नई दिल्ली: साल 2018 में मार्च का महीना ऑस्कर के 90 साल पूरा होने के जश्न का महीना रहा. लेकिन अमेरिका में ये जश्न फीका पड़ गया. टीवी के दीवाने इस देश में ऑस्कर के टेलिकास्ट को लेकर दिलचस्पी नहीं दिखी. बीते 44 साल में सबसे कम लोग इस बार इस अवॉर्ड शो को देख रहे थे. जो फिल्में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुईं उन पर नज़र डालें तो पता चलता है कि इस साल के ऑस्कर शो की टीवी रेटिंग इतनी ख़राब क्यों रही.


यहां हम आपको बता रहे हैं ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली और नॉमिनेशन तक पहुंचने वाली फिल्मों के बारे में. 'डार्केस्ट आवर' और 'थ्री बिलबोर्ड्स ऑउटसाइड इबिंग, मिज़ूर' साल 2018 की वो दो फिल्मे हैं जिन्हें कई बार देखा जा सकता है. बाकी की फिल्में वन टाइम वॉच हैं. 'गेट आउट' और 'फैंटम थ्रेड' जैसी फिल्मों को अगर भविष्य में फाइनल लिस्ट का हिस्सा बनने से नहीं रोका गया तो अमेरिका में ऑस्कर के दौरान की टीवी रेटिंग्स और गिर सकती हैं. 'थ्री बिलबोर्ड्स' को बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिलना चाहिए था. बाकी की कैटगरीज़ के साथ ऐसी बेइमानी नहीं हुई है.


Oscars 2018: मैकडॉरमैंड को बेस्ट एक्ट्रेस, ओल्डमेन को बेस्ट एक्टर और 'द शेप ऑफ वॉटर' को मिला बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड


थ्री बिलबोर्ड्स ऑउटसाइड इबिंग, मिज़ूर- 'थ्री बिलबोर्ड्स...' इस साल की सबसे अच्छी फिल्म है. फिल्म की कहानी एक ऐसी महिला की जंग पर आधारित है जिसकी बेटी के रेप के बाद हत्या कर दी जाती है और अमेरिका के मिज़ूर की पुलिस आरोपियों को पकड़ने में नाकाम रहती है. इसी जंग को लड़ने के लिए मिल्ड्रेड हेस का किरदार निभाने वाली फ्रांसिस मैकडॉरमैंड शहर के बाहरी हिस्से पर लगे तीन इश्तेहार यानी प्रचार के लिए खाली पड़े बोर्ड्स का सहारा लेती है. इन बोर्ड्स के सहारे शहर के पुलिस प्रमुख को निशाना बनाया जाता है. यहीं से फिल्म चल पड़ती है और फिर कभी ख़त्म नहीं होती.


फिल्म की सबसे ख़ास बात है इसका प्लॉट. आप हर बार ये बताने में फेल हो जाएंगे कि अब इसके बाद क्या होने वाला है. फिल्म इतनी दमदार है कि अगर आपको गहरी नींद आ रही हो और एक बार आप इसकी कहानी में उलझ जाएं तो इसे खत्म किए बिना ना तो नींद आएगी और ना ही चैन. फिल्म की एक और ख़ास बात है इसके किरदारों का बैलेंस में होना. इसमें ना तो कोई हीरो है और ना ही विलेन. जब तक आप किसी किरदार के लिए अपने दिल में सॉफ्ट कॉर्नर बना रहे होते हैं तब तक वो कुछ ऐसा करता है कि उसे लेकर आपकी पूरी सोच बदल जाती है. ऐसा किसी एक किरदार के साथ नहीं बल्कि सभी किरदारों के साथ होता है. इसके पीछे का जीवन दर्शन यानी लाइफ फिलॉस्फी ये है कि कोई ना तो हमेशा के लिए हीरो होता है और ना ही हमेशा के लिए विलेन. जीवन की परिस्थितियां और उन परिस्थितियों में लिए गए निर्णय से ये तय होता है कि कोई हीरो होगा या विलेन. सैम रॉकवैल को भी इस फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड मिला है.


