Flashback Friday: म्यूजियम क्या होता है? एक ऐसी जगह जहां अलग-अलग महत्व की चीजों का संग्रह होता है. सवाल और जवाब सुनकर समझ नहीं आया कि किस बारे में बात हो रही है? और म्यूजियम को स्टोरी के इंट्रो में रखने की जरूरत क्यों पड़ी? असल में आगे तब्बू की बात करने वाले हैं और तब्बू को सिर्फ एक्ट्रेस बोलना नाइंसाफी होगी. इसलिए, हमने तब्बू के लिए इस खास शब्द म्यूजियम का इस्तेमाल किया है. तब्बू वो हैं जिन्होंने हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, इंग्लिश, मराठी और बंगाली फिल्मों में काम किया. 


हम उन्हें सिर्फ इसलिए म्यूजियम नहीं बोल रहे क्योंकि उन्होंने अलग-अलग भाषाओं की फिल्मों में काम किया. वो तो और भी दूसरे एक्टर और एक्ट्रेसेस ने भी किया है. म्यूजियम इसलिए क्योंकि वो एकमात्र ऐसी एक्ट्रेस हैं, जिन्होंने मेनस्ट्रीम और ऑफबीट, दोनों तरह के सिनेमा में सफलता को चखा है. न सिर्फ चखा है, बल्कि बढ़िया से स्वाद लेकर खाया है.






इत्तेफाक नहीं मेहनत से बनीं तब्बू
तब्बू को फिल्मों में आना नहीं था और ऐसा उन्होंने सोचा भी नहीं था. ये सिर्फ एक संयोग था. ऐसा उन्होंने द टेलीग्राफ को दिए एक इंटरव्यू में बोला था. तब्बू ने फिल्म 'बाजार' (1982) में एक छोटे से रोल से शुरुआत की थी. इसके बाद 1984 में आई देवानंद की फिल्म 'हम नौजवान' में दिखने के बाद तब्बू 1991 में आई तेलुगु फिल्म 'कुली नंबर 1' में दिखीं. तब्बू को पहली सफलता मिली अजय देवगन के साथ आई 1994 की 'विजयपथ' से. अब तब्बू पूरी तरह से मेनस्ट्रीम का बड़ा चेहरा बन चुकी थीं.


तब्बू सिर्फ मेनस्ट्रीम सिनेमा से बंधकर रहने वाली नहीं रहीं
तब्बू ने विजयपथ के बाद 'जीत', 'साजन चले ससुराल', 'बॉर्डर', 'बीवी नंबर 1' और 'हम साथ-साथ हैं' जैसा वो सिनेमा किया जिसके दर्शक हमेशा से ज्यादा रहे हैं. यानी मेनस्ट्रीम सिनेमा, लेकिन इसी बीच उन्होंने एक्सपेरिमेंट करने से परहेज भी नहीं किया. उन्होंने ऑफबीट फिल्मों में भी हाथ आजमाया, जैसे 1996 में आई 'माचिस', 1997 में आई 'विरासत' और 1998 में आई 'चाची 420'. ये वो फिल्में रहीं जिनमें तब्बू की एक्टिंग स्किल निखर के सामने आई. 2001 में आई 'चांदनी बार' में उनकी मेथड एक्टिंग देखने को मिली.


रिस्क लेना जैसे काम ही रहा हो तब्बू का
तब्बू ने साल 2000 में एक फिल्म 'अस्तित्व' की. ये फिल्म उस दौर में आई थी जब किसी एक्ट्रेस के लिए ऐसे रोल को हामी भरना मुश्किल हो सकता था. इस फिल्म में वो यौन रूप से निराश पत्नी की भूमिका में नजर आईं, जिसे अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए 'बेवफाई' से भी परहेज नहीं था. फिल्म में उनका किरदार अपनी इस हरकत के लिए माफी भी नहीं मांगता, बल्कि वो सवाल पूछता है कि पुरुष और महिला के लिए शादी के नियम अलग-अलग क्यों हैं. वो पूछता है कि सुख सिर्फ पुरुष को औरत के हक में सिर्फ ड्यूटी ही क्यों आती है. वो एक खुशहाल शादी के बारे में सवाल करती है. तब्बू ने जब ये फिल्म की थी, तो ऐसा माना जा रहा था कि वो एक मेनस्ट्रीम एक्टर के तौर पर अपनी पहचान खो सकती हैं. लेकिन हुआ इसका उल्टा, उन्हें ठीक से पहचानने वालों की संख्या बढ़ने लगी. और वो लगातार एक के बाद एक हिट फिल्में देती रहीं.


