Movie Review: मेकर्स की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करती है फिल्म The Accidental Prime Minister
The Accidental Prime Minister Movie Review: इस फिल्म में मनमोहन सिंह के किरदार में अनुपम खेर हैं और संजय बारु की भूमिका में अक्षय खन्ना हैं. किताब की तरह ही फिल्म की टाइमिंग पर सवाल उठ रहे हैं. क्या इस फिल्म से कांग्रेस की छवि धूमिल होगी? क्या फिल्म में वही दिखाया गया है जो किताब में हैं? या फिर ये फिल्म पूरी तरह प्रोपगेंडा फिल्म है जो चुनाव में इस्तेमाल के लिए बनाई गई है? आइए जानते हैं-
स्टारकास्ट: अनुपम खेर, अक्षय खन्ना, अहाना कुमरा, अर्जुन माथुर, सुजैन बर्नर्ट
डायरेक्टर: विजय रत्नाकर गुट्टे
रेटिंग: 2 स्टार
The Accidental Prime Minister Movie Review: 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' फिल्म आज रिलीज हो गई है जिसे लेकर काफी दिनों से विवाद चल रहा है. ये फिल्म संजय बारु की किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' पर बनी है जो 2004 से 2008 तक पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे. पद छोड़ने के बाद उन्होंने यह किताब लिखी. किताब में उन्होंने बताया कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो थे लेकिन सारे फैसले कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी लेती थीं. संजय बारु के मुताबिक, मनमोहन सिंह बहुत कुछ करना चाहते थे लेकिन उनके आड़े पार्टी आ रही थी. अब फिल्म 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले रिलीज हुई है. इसमें मनमोहन सिंह के किरदार में अनुपम खेर हैं और संजय बारु की भूमिका में अक्षय खन्ना हैं. किताब की तरह ही फिल्म की टाइमिंग पर सवाल उठ रहे हैं. क्या इस फिल्म से कांग्रेस की छवि धूमिल होगी? क्या फिल्म में वही दिखाया गया है जो किताब में है? या फिर ये फिल्म पूरी तरह प्रोपगेंडा फिल्म है जो चुनाव में इस्तेमाल के लिए बनाई गई है? आइए जानते हैं.
फिल्म कैसी है
ट्रेलर देखने के बाद आपको भी लगा होगा कि ये किताब की तरह की पूरी तरह से मनमोहन सिंह पर आधारित होगी, लेकिन ऐसा नहीं है. ये फिल्म मनमोहन सिंह से ज्यादा संजय बारु के बारे में है. इस फिल्म के हीरो तो संजय बारु हैं. इसे देखकर लगता है कि संजय बारु को इस बात से परेशानी कम थी कि सोनिया गांधी बड़े फैसले लेती हैं, बल्कि बारु की मंशा ये थी कि उनके हिसाब से पीएमओ चले.
जिन्हें राजनीति में दिलचस्पी नहीं है उन्हें ये फिल्म बिल्कुल समझ नहीं आएगी. किताब के पन्नों की तरह ही फिल्म फटाफट चलती है. कब कौन सा चैप्टर खत्म होकर दूसरा शुरु हो गया ये आम दर्शकों के लिए समझना मुश्किल होगा.
फिल्म UPA सरकार की पूरे एक दशक की राजनीतिक उठापटक को दिखाती है. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान की शुरुआती बड़ी घटनाओं को जल्दबाजी में दिखाया गया है. 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री पद छोड़ने से फिल्म शुरु होती है. इसके बाद संजय बारु की पीएमओ में एंट्री, एनएसी का गठन, न्यूक्लियर डील, राहुल गांधी का ऑर्डिनेंस फाड़ना और आखिर में 2014 के लोकसभा चुनावों में यूपीए को मिली हार तक की झलक बहुत ही नाटकीय ढ़ंग से दिखाई गई है.
इस वजह से मेकर्स की मंशा पर उठते हैं सवाल
- फिल्म के डिस्क्लेमर में लिखा गया है कि सारे कैरेक्टर, जगह और घटनाएं काल्पनिक हैं और किताब के अनुसार दिखाई गई हैं. लेकिन वाकई में ऐसा नहीं है. इसमें सुषमा स्वराज, आडवाणी और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों के ओरिजिनल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है. फिल्म खत्म होते-होते एक फुटेज में पीएम मोदी कहते हैं- मां बेटे की सरकार तो जाएगी. अब काल्पनिक बोलकर वास्तविक फुटजे के इस्तेमाल के पीछे की वजह दर्शक समझ सकते हैं.
- संजय बारु हमेशा ये कहते रहे हैं कि उन्होंने किताब मनमोहन सिंह की सकारात्मक इमेज पेश करने के लिए लिखी है लेकिन फिल्म देखते वक्त ऐसा नहीं लगता. फिल्म को मसालेदार बनाने के लिए बहुत सी बातों को नमक-मिर्च की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसे लोग चटखारे मारकर देख सकें. एक जगह मनमोहन सिंह की पत्नी उनसे कहती हैं, 'पार्टी आपको और कितना बदनाम करेगी? आप कुछ बोलते क्यों नहीं?' हालांकि किताब में इसका जिक्र नहीं है.
