नई दिल्ली: बॉलीवुड में अब तक स्पोर्ट्स पर बहुत सी फिल्में बनी हैं. 'लगान', 'चक दे इंडिया', 'मैरी कॉम', 'सुल्तान' और 'दंगल' जैसी बहुत सी फिल्में दर्शक देख चुके हैं और इन्हें पसंद भी किया गया है. आज सिनेमाघरों में फिल्म 'मुक्काबाज' रिलीज हो गई है. नाम से जाहिर है कि ये फिल्म खेल पर ही है लेकिन असल मायने में ऐसा नहीं है. ये अब तक की सभी स्पोर्ट्स फिल्मों से बिल्कुल अलग है. आमतौर पर फिल्ममेकर विवादित मुद्दों को फिल्म में दिखाने से बचते हैं. कुछ चुनिंदा फिल्ममेकर ही हैं जो ऐसी हिम्मत कर पाते हैं कि वो हालिया विवादित मुद्दों को हुबहू फिल्मा दें. हमेशा की तरह अनुराग कश्यप ने एक बार फिर ये करने की 'हिमाकत' की है. उन्होंने इस फिल्म को सिर्फ बॉक्सिंग तक ही सीमित नहीं रखा है, इसमें उन्होंने ऐसे राजनीतिक मुद्दों को छुआ है जो हालिया दिनों में अक्सर ही सुर्खियां में बने रहे हैं. यहां हम आपको बता रहे हैं ऐसे कुछ ऐसी बातें जो इस फिल्म को बाकी फिल्मों से अलग बनाती है-




  • बरेली के बैकग्राउंड पर बनी इस फिल्म में एक बॉक्सर की कहानी दिखाई गई है. जब बात यूपी की हो रही है तो अनुराग कश्यप उन मुद्दों को कैसे छोड़ देंगे जो पिछले कुछ सालों से हर तरफ छाए हुए हैं. फिल्म की शुरुआत ही गौरक्षकों की गुंडागर्दी से होती है. पहले सीन में ही दिखाया गया है कि एक ट्रक को कुछ लोग रोक लेते हैं और उसमें मौजूद लोगों को उतारकर पीटते हैं और जबरदस्ती ये कबूल करने को कहते हैं कि ट्रक में भरी गायों को काटने के लिए ले जाया जा रहा था. ये सीन कुछ इस तरह से दिखाया है कि कुछ लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाए. डर के इस दौर में जब लोग इन मुद्दों पर बोलने तक से कतराते हैं, तब इसे पर्दे पर उतारना कुछ लोगों के गाल पर करारे तमाचे की तरह है.

  • इसके अलावा इसमें जाति के नैरेटिव को भी एक अलग तरह से पेश किया गया. अब तक बहुत सी फिल्मों में समाज के दबे, कुचले, पिछड़े और दलितों का सवर्णों ने जो ऐतिहासिक शोषण किया है, उसका चित्रण अलग-अलग तरह से किया गया है. लेकिन ये शायद पहली फिल्म है जिसमें Reverse Brahmanism (नव या एक नए तरह का ब्राह्मणवाद) दिखाया गया. यहां देखने को मिलता है कि भले ही कोई शोषित तबके से आता हो लेकिन जैसे ही उसे ताकत मिलती है वो अपने साथ हुए अन्याय को भूल जाता है. इसके बाद वो अपने दौर के दबे-कुचले लोगों के साथ वैसे ही करता है जैसा उसके साथ पहले हो चुका है. इसी सच्चाई को दिखाने के लिए अनुराग ने एक सीन का इस्तेमाल किया है जहां एक अधिकारी फिल्म के लीड एक्टर श्रवण से कहता है, ''तुमको पता है कि हमारे बाबूजी भूमिहारों के यहां नौकर थे.'' ऐसा बोलते वक्त अधिकारी उसी जगह गिरी चाय की सफाई कर रहे श्रवण का वीडियो भी मोबाइल पर रिकॉर्ड कर रहा होता है. श्रवण 'सवर्ण' है जबकि अधिकारी को रिजर्वेशन से नौकरी मिली है और इस ताकत का एहसास वो नायक को जलील करके दिलाना चाहता है. इसमें अंग्रेज़ी में आदेश लेने-देने से लेकर इस बात तक की भनक है कि अब वो ज़माना नहीं रहा जब सवर्णों का राज चलता था. दरअसल, ये सीन ये दिखाता है कि जब आदमी को नई-नई ताकत मिलती है तो कई मामलों में वो अपने साथ हुई ज्यादतियों को भूल जाता है और उसी अन्याय की प्रक्रिया को दोहराने की कोशिश करता है. यूपी और बिहार जैसे राज्यों में सवर्ण जातियों की दबंगई ऐतिहासिक रही है. ऐसे में सामाजिक न्याय से आई रिजर्वेशन की मुहिम के बाद जो जातियां पहले से मज़बूत या बेहद मज़बूत हुईं उनमें से कुछ जातियों की सामाजिक स्थिति सर्वणों जैसी या उनके करीब की हो गई और जब उन्हें मौका मिला तब उनमें से भी कुछ वही करते हैं जिसके लिए वो सवर्णों से नफरत करते आए हैं. मूवी रिव्यू- खेल-प्यार के अलावा 'गाय', 'दादरी' से 'भारत माता की जय' तक सब है 'मुक्काबाज़' में


