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मूवी रिव्यू: खेल-प्यार के अलावा 'गाय', 'दादरी' से 'भारत माता की जय' तक सब है 'मुक्काबाज़' में

साल की शुरूआत अगर इतनी बेहतरीन फिल्म से हो रही है तो आपको इसे मिस नहीं करना चाहिए.

स्टार कास्ट: विनीत कुमार सिंह, ज़ोया हुसैन, जिमी शेरगिल, रवि किशन, श्रीधर दूबे

डायरेक्टर: अनुराग कश्यप

रेटिंग: *** (तीन स्टार)

अनुराग कश्यप का अपना ही अंदाज़ है. उनकी कला में वो दम है कि कुछ वास्तविक चीजें को भी पर्दे पर हुबहू फिल्मा देते हैं तो कुछ बहुत ही बारीक खामोशी के साथ दिखा कर निकल जाते हैं और समझने वाले समझ जाते हैं. अनुराग ने इस फिल्म में कुछ ऐसे सेंसेटिव मु्द्दों को भी टच किया है जिन्हें लेकर अक्सर ही भूचाल मचा रहता है. ये सिर्फ स्पोर्ट्स ड्रामा नहीं है बल्कि कश्यप इसमें 'दादरी हत्याकांड', गाय के नाम पर गुंडागर्दी, जाति को लेकर हो रहे भेदभाव जैसे कई मुद्दों को छूकर निकल गए हैं. दिलचस्प ये है कि उन्होंने ये भी दिखा दिया है कि आप 'भारत माता की जय' बोलकर किसी की भी धुनाई कर सकते हैं.

अब बात फिल्म की... तो इस बार अनुराग ऐसी फिल्म लेकर आए हैं जो दिखाती है कि खेल में राजनीति किस कदर हावी है. अगर राजनीति ना होती तो आज खिलाड़ियों के हालात कुछ और होते. एक खिलाड़ी जो बॉक्सिंग के हर दांव पेच में माहिर है, वो जब अपना हक पाने के लिए एक राजनेता से पंगे ले लेता है तो उसे किन-किन मुश्किल हालात से गुजरना पड़ता है. ये फिल्म यूपी के बरेली और बनारस के ईर्द-गिर्द बनी है. फिल्म दिखाती है कि जिला स्तर, राज्य स्तर और यहां तक राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में राजनीति इतनी हावी है कि अगर कोई उस दलदल में फंस गया तो निकालना नामुमकिन है.

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सलमान खान की 'सुल्तान' से लेकर 'एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी' तक बॉलीवुड में खेल पर बहुत सारी फिल्में बन चुकी हैं. लेकिन उन सभी फिल्मों से ये फिल्म अलग है क्योंकि इसमें कोई सुपरस्टार नहीं है. इसमें 'मुक्काबाज' श्रवण कुमार की भूमिका में विनीत सिंह हैं जिन्होंने अपने एक्टिंग के दम पर पूरी फिल्म को दमदार बना दिया है. ये फिल्म उन चंद फिल्मों में से है जो अपनी कहानी के बल पर पसंद की जाएगी ना कि स्टारडम पर...

कहानी-

यूपी के बरेली में रहने वाले श्रवण कुमार (विनीत सिंह) का पढ़ाई में भले ही मन ना लगा हो लेकिन वो बॉक्सर बनना चाहते हैं. श्रवण का सपना है कि वो यूपी का माइक टायसन बनें. इसके लिए वो स्थानीय नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) के यहां जाते हैं जो कोच भी है, जो बॉक्सरों से गेहूं पिसवाने से लेकर खाना बनवाले तक अपने हर पर्सनल काम ज्यादा कराता है. यहां भगवान दास की भतीजी सुनैना (ज़ोया हुसैन) से श्रवण की आंखें चार हो जाती हैं और वो भगवान दास का विरोध कर बैठता है. राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए उसे बनारस जाना पड़ता है जहां उसके कोच संजय कुमार (रवि किशन) ट्रेनिंग देते हैं. लेकिन मगरमच्छ पानी से बैर करके कहां जाएगा. इसके बाद उसे अपना सपना पूरा करने के लिए क्या-क्या दिन देखने पड़ते हैं, यही पूरी कहानी है.

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यहां ये भी दिखाया गया है कि स्पोर्ट्स कोटे से जॉब मिलने के बाद भी खिलाड़ियों की राह आसान नहीं होती है. सरकारी दफ्तरों में उन्हें फाइल उठाने से लेकर चपरासी तक के काम करने को मजबूर होना पड़ता है. जहां खेल का मंच है वहां नेताओं के घर की शादियों का आयोजन होता है. ऐसे बहुत सारे मुद्दों को हल्के-हल्के छूकर ये फिल्म निकल गई है. आप देखिए और उसके बारे में सोचते रहिए.