- फिल्म में सोनिया गांधी की इमेज को पूरी तरह नकारात्मक दिखाया गया है, इसके बावजूद मनमोहन सिंह से कोई सहानुभूति नहीं होती. फिल्म देखकर तो लगता है कि संजय बारु को सहानुभूति की जरुरत है.
- यहां ये भी दिखाया गया है कि 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' किताब संजय बारु ने मनमोहन सिंह की सहमति से लिखा था. फिल्म के मुताबिक, पूर्व प्रधानमंत्री ने किताब पढ़ी भी थी. फिल्म एक सीन में उनकी पत्नी संजय बारु से फोन पर कहती हैं, 'डॉक्टर साहब एक-एक लाइन पढ़ रहे हैं किताब की.' हालांकि वाकई में ऐसा नहीं है. किताब में संजय बारु ने शुरु में ही लिखा है कि उनके इस आइडिया को शायद मनमोहन सिंह अप्रूव ही नहीं करते.
डायरेक्शन
फिल्म के डायरेक्टर विजय रत्नाकर ने कहा था कि ये फिल्म ये पॉलिटिकल नहीं बल्कि ह्यूमरस फिल्म है. उन्हें बिल्कुल ये समझने की जरुरत है कि मजाक और ह्यूमर में क्या फर्क है.
एक्टिंग
मनमोहन सिंह के रोल में अनुपम खेर कई बार खटकते हैं. उनकी चाल, ढाल और आवाज बहुत ज्यादा बनावटी लगती है. उनके लिए ये चुनौतीपूर्ण भी था क्योंकि मनमोहन सिंह के हाव भाव को लोगों ने देखा है. उन्हें कॉपी करने की वजह से ही अनुपम खेर एक्टिंग के मामले अक्षय खन्ना के सामने दब जाते हैं. अक्षय खन्ना के पास संजय बारु के रोल को अपने हिसाब से निभाने का पूरा मौका था और उन्होंने अपना दमखम दिखा दिया है. ये फिल्म उन्हीं के कंधों पर टिकी है.मेकर्स पर कई सवाल इस वजह से भी उठते हैं क्योंकि मनमोहन सिंह के कैरेक्टर को मजाकिया भी बनाया गया है. कहीं-कहीं दर्शकों को हंसाने के लिए कार्टून में इस्तेमाल होने वाले म्यूजिक का भी उपयोग किया गया है. उनके हिस्से डायलॉग्स ऐसे है जो फिल्म के हल्केपन को बयां करते हैं. उनके डायलॉग्स कुछ ऐसे हैं, 'मैं दूध पीता बच्चा नहीं हूं, सिर्फ फैक्ट बताइए...', 'शेर भी कभी दांत साफ करता है क्या...' इत्यादि.
बाकी एक्टर्स की बात करें तो सोनिया गांधी की भूमिका में सुजैन बर्नेट अपने कैरेक्टर में फिट लगती हैं. उनका बोलने का लहजा भी काफी कन्विंसिंग लगता है. वहीं राहुल की भूमिका में अर्जुन माथुर बस उतने ही दिखे हैं जितना आपने ट्रेलर में देखा होगा. अहाना कुमरा को प्रियंका गांधी का रोल तो मिला है लेकिन फिल्म में स्पेस नहीं मिला.
क्यों देखें/ना देखें
अगर आपको राजनीति में दिलचस्पी है तो आप ये जानने के लिए देख सकते हैं कि अब चुनावी जंग की क्रिएटीविटी सोशल मीडिया से होते हुए सिनेमाघरों तक पहुंच गई है. फिल्म में एक जगह संजय बारु कहते हैं कि 'राजनीति का स्तर गिरते हुए तो कई बार देखा लेकिन ऐसा कभी नहीं.' फिल्म देखकर आप भी सोचिए कि राजनीति का स्तर क्या है और ऐसा क्यों है? ऐसा करने से किसे फायदा होगा?
फिल्म के आखिर में मनमोहन सिंह कहते है कि 'उन्हें इतिहास मीडिया की हेडलाइन्स से नहीं बल्कि उनके कामों से याद रखेगा...' फिल्म देखने के बाद भी यही उम्मीद की जा सकती है कि लोग फिल्म देखकर उनकी छवि अपने दिमाग में ना बनाएं.
साथ ही अक्षय खन्ना की दमदार एक्टिंग के लिए भी आप इसे देख सकते हैं.
अगर आप सिर्फ इंटरटेनमेंट के लिए फिल्में देखते हैं तो ना देखें. करीब एक घंटे 50 मिनट की ये फिल्म बहुत बोर कर सकती है.