तब्बू ही वो एक्ट्रेस हैं जो 'चीनी कम' जैसी फिल्म के लिए हां सकती थीं. फिल्म में वो अपने से दोगुनी उम्र के बॉयफ्रेंड के साथ रहती हैं. हालांकि, 2007 में आई इस फिल्म को हिट का तमगा नहीं मिला, लेकिन ये फिल्म उनके रिस्क लेने की काबिलियत को जरूर दर्शाती है.


तब्बू की एक्टिंग का विशाल दायरा जिसकी सीमाएं हैं ही नहीं
अगर आपने 2004 की फिल्म 'मकबूल' देखी हो, तो आपको उनकी एक्टिंग की बारीकी दिखेगी. मासूम और सम्मोहक चेहरे के साथ तंज करता तब्बू का निम्मी वाला किरदार किस कदर डरावना था. उनके एक्सप्रेशन और उनकी डायलॉग डिलिवरी ऐसी कि फिल्म में इरफान खान जैसे मंझे हुए कलाकार के सामने वो किसी 'लेडी इरफान' से कम नहीं लग रही थीं.


बात यहीं खत्म नहीं होती, फितूर, हैदर, अंधाधुन, अ सुटेबल बॉय दृश्यम जैसी फिल्मों में उन्होंने सिर्फ ऐसे किरदार किए, जिनकी अपनी औकात थी. इसी बीच वो हेरी फेरी, गोलमाल अगेन और भूल भुलैया 2 जैसी कॉमेडी फिल्मों में अलग रूप में भी नजर आईं. उन्होंने इंग्लिश फिल्म नेमसेक में जो कर दिया उसके लिए उसकी डायरेक्टर मीरा नायर ने उनके बारे में बोला था, ''तब्बू इंडिया की मेरिल स्ट्रीप है. वो एक स्वतंत्र विचारों वाली और महान एक्ट्रेस हैं जिन्हें इस बात की भी चिंता नहीं है कि वो ग्लैमरस दिख रही हैं या नहीं.''






तब्बू के कसीदे और किस-किस ने पढ़े
तब्बू के बारे में सिर्फ मीरा नायर ही नहीं मेघना गुलजार और इरफान खान जैसी बड़ी हस्तियों ने भी जो कुछ भी बोला है वो बस गजब का ही बोला है. मेघना गुलजार ने कहा था, ''कोई ऐसा किरदार जिसमें परफार्मेंस में जरूरी गहराई और उसकी परतों को दिखाने की जरूरत हो, तो दिमाग में सिर्फ एक ही नाम आता है कि इसे तो सिर्फ तब्बू ही कर सकती हैं.''


जब तब्बू को हैदर के लिए नेशनल अवॉर्ड नहीं मिला, तो इसमें दुख जाहिर करते हुए इरफान खान ने कहा था कि वो हैरान हैं कि तब्बू को ये अवॉर्ड मिला क्यों नहीं. इसमें उनकी एक्टिंग ऐसी थी जैसी हिंदी सिनेमा में किसी भी एक्ट्रेस ने आज तक की ही नहीं. उन्हें ये अवॉर्ड इसलिए मिलना चाहिए था क्योंकि उन्होंने एक्टिंग में नए एलीमेंट्स और नए आयाम जोड़े हैं.


यूं ही 'लाइफ़ ऑफ़ पाइ' के डायरेक्टर आंग ली ने उन्हें 'विश्व सिनेमा की निधि' नहीं कहा है. द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक आर्टिकल में तो ये तक कह दिया गया था कि 'हैदर' फिल्म का नाम हैदर नहीं, तब्बू के किरदार गजाला के नाम पर 'गजाला' रखना चाहिए था.


तब्बू की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि जहां उनकी समकालीन एक्ट्रेस किसी एक तरह के सिनेमा में सिमट के रह गईं, तब्बू ने उन पुरानी ऑफबीट सिनेमा की एक्ट्रेस से भी एक कदम आगे आते हुए दोनों तरह के सिनेमा के दर्शकों में अपनी पहचान बना ली. जहां ऑफबीट सिनेमा के एक्टर दर्शकों के लिए तरसते हैं वहीं मेनस्ट्रीम सिनेमा के एक्टर ऑफबीट सिनेमा के लिए, वहां तब्बू दोनों जगह फिट बैठती हैं. और आज भी वो अमिताभ बच्चन की तरह अपने ही तरह के रोल्स किए जा रही हैं.


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