का है लेकिन फिर भी उसका हक मार लिया जाता है. देश में कानून तो है पर उस पर कितना अमल होता है ये हर किसी को दिख रहा है. इतने गंभीर विषय पर बनी इस फिल्म को बहुत ही भारी भरकम ना बनाते हुए ह्यूमर के तड़के के साथ दर्शकों के सामने परोसा गया है. जिसे देखते वक्त बिल्कुल भी टेंशन नहीं होती. लेकिन देखने के बाद आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं.
यहां देखें- इस फिल्म का ट्रेलर
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