मुंबई: कोई किसी से किस हद तक जलन महसूस और नफरत कर सकता है? इसका जवाब बड़ा ही आसान होगा कि किसी भी हद तक. किसी रिश्ते के गर्त में क्या कुछ होने की संभावना/आशंका छुपी हो सकती हैं? बहुत कुछ. गहरे आपसी रिश्ते में उलझे मानवीय स्वभावों के नकारत्मक पहलुओं के चरम को देखना-समझना हो तो विशाल भारद्वाज की 'पटाखा' जरूर देखी जानी चाहिए.


विशाल भारद्वाज ने सगी बहनों के आपसी रिश्ते के उलझे हुए ताने-बाने और दोनों की आपसी दुश्मनी को सिनेमा के तौर पर जिस तरह से एक्सप्लोर किया है, वो काफी हैरत भरा है और एक मोड़ पर जाकर अविश्वनीय भी लगने लगता है. चरण सिंह पथिक की कहानी 'दो बहनें' के इस सिनेमाई रूपांतरण को जितने मजाकिया, संजीदा और दिचलस्प अंदाज में विशाल भारद्वाज ने पर्दे पर उतारा है, वो अपने आप में बेहद काबिल-ए-तारीफ है.


आम फिल्मों और उनके किरदारों की तरह सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान एक-दूसरे पर जान न्यौछावर करनेवाली बहनों के किरदार में नहीं हैं, बल्कि दोनों एक-दूसरे की खून की प्यासी ऐसी बहनें हैं, जिन्हें एक दूसरे से नहीं लड़ते वक्त बेहद असहज महसूस होता है. एक-दूसरे पर हाथ-पैर चलाने से पहले दोनों सोचने में बिल्कुल यकीन नहीं करती हैं. एक-दूसरे की जिंदगी में बहुत कुछ बुरा होने का दोनों को न सिर्फ इंतजार रहता है, बल्कि ऐसी बातों का आभास मिलते ही दोनों इसका जश्न भी भरपूर मनाते हैं.

'दंगल' के बाद अपनी दूसरी फिल्म में नजर आनेवाली और सीरियल की दुनिया से निकलकर पहली दफा फिल्म दुनिया में कदम रखनेवाली राधिका मदान की ऐक्टिंग भी उतना ही काबिल-ए-तारीफ है. दोनों अपने-अपने किरदार को इस संजीदगी और इंटेंसिटी के साथ निभाते हैं कि पूरी फिल्म में दोनों को देखकर अगर आप ये सोच रहे होते हैं कि दोनों में से किसने बेहतर एक्टिंग की है, तो फिल्म खत्म होने के बाद आपके पास इसका कोई जवाब नहीं होगा. एक अलग से किरदार में सुनील ग्रोवर और दो बेटियों के लड़ाई-झगड़ों से नाउम्मीद और परेशान पिता के रोल में विजय राज ने भी कमाल किया है.



विशाल भारद्वाज ने दो जानी दुश्मन बहनों के रिश्तों‌ को जिस आसानी से भारत-पाकिस्तान के तल्ख रिश्तों से तुलना की है, वो भी आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर दोनों मुल्कों की लड़ाई की जड़ें और वजहें क्या हैं? दो बहनों की तरह ये दोनों मुल्क कब तक लड़ते-झगड़ते रहेंगे? ऐसा करके दोनों को अब तक क्या कुछ हासिल हुआ है और आगे चलकर क्या कुछ हासिल कर लेंगे?

पूरी फिल्म में बीच-बीच में भारत-पाकिस्तान के नफरत भरे रिश्तों पर ऐसे ही तंज फिल्म को एक नई उंचाई प्रदान करते हैं. हालांकि जिस 'दो बहनें' कहानी को विशाल भारद्वाज ने अडॉप्ट करके लिखा है, उसमें भारत-पाक के रिश्तों का जिक्र नहीं है, लेकिन डायरेक्टर ने इसे फिल्म में जिस अंदाज में गूंथा है, वो एक आम दर्शक को संदेश देने की सिर्फ कोशिश भर नहीं है, बल्कि दो मुल्कों की लम्बे समय से चली आ रहीं बेवजह की नादानियों के खिलाफ एक‌ स्टेटमेंट भी है.


नफरत में अंधे हो जाना किसे कहते हैं, इसे छोटी बहन गेंदा की आंखों की रौशनी के बावजूद भी उसे दिखायी नहीं देने और बड़ी बहन चम्पा के गले में आवाज होने के बावजूद उसके गूंगा हो जाने की हालत को दिखाकर किया है. फिर चाहे वो निजी स्तर पर इंसानी दुश्मनी हो या दो देशों का आपसी बर्ताव. अल्प समय के लिए अंधी और गूंगी हो जाने की अवस्था को सान्या और राधिका ने बेहद शिद्दत से जिया है और इस दौरान आप दोनों के दर्द को गहराई से महसूस करेंगे.

गुलज़ार के लिखे गीत, विशाल भारद्वाज का लेखन और संगीत, रंजन पलित का कैमरावर्क, ए. श्रीकार प्रसाद की एडिटिंग और तमाम तकनीकी पक्ष 'पटाखा' को बेहद रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. 'मकड़ी', 'मकबूल', 'ओमकारा', 'कमीने' और 'हैदर' जैसी जहीन और बेहतरीन फिल्में बनाने‌वाले विशाल भारद्वाज की एक और दिलचस्प पेशकश है 'पटाखा'.