निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'शिकारा के बैकग्राउंड 1990 में कश्मीरी हिंदुओं पर हुए ज़ुल्म और उन्हें कश्मीर से निकाले जाने की दर्दनाक सच्ची घटनाओं पर आधारित है. फिल्म का ट्रेलर बेहद पावरफुल था. उम्मीद जगी थी कि इतनी बड़ी सच्चाई जिसे पर्दे पर दिखाने का साहस कोई अब तक नहीं कर पाया वो कर पाएगी. लेकिन परेशानी ये हैं कि फिल्म ट्रेलर से बहुत आगे नहीं बढ़ पायी.


फिल्म में कई कमाल के सीन है जो आपकी नम कर देंगे. अहसास होगा कि कुछ खो गया. कितना गलत हो गया और किसी ने कुछ नहीं किया. इसके पीछे कारण क्या थे? इन अहम मुद्दों पर फिल्म ज्यादा कुछ नहीं कहती.


लेकिन एक सिनेमाई दस्तावेज के तौर पर देखें तो 90 के दशक में कश्मीर में पनपता आतंकवाद, कट्टरपंथ, गंदी सियासत, खूनखराबा और तकरीबन चार लाख कश्मीरी पंडितों का विस्थापन...इन उलझे हुए चैप्टर्स से ये फिल्म बेहद simplified तरीके से डील करती नजर आती है. ये ना तो कश्मीर समस्या की गहराई में जाती है, ना इन घटनाओं की पीछे के इतिहास को टटोलती है. एक सीन में लोग कहते Section 144 कैसे लगा सकते हैं. चुनाव निष्पक्ष नहीं है. इंडिया चले जाओ. बताया जाता है कि पिंडी पिंडी रावलपिंडी की आवाज लगाकर बसें कश्मीरियों को लेकर पाकिस्तान जा रही हैं. बेनजीर भुट्टो का भड़काऊ भाषण टीवी पर चल रहा है. लेकिन इन सब बड़े सवालों की गहराई में ये फिल्म नहीं जाती. इतिहास में तो बिलकुल नहीं जाती. इन सवालों छोड़कर ये आगे बढ़ जाती है एक प्रेम कहानी की तरफ. वो प्रेम कहानी जो फिल्म के केन्द्र में है औऱ बेहद जज्बाती और खूबसूरत है.


कहानी कश्मीरी पंडित जोड़ी शिव कुमार धर और उनकी पत्नी शांति धर की है जिनकी लव मैरिज हुई है. दोनों ने खुशहाल जिंदगी के खाब देखें है. अपने हाथों से एक बेहद खूबसूरत घर बनाया है. लेकिन फिर आता है कश्मीर घाटी में का वो दौर जब कश्मीरी पंडितों के घर जलाए जाते हैं. उन्हें सरेआम गोली मार दी जाती है. उन्हें ‘इंडिया’ जाने को कहा जाता है. कैसे रातों रात अपना घर, अपनी जमीन, अपना सबकुछ पीछे छोड़कर, रिफ्यूजी कैंप्स में रहते हैं. इस खूबसूरत प्रेम कहानी में सब इशारे दिए गए हैं. लीड एक्टर्स आदिल और सादिया बहुतक नैचुरल लगते हैं.


19 जनवरी 1990 की रात की हिंसा. लोगों के अंदर तक बैठ गया डर. सड़क पर अकेले बछड़े का सीन. ये सब सीन आपको अंदर तक हिलाते हैं. फिल्म लगातार इंसानियत की बात करती है. फिल्म एक सीन में ये भी दिखाती है कि 1992 में राम मंदिर आंदोलन चरम पर है तो कुछ बच्चे रिफ्यूजी कैंप्स में राम मंदिर के नारे लगा रहे हैं . तो कश्मीरी पंडित हीरो जिसे उसके घर से निकाला गया था, वो उन बच्चों को इंसानियत का पाठ ही पढ़ाता है.फिल्म दोनों पक्ष दिखाने की कोशिश करती है. मसलन मुस्लिम लड़का अपने पिता की मौत पर कहता है कि अब्बा को सरकार ने मारा तो सरकारी अस्पताल से कैसे जनाज़ा उठने दूंगा. वो कश्मीरी पंडितो के खिलाफ हो जाता है. आतंकवादी बन जाता है . लेकिन फिल्म के अंत में बड़े फिल्मी अंदाज में वही मुस्लिम दोस्त पंडित से माफी भी मांगता है.


ये सब होता है इनसे बड़ी ऐतिहासिक घटना के साथ ये फिल्म पूरी तरह इंसाफ नहीं कर पाती. कश्मीर समस्या की राजनीति समझाने के नाम पर बस एक जेनेरिक लाइन कही जाती है कि हिंदू मुस्लिम की ये लड़ाई 100 साल, हजार साल तक चलेगी और नेता अपनी जेबें भरते रहेंगे.


फिल्म के को-राइटर राहुल पंडिता है जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर बहतरीन किताब लिखी है . फिल्म के सबसे अच्छे सीन उस किताब से ही आते हैं.


फिर फिल्म के दूसरे हिस्से में जब हीरो हीरोइन कश्मीर लौटते हैं. तो उनके घर पर मुस्लिम पड़ोसीयों ने कब्जा किया हुआ है. वो कहता है कि तुम कश्मीरी पंडित कभी भी वापस नहीं लौट सकते. फिल्म के आखिर में एक शादी का सीन है जो बेहद खूबसूरती से ये बता जाता है कि सिर्फ घर नहीं खोया. देश के अलग अलग हिस्सों में संघर्ष करते कश्मीरी पंडितो की रस्मों-रिवाज, रीतियां और कल्चर सब खो गया.


लेकिन एक फिल्म जिससे ये उम्मीद थी कि ये कम से कम इस त्रासदी के पीछे की वजहों और इसके बाद कश्मीर में जो हालत बने उनकी बात भी करेगी. शिकारा उस उम्मीद पर खरी नहीं उतरी. खासतौर पर उस वक्त जब फिल्म के निर्देशक और लेखक खुद इस ट्रेजेडी से गुजरे हैं. शिकारा देखने के बाद यू लगा जैसे कहीं कुछ कमी रह गयी.