फिल्म में एक भी बोरिंग सीन नहीं है. वहीं इस साल की ऑस्कर के लिए नॉमिनेटेड सभी फिल्मों में ये इकलौती फिल्म है जिसमें इमोशंस का पूरा बैलेंस है. ये आपको रुलाती है, हंसाती है, गुदगुदाती है, दर्द देती, झकझोर कर रख देती और आपकी भावनाएं इतनी मिक्स हो चुकी होती हैं कि आपको लंबे समय बाद सुकून का एहसास होता है. फिल्म के क्लाइमेक्स को ऐसे मोड़ पर लाकर छोड़ा गया है जहां से आगे की कहानी आप खुद गढ़ सकते है. इस फिल्म के लिए फ्रांसिस मैकडॉरमैंड को इस साल की बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड भी मिला है.


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डार्केस्ट आवर- हॉलीवुड फिल्मों का चस्का रखने वालों ने इसके लीड एक्टर गैरी ओल्डमैन को हॉलीवुड की सबसे सफल फिल्म सीरीज़ में शामिल 'डार्क नाइट' में गॉर्डन के किरदार में देखा होगा. 'डार्क नाइट' को हीथ लीडर के जोकर के अमर किरदार के लिए याद किया जाता है. डार्केस्ट आवर को ओल्डमैन की उस अदाकारी के लिए याद किया जाएगा जिसमें उन्होंने भारत विरोधी इंग्लैंड के एक पूर्व पीएम चर्चल को ज़िंदा कर दिया है. फिल्म देखने के पहले अगर आपने इंटरनेट पर इसका स्टार कास्ट सर्च नहीं की और अगर बाद में भी इसकी ज़हमत नहीं उठाई तो शायद आपको पूरी ज़िंदगी इसका पता नहीं चलेगा कि ये किरदार ओल्डमैन ने निभाया है.


इस साल दूसरे विश्व युद्ध की बाज़ी पलटने वाली घटना डंकिर्क पर दो फिल्में बनीं. क्रिस्टोफर नोलन की इसी नाम से बनी फिल्म के अलावा 'डार्केस्ट आवर' की कहानी भी डंकिर्क के ईर्द-गिर्द ही बुनी गई है. लेकिन दोनों फिल्मों में अंतर ये है कि ये बिखरी हुई नहीं लगती. इसके केंद्र में चर्चिल को उस हीरो की तरह पेश किया गया है जिसकी सिनेमा देखने वालों को आदत होती है. अगर आप भारतीय हैं तो आप चर्चिल से प्यार तो नहीं कर सकते लेकिन ओल्डमैन की अदाकारी आपको पर्दे भर के लिए ही सही लेकिन चर्चिल के प्यार में डाल देती है.


'डंकिर्क' और 'डार्केस्ट आवर' में एक और बड़ा अंतर ये है कि हॉलीवुड सिनेमा के दिग्गज डायरेक्टर नोलन ने 'डंकिर्क' में युद्ध दिखाकर उसकी भयावहता को दिखाने की कोशिश की है. लेकिन नोलन जैसा बड़ा कद नहीं होने और युद्ध के इक्का दुक्का सीन दिखाकर डार्केस्ट आवर के डायरेक्टर जो राइट ने जिस कदर युद्ध को दर्शकों के ज़ेहन में उतारा है, ओल्डमैन और बाकी के सेटअप के साथ उसका कॉकटेल इसे नोलन की डंकिर्क पर काफी भारी बना देता है. ऐसा कहना कि ये फिल्म ऑस्कर के इतिहास की अमर फिल्मों में शामिल होने का माद्दा रखती है, कोई अतिश्योक्त नहीं होगी. इसे अमर बनाने के लिए ओल्डमैन को इस साल के बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड भी मिला है. इसके अलावा फिल्म को बेस्ट मेकअप ऐंड हेयरस्टाइलिंग का भी अवॉर्ड मिला है.


डंकिर्क- नोलन के दीवानों को जब पता चला कि वो दूसरे विश्व युद्ध का नक्शा बदलकर रख देने वाली घटना डंकिर्क पर सिनेमा बना रहे हैं तब से फिल्म की रिलीज़ तक उन्होंने इसका पल-पल इंतज़ार किया. फिल्म में इस्तेमाल हुई IMAX की तकनीक की तरीफ करते पश्चिम से पूरब तक के फिल्म लेखक नहीं अघा रहे. लेकिन सवाल ये है कि जो लंबा इंतज़ार नोलन के फैंस को करना पड़ा उसकी कीमत IMAX की तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो सकती, क्योंकि इनका सिनेमा आपके अंदर जाकर ठहर जाता है लेकिन डंकिर्क ऐसा नहीं कर पाई. 


