Panchayat Review: गांधी जी के सपनों के '7 लाख देहात' की आज की कहानी बयान करती है ये सीरीज
असमानता को मिटाने और सत्ता के विकेंद्रीकरण में महिलाओं की हिस्सेदारी के प्रयास को प्रधान पति के पद की आड़ में खत्म कर दिया जा रहा है. ग्रामीण स्तर की ऐसी कई समस्याओं पर यह सीरीज घात करती है.
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दीपक मिश्रा
जितेंद्र कुमार, रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, फैसल मलिक और चंदन रॉय
दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद कांग्रेस के बनारस अधिवेशन के दौरान महात्मा गांधी पहली बार जनता से मुख़ातिब हुए थे. अपने भाषण में उन्होंने कहा, “जब हम एक राजनीतिक मंच से जनता के बारे में बात करते हैं तो हम असल में उनसे बेईमानी करते हैं. उस वक्त तो हमारी बातें किसी लिबरल अंग्रेज़ी पत्रिकाओं में छप जाती हैं, मगर देश की आम जनता इसे कैसे समझे? ये अनपढ़ ज़रूर है मगर अंधी नहीं है. क्या ज़रूरत है उसे उन सरमायेदारों का पल्ला पकड़ने की जो अंग्रेजों के बजाए खुद गद्दी पर बैठ जाएं. कांग्रेस दावा करती हैं कि वह जनता की प्रतिनिधि है, मगर जनता का मतलब होता है वो सात लाख देहात!”
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आज़ादी के बाद गांधी जी के इसी सपने को मज़बूती देने के लिए नागौर से शुरू हुए पंचायती राज से लेकर संविधान के 73वें संशोधन तक, ग्राम पंचायत का वर्तमान स्वरूप गढ़ा गया है. मगर आज 100 साल से भी ज़्यादा वक़्त के बाद भी देहातों की पंचायत और उनकी व्यवस्था चर्चा का विषय बनी हुई है. इसी व्यवस्था के आरी-किनारी घूमती है टीवीएफ की नई वेब सीरीज़ ‘पंचायत’, जिसे एमेज़ॉन प्राइम वीडियो की तरफ़ से रिलीज़ किया गया है.
सीमित मगर सधे हुए किरदारों से सजी इस वेब सीरीज़ के आठ एपिसोड ‘फुलेरा’ नाम के ऐसे गांव की कहानी बयान करते हैं, जो उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में कहीं स्थित है. इन आठ एपिसोड में अभिषेक त्रिपाठी (जीतेंद्र कुमार) के किरदार के जरिए पूरी सीरीज की कहानी का प्लॉट तैयार किया गया है. जिंदगी में कुछ बेहतर करने की चाहत लेकिन फुलेरा गांव में ग्राम सचिव की नौकरी महत्वाकांक्षी अभिषेक के करियर की राह में रोड़ा तो जरूर हैं मगर वह अपनी परेशानियों और सुकून की चाह में बीच का रास्ता निकाल कर कैट (एमबीए) की तैयारी करने की कोशिश करता है. 'कोटा फैक्ट्री' के 'जीतू भैया' यानी जीतेंद्र कुमार की एक्टिंग इस सीरीज की रीढ़ की हड्डी की साबित होती है. अपने एक्सप्रेशन्स के जरिए उन्होंने अपने किरदार के साथ बखूबी न्याय करने की कोशिश की है.
ब्रिज भूषण दुबे (रघुवीर यादव) और मंजू देवी (नीना गुप्ता) भी इस सीरीज के अहम किरदार हैं. मंजू देवी ग्राम प्रधान होते हुए भी घर में रहती हैं और उनके पति ब्रिज भूषण दुबे 'प्रधान पति' होने के चलते ग्राम प्रधान की जिम्मेदारियों का वहन करते नजर आते हैं. हालांकि, संविधानिक पद ग्राम प्रधान है मगर महिला उम्मीदवार होने के चलते देहातों में प्रधान पति का यह ट्रेंड चलन में हैं. विडंबना है कि आज देहातों में असमानता को मिटाने और सत्ता के विकेंद्रीकरण में महिलाओं की हिस्सेदारी के प्रयास को प्रधान पति के पद की आड़ में खत्म कर दिया जा रहा है. ग्रामीण स्तर की इस समस्या पर यह सीरीज घात करती है.
मंजू देवी अपने घर में उन महिलाओं की तरह हैं जिनके पति उनकी हर बातों को मानते हैं और उनके नखरे सहते हैं. रघुवीर यादव और नीना गुप्ता जैसे शानदार कलाकरों की जुगलबंदी और नोकझोंक ने सीरीज में अलग कॉमेडी का पंच इख्तियार करने की कोशिश की है.
अन्य किरदारों में उप प्रधान प्रहलाद पांडे (फैसल मलिक) और ऑफिस सहायक विकास (चंदन रॉय) अपने किरदार के साथ न्याय करते नजर आते हैं. ग्रामीण परिवेश पर बनाई गई सीरीज में ये दोनों किरदार अपनी जरूरत के हिसाब से बेहद फिट हैं. ठीक उसी तरह उनकी डायलॉग डिलिवरी और एक्टिंग की तारीफ करने की जरूरत है.
सीरीज की कहानी एक सीधे-साधे गांव की रोजमर्रा की सीधी सी कहानी है, मगर कहानी में बड़े शहर के लड़के अभिषेक की परेशानियां बेचीदगी पैदा करती है. जिस वजह से उसे अपने आप पर कोफ्त होती है कि वह इस गांव में नौकरी करने क्यों आया? एक ग्राम पंचायत को ध्यान में रखें तो मनरेगा मजदूरी, सामाजिक कार्यक्रम में पंचायत का हिस्सा लेना, सोलर लाइट्स का आवंटन, गांव के दीवारों पर परिवार नियोजन के इश्तेहारों को छपवाना और अपना काम बेतहर ढ़ंग से हो जाए इसके लिए लौकी भेंट करने जैसे ग्रामीण स्तर पर आए दिन देखे जाने वाले रूपक इस कहानी और शीर्शक के साथ बेहद न्याय करते हैं.
निर्देशक ने ग्रमीण स्तर के इस फलसफे के बेहद करीब से समझा है और उसे करीने से एपिसोड दर एपिसोड दर्शकों के जेहेन में घोलने की कोशिश की है. उन्य बारीकिओं में ग्रामीण परिवेश को स्क्रीन पर ढालने के साथ-साथ गुदगुदाने वाले पंच दर्शकों के चेहरे पर हंसी लाते हैं. हालाकिं, इन दिनों वेब सीरीज के चलन में डायलॉग्स का काफी क्रेज रहता है. आए दिनों देखने को मिलता है कि सीरीज की रिलीज के बाद उसके डायलॉग्स ट्विटर पर ट्रेंड करते हैं, मगर 'पंचायत' में दमदार डायलॉग्स के बजाए रोजाना की आम बोल चाल की भाषा का इस्तेमाल किया गया है. सीरीज के डायलॉग्स से ज्यादा किरदारों की एक्टिविटी और एक्प्रेशन्स याद रहते हैं. फ्रस्ट्रेशन, इमोशन, गुस्सा, यूनिटी के साथ-साथ सोशल मैसेजिंग के स्तर यह वेब सीरीज एक नयाब कोशिश है.
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