आज के दौर में जब कश्मीर और वहां के मुसलमान जैसे दो शब्द आपको सुनाई देते हैं तब आपके ज़ेहन में कैसी तस्वीर बनती है? जाहिर सी बात है कि जिस नफरत भरे दौर में हम जी रहे हैं, उसमें उनके खिलाफ एक नफरत भरी तस्वीर ही बनती होगी. ऐसे में राज़ी की डायरेक्टर मेघना गुलज़ार ने एक ऐसी फिल्म बनाई है जो ना सिर्फ इस तस्वीर में बल्कि इस जैसी कई तस्वीरों में नया रंग भरने का माद्दा रखती है.


1947 में मिली आज़ादी के बाद जो लोग सबसे ज़्यादा शक के घेरे में आए वो हिंदुस्तानी मुसलमान थे. देश के बंटवारे ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा. भारत में इन्हें आज भी अपनी देशभक्ती साबित करनी पड़ती है, वहीं पाकिस्तान में इन्हें मुहाजिर (जो कहीं और से आए हों) कहकर बुलाते हैं. शायद इसी को कहीं का नहीं होकर रह जाना कहते होंगे. वहीं, कश्मीरी मुसलमानों की हालत तो बाकी के भारत के मुसलमानों से भी बदतर रही है. देश के इस अभिन्न अंग से तो लोगों को बहुत प्यार है लेकिन वहां के लोगों से नहीं. नया इतिहास लिखे जाने के इस दौर में कश्मीर में हुआ 1987 का वो इलेक्शन किसे याद होगा, जिसके बाद लिए गए राजीव गांधी के गलत फैसले ने वहां के लोगों के हाथों में हथियार थमा दिए.


देशभक्ती किसी कौम की मोहताज नहीं है


ऐसे में मेघना की फिल्म 'राज़ी' इसलिए नई है क्योंकि उन्होंने इसमें एक कश्मीरी मुसलमान को 1971 की जंग में पाकिस्तान के खिलाफ भारत का देशभक्त जासूस बनाकर पर्दे पर ज़िंदा किया है. फिल्म की कहानी से आपको पता चलता है कि एक कश्मीरी मुसलमान परिवार की तीन पीढ़ियों ने देश के लिए अपने अरमानों की कैसी बलि दी है. फिल्म ये बात बड़ी पुख्ता तरीके से कहने में सफल रही है कि देशभक्ती किसी कौम की मोहताज नहीं है. मुसलमानों ने भी देश से टूटकर प्यार किया हैं.


जासूसी पर पहली हिंदी फिल्म जिसकी लीड एक महिला है


मेघना ने एक और करिश्मा किया है. उन्होंने फिल्म में सनी देओल या अक्षय कुमार जैसे किसी मर्द को नहीं बल्कि एक कमसिन सी दिखने वाली आलिया भट्ट जैसी लड़की को भारत का जासूस बनाकर पाकिस्तान भेजा है. इसके पहले जासूसी पर बनी किसी हिंदी फिल्म में शायद ही ऐसा देखने को मिला हो जिसमें पूरी फिल्म में एक बच्ची सी दिखने वाली लड़की ने पाकिस्तान का वो हाल किया हो जो ‘सहमत’ का किरदार निभाने वाली आलिया इस फिल्म में करके दिखाती हैं.


फिल्म आपके अंदर पाकिस्तान को लेकर कड़वाहट नहीं भरती


भारत-पाकिस्तान पर बनने वाली फिल्में अमूमन मर्दों से लबरेज होती हैं और इन्हें इस अंदाज़ में बनाया जाता है कि दोनों मुल्कों के लोगों के दिलों में और कड़वाहट भर जाए. ये फिल्म इस मामले में भी बिल्कुल अलग है. इसमें आपको पाकिस्तान तो छोड़िए, फिल्म के किसी भी किरदार से नफरत नहीं होती. सारे किरदार हालात के मारे नज़र आते हैं और हालात ही उन्हें हीरो और विलेन बनाता है.


नेहरु और उनके परिवार ने देश के साथ काफी कुछ अच्छा भी किया है


इस फिल्म में एक और अनोखी बात है. दरअसल साल 2014 के बाद से इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में देश में हुई हर बुरी बात का ठीकरा नेहरु और उनके परिवार पर फोड़ा जा रहा है. फिल्म में बड़े हल्के लहज़े में कहीं इंटेलिजेंस एजेंसी के ऑफिस में टंगी नेहरु की तस्वीर दिखाकर तो कहीं बांग्लादेश के जन्म के बाद इंदिरा गांधी की आवाज़ में रोडियो प्रसारण सुनाकर इतिहास की वो झलकियां भी दिखाई हैं जिन्हें देखकर लगता है कि देश में बहुत कुछ अच्छा भी हुआ है जिसके लिए नेहरु और उनका परिवार ज़िम्मेदार है.


इस फिल्म से हिंदी सिनेमा बनाने वाले तीन सीख ले सकते हैं


पहला तो ये कि हिंदुस्तानी मुसलमानों को देशभक्त के रंग में रंग जाना ज़्यादा आर्टिस्टिक है. उन्हें जब-जब आतंकी दिखाया गया है, फिल्म फूहड़ लगने लगी है. देश में इनकी आबादी 15% है और अगर इनको भारत से प्यार नहीं होता तो देश की तस्वीर कुछ और ही होती. ये हमारे अपने लोग हैं और हम अपनी फिल्मों में इन्हें देश के लिए ख़तरा नहीं बता सकते.


दूसरा ये कि ज़रूरी नहीं है कि देशभक्ति और जासूसी के सारे किरदार सिर्फ मर्दों के हिस्से आएं. आज़ादी, उसके पहले और उसके बाद की हर जंग में महिलाओं का भी भरपूर योगदान रहा है. उनके हिस्सा की कहानियों को जिस सम्मान और जगह की दरकार है, वो ज़रूर मिलनी चाहिए. मेघना ने ‘राज़ी’ के जरिए ये साबित किया है कि बिना मसाला, लव स्टोरी और जंग दिखाए एक लड़की को फिल्म का हीरो बनाकर भी भारत-पाक पर आधारित एक शानदार फिल्म बनाई जा सकती है.


तीसरा ये कि सिनेमा कला का सबसे बड़ा माध्यम है और इसे बनाने वालों को तय करना है कि वो इसे प्यार फैलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं या नफरत.‘गदर’ जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस हिट ज़रूर दिलाती हैं. लेकिन ऐसी फिल्में दो न्यूक्लियर पावर मुल्कों के बीच की नफरत की खाई को और गहरा करने का काम करती हैं. पड़ोसी मुल्क होकर भी हम चार जंगें लड़ चुके हैं जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ. ऐसे में ‘राज़ी’ वो फिल्म हो सकती है जिसे हिंदी सिनेमा बनाने वाले पाकिस्तान और मुसलमानों को लेकर अपना सुर बदलने का बहाना बना सकते हैं.


नफरत के इस दौर में जब देश में सिर्फ एक कौम के लोगों को नहीं, बल्कि हर किसी को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटा जा रहा है तब मेघना ने एक कश्मीरी-मुसलमान-लड़की को 1971 की जंग का हिरो बनाकर वो नीम चढ़ा करेला परोसा है जो क्लाइमेक्स में लोगों को हुडदंग या सीटियां बजाने की जगह मीठी-मीठी तालियां बजाने पर मजबूर कर देता है.