सिनेमा या स्टोरी टेलिंग का तय ढर्रा यही है कि इसके केंद्र में कोई किरदार या कुछ किरदार होते हैं जिनके ईर्द-गिर्द कहानी घूमती है. इसका एक फायदा ये होता है कि दर्शक के भीतर इन किरदारों को लेकर एक तय भावना बन जाती है जिससे फिल्म को लेकर उसका लास्ट इमोशन तैयार होता है. डंकिर्क में नोलन ने एक भी किरदार ऐसा नहीं रखा जिसके साथ आपकी भावना जुड़े. जब फिल्म समाप्त होती है तब आप टॉम हार्डी, सिलियन मर्फी या मार्क रायलेंस जैसे दिग्गज अदाकरों के निभाए गए किरदारों तक को बाहर लेकर नहीं आते. इसी विषय पर बनी डार्केस्ट ऑर के डायरेक्टर राइट ने इसे बखूबी निभाया है क्योंकि जब उनकी फिल्म ख़त्म होती है तब आपके शरीर से आत्मा तक में गैरी ओल्डमैन का निभाया गया चर्चिल का किरदार समा जाता है.


आप कल्पना कीजिए कि फिल्म की कहानी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान की एक ऐसी घटना आधारित है जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस समेत इनके सहयोगी देशों के तीन लाख सैनिक डंकिर्क नाम के सुमद्र तट पर फंस जाते हैं. एक तरफ समुद्र के पानी और दूसरी तरफ हिटलर की फौज, एयर फोर्स और टैंकों ने उन्हें घेर रखा होता है. ऐसे में इन देशों की सरकारों को किसी चमत्कार के बाद भी इन सैनिकों के बचने की कोई उम्मीद नहीं होती  लेकिन अंत में लगभग सारे सैनिकों को बचा लिया जाता है. नोलन इस चमत्कार का एहसास कराने में असफल रहे हैं.


फिल्म के क्लाइमेक्स में एक सीन है जिसमें ब्रिटेन लौटे फौजियों का जब स्वागत हो रहा होता है तब एक फौजी सवाल करता है कि ये स्वागत क्यों? हमने कोई लड़ाई नहीं जीती, हम बस ज़िंदा लौट आए हैं. इसके जवाब में रेलवे स्टेशन पर उसके लिए मौजूद एक व्यक्ति कहता है कि तुम्हारा बचकर लौट आना काफी है. ये सीन ऐसा है कि देखने वाले को अंदर तक झकझोर कर रख दे, लेकिन ऐसा नहीं होता है. नोलन की ये फिल्म व्यूजुअली संभवत: अभी तक की सबसे अच्छी फिल्म है क्योंकि इसमें सबसे लेटेस्ट तकनीक का इस्तेमाल हुआ है लेकिन बावजूद उसके फिल्म नोलन के उन दार्शनिक पैमानों पर खरा नहीं उतरती जो उन्होंने खुद सेट किया है. हां, व्यूजुअल्स का असर ये रहा कि फिल्म बेस्ट एडिटिंग का अवॉर्ड ज़रूर ले गई. इसके अलावा फिल्म को बेस्ट साउंड मिक्सिंग और बेस्ट साउंड एडिटिंग के लिए भी अवॉर्ड मिले हैं.


द शेप ऑफ वॉटर- साल 2017 में म्युज़िक के दीवानों का जो हाल एड शिरीन के इंग्लिश गाने 'शेप ऑफ़ यू' ने किया था, साल 2018 में सिनेमा के दीवानों का वही हाल गिलर्मो डेल टोरो (Guillermo Del Toro)  की फिल्म 'द शेप ऑफ़ वॉटर' ने कर दिया. पिछले साल जिस तरह ये गाना लोगों के ज़ुबान से नहीं उतरा ठीक उसी तरह इस साल ये फिल्म लोगों के ज़ेहन से नहीं उतरने वाली.


हॉलीवुड के जिन दीवानों ने 'द शेप ऑफ़ वॉटर' का नाम अभी तक नहीं सुना उन्होंने 2004 में आई फिल्म 'हेलबॉय' का नाम ज़रूर सुना होगा. आपको याद होगा कि इस फिल्म ने भारत को छोटे से छोटे शहर में धमाका किया था. वहीं अगर आपको भी ये फिल्म पसंद आई थी तो आपको 'द शेप ऑफ़ वॉटर' पसंद आने की संभावना इसलिए भी है, क्योंकि दोनों ही फिल्मों को डेल टोरो ने डायरेक्ट किया है.