  • फिल्म की बात करते समय अगर इसके म्यूजिक पर बात ना करें तो बेईमानी होगी. बॉलीवुड ऐसे दौर में है जब कोई भी फिल्ममेकर बिना आइटम सॉन्ग के फिल्म नहीं बनाता. यहां तक कि शाहरुख जैसे बड़े सुपरस्टार को अपनी फिल्म 'रईस' में सनी लियोनी को 'लैला' बनाना पड़ता है लेकिन कश्यप की खासियत यही है कि वे उस ढर्रे को फॉलो नहीं करते. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भी उन्होंने 'इलेक्ट्रिक पिया' जैसे गाने के साथ प्रयोग किया जिससे फिल्म के लोकल होने को और बल मिला. ऐसे ही उन्होंने बाकी फिल्मों की तरह यहां भी देसी फ्लेवर को ज्यादा तरजीह दी है. इसमें सुनील जोशी की कविता 'मुश्किल है अपना मेल प्रिये' जब स्क्रीन पर आती है तो कुछ और ही माहौल जम जाता है. ये गाना देखकर आपको भी लगेगा कि आइटम सॉन्ग सिर्फ वही नहीं होता जिसमें औरतों को किसी वस्तु की तरह पेश किया जाए. इस गानों को बॉलीवुड ट्रेंड सेटर के तौर पर भी देख सकता है और औरतों को आइटम बनाने के मकड़जाल से बाहर आने की कोशिश कर सकता है. इसके अलावा अगर आप यूपी या बिहार से हैं तो आपको 'हम पहला मुक्का नहीं मारे' का भी पूरा मेलजोल समझ आ जाएगा. साथ ही बोलचाल की भाषा में प्रयोग किए जाने वाली 'आपत्तिजनक बातों' जैसे 'बहुत हुआ सम्मान, तुम्हारी ऐसी तैसी' को भी उन्होंने गाने में इतनी खूबसूरती से पिरोया है कि लोग अब इन्हें भी पॉज़िटिवली लेने लगेंगे.



ये फिल्म दो घंटे 25 मिनट की है. बहुत को ये लंबी लग सकती है. अगर इसका समय कम होता तो शायद रफ्तार बनी रहती. लेकिन यहां भी अनुराग ने कोई समझौता नहीं किया है. उनकी कल्ट फिल्म सीरीज़ 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' को भी उन्होंने पांच घंटे का बनाया था जिसकी वजह से इसे दो किश्तों में रिलीज करना पड़ा और अब 'मुक्केबाज' बनाने के दौरान भी उन्होंने किसी बात की परवाह नहीं की. जो उनकी पिछली कुछ फिल्मों में उनका फ्लेवर मिस कर रहे थे उन्हें ये फिल्म जरूर पसंद आएगी.