Quick Review: बोरियत से भरी कमज़ोर फिल्म है 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर'
The Accidental Prime Minister: कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव हैं और फिल्म में जो दिखाया गया है उससे फिल्म की टाइमिंग पर सवाल उठना तो लाज़िमी है. और इसे बनाने वालों के इरादे पर भी सवाल खड़े करती है. लेकिन एक फिल्म के तौर पर क्या दर्शकों के लिए कुछ है?
The Accidental Prime Minister: अनुपम खेर और अक्षय खन्ना की 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' पूरी तरह से राजनीतिक फिल्म है जिसमें कांग्रेस और खासतौर पर गांधी परिवार पर सीधा निशाना साधा गया है. कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव हैं और फिल्म में जो दिखाया गया है उससे फिल्म की टाइमिंग पर सवाल उठना तो लाज़िमी है. और इसे बनाने वालों के इरादे पर भी सवाल खड़े करती है. लेकिन एक फिल्म के तौर पर क्या दर्शकों के लिए कुछ है?
सबते पहले बात कहानी की...
फिल्म 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' की कहानी संजय बारू की इसी नाम की किताब से है और पूरी तरह से उन्हीं के नजरिए से है. कहानी शुरू होती है 2004 में लोकसभा चुनाव में यूपीए की जीत के साथ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी खुद पीएम बनने के बजाय डॉक्टर मनमोहन सिंह को पीएम पद के लिए चुनती हैं. लेकिन फिर किस तरह सरकार मनमोहन सिंह नहीं बल्कि हाईकमान सोनिया गांधी के इशारों पर चलती है. इस बीच में प्रधानमंत्री मनोमोहन सिंह अपने मीडिया एडवाइज़र के रूप में पत्रकार संजय बारू को रखते हैं. संजय बारू के मुताबिक वो लगातार मनमोहन सिंह को अपनी अलग पहचान बनाने और अपने फैसले लेने के लिए कहते रहते हैं. वहीं तकरीबन पूरा कैबिनेट और अपनी पार्टी ही मनमोहन सिंह के खिलाफ साजिश रचती रहती है. कई स्कैम्स के चलते यूपीए सरकार पतन की तरफ बढती रहती है. लेकिन मनमोहन सिंह लगातार गांधी परिवार के दवाब में रहते हैं और आखिर में ये बात उन्हें बेहद कमज़ोर बना देती है.
अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील की चर्चा, इस डील पर लेफ्ट का विरोध, पीएम और हाईकमान का लगातार टकराव जैसी सभी घटनाएं फिल्म में दिखाई गई हैं लेकिन सिर्फ संजय बारू के नज़रिए से.
अक्षय खन्ना हैं फिल्म के 'हीरो'
फिल्म पूरी में अनुपम खेर और अक्षय खन्ना के कंधो पर है. शुरुआत में लगता है कि अनुपम खेर मनमोहन सिंह की मिमिक्री कर रहे हैं लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है वो इस रोल में ढलते जाते हैं. एक प्रधानमंत्री की बेबसी और व्यंग्य वाले सीन्स में वो अच्छे लगे हैं. अक्षय खन्ना के साथ उनके कई सीन चेहरे पर मुस्कान ले आएंगे. लेकिन चूंकि कहानी में उनका किरदार को मजबूर और कमज़ोर बताया गया है तो वो हीरो बनकर नहीं उभरते.
फिल्म के हीरो तो संजय बारू बने अक्षय खन्ना ही है. मीडिया एडवाइज़र के रूप में अक्षय बिलकुल अपने हीरो वाले अंदाज़ में ही नजर आते हैं. ये चित्रण शायद असलियत के करीब ना हो मगर मनोरंजन के लिए उऩका रोल सबसे बेहतर है.
अभिनेत्री सुजैन बर्नेट सोनिया गांधी के रोल में उनकी अच्छी नकल करती नज़र आती हैं. लेकिन उनका किरदार बड़ा एकतरफा और नेगेटिव लिखा गया है.
कहां कमजोर पड़ती है फिल्म
- अगर एक फिल्म के तौर देखें तो शुरुआत में ही डिसक्लेमर दिया गया है कि फिल्म का उद्देश्य मनोरंजन है. ये फिल्म कतई इस उद्देश्य पर खरी नहीं उतरती. पत्रकारों को शायद इस फिल्म की घटनाएं जानी पहचानी लगें लेकिन आम दर्शक के लिए निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे की ये फिल्म घोर बोरियत से भरी कमज़ोर फिल्म है.
- ट्रीटमेंट और प्रोडक्शन के हिसाब से ये किसी टीवी सीरियल की तरह लगती है. ये फिल्म सिर्फ उन दर्शकों लिए ही है, जो राजनीति में बहुत गहरी दिलचस्पी रखते हैं.
- देश की राजनीति की ये कहानी खबरों के माध्यम से शायद हम सब थोड़ी बहुत जानते ही हैं. लेकिन यहां फिल्म के हीरो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं बल्कि संजय बारू साबित होते हैं. कई बार तो ये लगता मानो पूरा पीएमओ वही चलाते हैं. मीडिया एडवाइजर के रोल से काफी आगे बढ़ते नज़र आते हैं. अहमद पटेल जैसे सीनियर नेता से बहस और डायलॉगबाज़ी तक करते नज़र आते हैं. ये नकली और बेहद फिल्मी लगता है.
- इस विशुद्ध राजनीतिक फिल्म का मकसद गांधी परिवार को नेगेटिव दिखाना है लेकिन इस कोशिश में सोनिया गांधी जैसा सियासी किरदार पूरी तरह यूनि-डायमेंशनल नजर आता है मानो उनका मकसद सिर्फ मनमोहन सिंह को परेशान करना हो. फिल्म में नेताओं के मेकअप भी बड़े सस्ते लगते हैं.
यूं लगता है मानो फिल्म बड़ी जल्दबाजी में बनी है, कई बार टीवी डॉक्युड्रामा का फील देती है और डिटेलिंग की कमी साफ झलकती है. आम दर्शक के लिए ये किसी एक्सीडेंट से कम नहीं है.
अनुपम खेर और अक्षय खन्ना के लिए हम इस फिल्म को देंगे दो स्टार.