किसी भी एक्टर को उसकी भूमिका को पर्दे पर जीवंत बनाने में डायलॉग की अहम भूमिका होती है और सोचिए कि फिल्म में लीड एक्टर ही जब म्यूट हो तो उसे अपनी बातों को व्यक्त करने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती होगी. यहां लीड एक्ट्रेस सैली हॉकिंस म्यूट है, लेकिन फिल्म का कोई ऐसा सीन नहीं है जो आपको समझ ना आए. वो अपनी आंखों से डायलॉग भी बोलती हैं. जहां डायलॉग नहीं हैं वहां चेहरे के भाव सब कुछ बयां कर जाती हैं.

ये फिल्म सैली की शानदार एक्टिंग के लिए देखी जानी चाहिए. ऑस्कर अवॉर्ड में ये बेस्ट फिल्म सहित 13 कैटेगरी में नॉमिनेटेड थी. सैली को भी बेस्ट एक्ट्रेस कैटेगरी में नॉमिनेशन मिला था. आपको बता दें कि इसे इस साल की बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड मिला है. वहीं बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड भी ‘द शेप ऑफ वॉटर’ के लिए गिलर्मो डेल टोरो ने ही अपने नाम किया. फिल्म को बेस्ट प्रोडक्शन डिज़ाइन का भी अवॉर्ड मिला है.

गेट आउट- इस फिल्म को लेकर मन में एक ही सवाल आता है कि ये फिल्म ऑस्कर की फाइनल लिस्ट में क्यों? अमेरिका में नस्लवाद उतनी ही गंभीर समस्या है जितना भारत में देखी जाती है लेकिन इनके नाम पर बनाए गए किसी फिल्म को ऑस्कर के लिए पास कर देना कई सवाल खड़े करता है. ये फिल्म एक बार देखी जाने लायक ज़रूर है लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसके ऑस्कर की फाइनल लिस्ट में जगह दिला सके. इसे हॉरर, सस्पेंस, मिस्ट्री या थ्रिलर जैसे किसी कैटगरी में रखा जा सकता है. जो कहने की कोशिश की जा रही है उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर इस फिल्म से नस्लवाद हटा दें तो ये फिल्म रॉन्ग टर्न जैसी औसत दर्जे की फिल्म सीरीज़ के किसी फिल्म से बदतर साबित होती. पता नहीं इस फिल्म ने बेस्ट ओरिजिनल स्क्रीनप्ले का अवॉर्ड कैसे जीता.

लेडी बर्ड- लेडी बर्ड एक बार देखी जाने लायक फिल्म है. इसके अंत में आपके अंदर कोई कड़वी याद नहीं रहती और आप अच्छा महसूस करते हैं. इस फिल्म में आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे अमेरिकी परिवारों के आपसी रिश्तों की उलझन को बड़े सुलझे तरीके से दिखाया गया है. फिल्म में लेडी बर्ड का असली नाम क्रिस्टीन होता है और उसने खुद से अपना नाम लेडी बर्ड रखा होता है. नाम से साफ है कि वो बहुत महत्वाकांक्षी है और अमेरिका के बड़े कॉलेज में पढ़ना चाहती है लेकिन इसके लिए परिवार के पास पैसे नहीं होते हैं. पढ़ाई के लिए पैसों को लेकर जूझ रही लेडी बर्ड का प्रेमी वो नहीं होता जिसकी उसे होती है और उसकी बेस्ट फ्रेंड से भी उसकी दोस्ती खटाई में पड़ जाती है.


इन सब के बीच लेडी बर्ड इस कदर उल्झी होती है कि वो ज़िंदगी की अच्छी चीज़ों का लुत्फ उठा नहीं पाती. उसकी मां उससे कहती हैं कि वो उन अच्छी चीज़ों को देखने में नाकाम है जो ज़िंदगी को गुलज़ार बनाती हैं. इस फिल्म को देखते वक्त आपको ऐसा लगेगा कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश में भी ऐसे परिवार हैं जिन्हें आम लोगों की तरह ज़िंदगी की तमाम परेशानियों से होकर गुज़रना पड़ता है.


