स्टार कास्ट: अनुष्का शर्मा, वरुण धवन, नमित दास, रघुबीर यादव,
डायरेक्टर: शरत कटारिया
रेटिंग: 2.5
बढ़ती बेरोजगारी के दौर में बनी 'सुई धागा' फिल्म खुद का काम शुरु करने के लिए प्रेरित करती है. ये फिल्म बताती है कि बेरोजगार रहने और नौकरी करने से बेहतर है कि आप अपना काम शुरु करें. ये फिल्म सरकार के 'मेक इन इंडिया' प्रोग्राम को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई है. लेकिन क्या आम आदमी के लिए अपना काम शुरु करना इतना आसान है? बहुत सारी परेशानियां हैं जो आपको एक फैसला नहीं करने देतीं. कभी घर परिवार की उम्मीदें तो कभी असफल रह जाने का डर. इस फिल्म के जरिए ये बताने की कोशिश की गई है कि आप अगर कुछ कर गुजरने की हिम्मत रखते हैं तो कोई आपके आड़े नहीं आ सकता. आम लोगों की मदद के लिए सरकार ने बहुत सारी स्कीमें चला रखी हैं लेकिन दिक्कत है ये कि अब भी लोगों को उसके बारे में कोई जानकारी नहीं. ज्यादा से ज्यादा लोगों तक ये बात पहुंचाई जा सके इसी मकदस से ये फिल्म बनाई गई है. नाम से जाहिर है कि इसकी कहानी सिलाई, कढ़ाई और बुनाई के ईर्द गिर्द है जिसे आम आदमी खुद को जोड़कर देख सके. क्या इतने महत्वपूर्ण आइडिया को शरत कटारिया अपनी फिल्म में असरदार तरीके से दिखा पाए हैं? आइए जानते हैं-
कहानी
इस फिल्म की कहानी मध्य प्रदेश के चंदेरी के ईर्द गिर्द बुनी गई है. मौजी (वरुण धवन) अपनी आजीविका चलाने के लिए दुकान में नौकरी करता है जिसके साथ अक्सर ही कुछ ऐसा होता रहता है जो उसकी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) को अच्छा नहीं लगता. ममता उसे अपना काम शुरू करने के लिए कहती है. सिलाई-कढ़ाई के मामले में मौजी को महारत हासिल है. दोनों मिलकर एक सपना देखते हैं कि वो अपनी कंपनी खोलेंगे और मेड इन इंडिया के टैग से उसे बचेंगे. लेकिन उनके पास ना तो पैसे हैं और ना ही सिलाई मशीन? ना परिवार का सपोर्ट है और ना ही कोई गॉड फादर? ये सपना आखिर दोनों कैसे पूरा करते हैं? यही कहानी है.
एक्टिंग
वरुण धवन इस फिल्म में अपनी भूमिका को जीते हैं. मौजी के कैरेक्टर में वो जमे हैं. उनके हाव भाव और बातचीत का तरीका भी उनके कैरेक्टर को काफी वास्तविक बनाता है. पिछली फिल्म 'अक्टुबर' में भी उन्होंने साधारण किरदार से इंप्रेस किया था. ये फिल्म करके भी वरुण यही साबित कर रहे हैं कि इंटरटेनमेंट के साथ-साथ वो बेहतरीन एक्टिंग भी कर सकते हैं.
ममता के किरदार में अनुष्का शर्मा ठीक-ठाक हैं. ट्रेलर रिलीज के बाद से ही ममता के मीम्स सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं. फिल्म देखते वक्त ऐसे बहुत से सीन है जहां अनुष्का ने इस कदर ओवरएक्टिंग की है कि सब कुछ मजाकिया लगने लगता है.
इसके अलावा पिता की भूमिका में रघुबीर यादव भी फिट बैठते हैं. नमित दास भी अपने कैरेक्टर में दम भरते नज़र आते हैं.
डायरेक्शन
इस फिल्म को शरत कटारिया ने डायरेक्ट किया है. शरत इससे पहले 'दम लगा के हईशा' फिल्म को डायरेक्ट कर चुके हैं जिसे काफी पसंद किया गया. इस फिल्म को भी शरत ने बहुत वास्तविक बनाने की कोशिश की है. फिल्म के लोकेशन रीयल हैं, कैरेक्टर्स भी वैसे ही हैं जिन्हें देखकर रिलेट किया जा सके. लेकिन फिल्म एक टॉपिक पर ना रहकर भटकने लगती है. हॉस्पिटल में चल रही कमीशनखोरी को भी दिखाया है. इस टॉपिक का काफी देर तक खींचने की कोशिश की है. ये जरुरी मुद्दा है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी ये है कि आप जिस पर बात कर रहे हैं उससे ध्यान ना भटके.
फिल्म की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसमें फ्लो नहीं है. ये फिल्म कई हिस्सों में लगती है. एक सीन शुरु होकर खत्म हो जाता है. फिर कुछ और... यही वजह है कि 2 घंटे 15 मिनट की ये फिल्म बहुत बोर करती है.
क्यों देखें/ना देखें
ये कॉमेडी ड्रामा फिल्म ना कहीं हंसाती ना ही रुला पाती है. अगर आप समाज से जुड़े मुद्दों से सरोकार रखते हैं तो ये फिल्म देखिए. नहीं तो अपने रिस्क पर देखिए.