फिल्म में एक सरप्राइज भी है लोगों के लिए और वो कुछ और नहीं बल्कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं जो एक गाने में कुछ देर के लिए नज़र आए हैं. उनके आते ही सीटियां और तालियों की बौछार हो जाती है.

एक्टिंग

बॉक्सर श्रवण कुमार की भूमिका में विनीत सिंह ने कमाल कर दिया है. पर्दे पर उन्हें देखते समय लगता नहीं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं. बॉक्सिंग उनके रग-रग में दिखाई देता है. लैंग्वेज में यूपी का टच लाना भी इतना आसान नहीं है लेकिन वो उसे भी बखूबी कर गए हैं.

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लीड एक्टर के रूप में ये विनीत की पहली फिल्म है. इस मुद्दे पर फिल्म बनाने का आइडिया भी विनीत का ही था जिन्होंने इस फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी है. 2013 से ही विनीत इस फिल्म के लिए प्रोड्यूसर ढ़ूढ रहे थे. उनकी शर्त ये थी कि जब भी फिल्म बनेगी लीड भूमिका वही निभाएंगे. अनुराग कश्यप तो वैसे भी स्टार एक्टर्स को लेकर फिल्में नहीं बनाते. उनकी खासियत ही है कि वो एक्टर कहानी और स्क्रिप्ट पर ही पूरा फोकस करते हैं. विनीत का जुनून इस फिल्म में भी दिखाई देता है.

ज़ोया हुसैन इस फिल्म से डेब्यू कर रही हैं वो इस फिल्म में ऐसी लड़की की भूमिका में हैं जो सुन सकती है लेकिन बोल नहीं सकती.  उन्होंने भी इसको बहुत ही मजबूती से निभाया है.

रवि किशन ने किया निराश

यूपी के बैकग्रांउड में फिल्म बन रही हो और उसमें रवि किशन और जिमी शेरगिल हों तो उम्मीदें बंध जाती हैं. लेकिन इस फिल्म में रवि किशन जमे नहीं हैं. पिछली बार रवि किशन लखनऊ सेंट्रल में नज़र आए थे जिसमें कुछ देर में ही रवि ने कमाल कर दिया था. इस फिल्म में उन्होंने बहुत ही निराश किया है.

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वहीं जिमी शेरगिल बस ठीकठाक लगे हैं. खून की तरह लाल आंखें कर लेना यूपी के राजनेता की निशानी तो नहीं हो सकती. कुछ ऐसे ही इस फिल्म में शेरगिल दिखे हैं.

ये  फिल्म करीब 2 घंटे 20  मिनट की है. फिल्म का फर्स्ट हाफ तो बहुत ही शानदार है जिसमें कहीं भी आप बोर नहीं होंगे. चाहें वो बॉक्सिंग के सीन हों या फिर लव स्टोरी...देखकर मजा आ जाता है. लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म को आधा घंटा तो खींच दिया गया है. बस गनीमत ये है कि देखते समय फिल्म की कहानी में दिलचस्पी बनी रहती है.

म्यूजिक-

म्यूजिक इस फिल्म की जान है. 'मुश्किल है अपना मेल प्रिये', 'पैंतरा', 'बहुत हुआ सम्मान' ये कुछ ऐसे गाने हैं जो पहले से ही पॉपुलर हैं लेकिन अगर आपने नहीं सुना है आप इसे गुगगुनाते हुए सिनेमाहॉल से निकलेंगे.

क्यों देखें-

ये अनुराग की ऐसी फिल्म है जिसमें गालियां नहीं हैं और आप इसे पूरे परिवार के साथ देेख सकते हैं. दूसरी वजह ये फिल्म खुद है जो आपको इंटरटेन भी करेगी और वास्तविक हालात से रूबरू भी कराएगी. साल की शुरुआत अगर इतनी बेहतरीन फिल्म से हो रही है तो आपको इसे मिस नहीं करना चाहिए.

फिल्म में एक डायलॉग है कि 'बॉक्सिंग पर बनी फिल्में 40 करोड़ कमा लेती हैं और बॉक्सिंग देखने 40 लोग भी नहीं आते...'. ये लाइन कमाई को लेकर मेकर्स की उम्मीदों को बयां करती है. लेकिन इसके लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. तब तक आप फिल्म इन्जॉय कीजिए.

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