फैंटम थ्रेड- फिल्म की कहानी दूसरे विश्व युद्ध के बाद की है. इसके केंद्र में ब्रिटेन में उस दौर के फैशन की दिशा तय करने वाले डिज़ाइनर रेनॉल्डस वुडकॉक और अचानक से उनकी प्रेमिका बनने वाली एक वेट्रेस की प्रेम कहानी है. फिल्म में कई बार में समझ में नहीं आता कि चल क्या रहा है और अगर ये चल रहा है तो क्यों चल रहा है? फिल्म आपके अंदर शायद ही कोई इमोशन जगाने में कामयाब हो. ऐसा सवाल उठाने वालों पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इसे ऑस्कर की फाइनल लिस्ट में जगह क्यों मिली? फिल्म को बेस्ट कॉस्ट्यूम डिजाइन का अवॉर्ड मिला है.


द पोस्ट- अमेरिकी जर्नलिज़्म में कई ऐसे ऐतिहासिक खुलासे किए गए हैं जिससे दुनिया सीख ले सकती है. द पोस्ट उनमें से ही एक पेंटागॉन पेपर्स के खुलासे पर बनी है. अगर आप पत्रिकारिता के पेशे में हैं तो ये फिल्म आपको कई बार ऑर्गैज़्म देगी. फिल्म में दिग्गज अदाकारा मेरिल स्ट्रीप ने अमेरिका के स्थापित अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट की मालकिन के ग्राहम का किरदार निभाया है. वहीं दिग्गज अदाकार टॉम हैंकस फिल्म में बेन ब्रैडली के किरदार में हैं जो पोस्ट का मुख्य संपादक है.



1970 के दशक में अमेरिका वियतनाम के साथ युद्ध में उलझा था. इस युद्ध ने अमेरिका की नाक में दम कर रखा था लेकिन तब की निक्सन सरकार ने इसे नाक का ही सवाल बना लिया था. तब अमेरिकी नागरिकों को धोखे में रखा जा रहा था. इसी का खुलासा करने वाले पेंटगॉन पेपर्स, न्यूयॉर्क टाइम्स के हाथों में लग जाते हैं जिनके छापने से रिचर्ड निक्सन की सरकार हिल जाती है. सरकार के कोर्ट पहुंचने के बाद गेंद वॉशिंगटन पोस्ट के पाले में आ जाती है क्योंकि लीक हुए पेपर कोई उन्हें भी दे गया है लेकिन कोर्ट ने इन्हें छापने पर टेंपररी बैन लगा रखा है. ऐसे में पूरी फिल्म इस जद्दोजहद में आगे बढ़ती है कि क्या पोस्ट ये पेपर्स छापेगा? ये फिल्म आपको एक बार ज़रूर देखनी चाहिए.


कॉल मी बाय योर नेम- ये दो यहूदी लड़कों इलियो पर्लमैन और ओलिवर की प्रेम कहानी. दोनों इटली में छुट्टियों के दौरान मिलते हैं और प्यार में पड़ जाते हैं. फिल्म के महज़ एक सीन में इसके टाइटल को जस्टिफाई करने की नाकाम कोशिश की गई है. ये तब होता है जब इलियो से ओलिवर कहता है कि तुम मुझे तुम्हारे नाम से बुलाओ और मैं तुम्हें मेरे नाम से बुलाउंगा. फिल्म के टाइटल को जस्टिफाई करने की कोशिश में लगे इस सीन को दर्शक के अंदर किसी तरह की भावना जगानी चाहिए थी लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होता और किसी तरह का भाव नहीं जगा पाने का सिलसिला पूरी फिल्म में जारी रहता है.


हिंदी के दर्शकों में कम स्पीड वाली फिल्मों के आर्टिस्टिक होने को लेकर एक डर/भ्रम बना रहता है. कई बार उनको ये लगता है कि संभव है ये फिल्म उन्हें समझ ना आई हो लेकिन कला का एक काम ये भी है कि ये सबके अंदर किसी ना किसी तरफ की भावना जगाए. इस काम में ये फिल्म ही नहीं बल्कि दो-तीन फिल्मों को छोड़कर इस साल की लगभग सभी फिल्में नाकाम साबित हुई हैं. अंत में ये एक गे प्रोपगैंडा फिल्म साबित होती है जिसे लेकर जेहन में ये सवाल भी उठता है कि इसे ऑस्कर की फाइनल लिस्ट में जगह क्यों मिलनी चाहिए? वैसे इस फिल्म ने बेस्ट एडैप्टेड स्क्रीनप्ले का अवॉर्ड अपने नाम किया है.