स्टार कास्ट: अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर, अनुपम खेर, दिव्येंदु शर्मा, सुधीर पांडे, 


डायरेक्टर: श्रीनारायण सिंह


रेटिंग: 2.5 स्टार


'टॉयलेट: एक प्रेम कथा' एक ऐसी फिल्म है  जो लोगों की उस अंधविश्वासी और दकियानूसी सोच पर अटैक करती है जो अपने हिसाब से सभ्यता और संस्कृति को परिभाषित कर लेते हैं. ये बहुत ही साधारण फिल्म है जो उन्हीं चीजों को बड़े पर्दे पर दिखाती है जो हमारे आस पास हो रही हैं या फिर हम काफी समय से देखते आ रहे हैं. चाहें वो बात बिल्ली के रास्ता काट जाने के बाद वो रास्ता बदल लेने का हो या फिर ब्याह के समय कुंडली और दोष को ध्यान में रखकर शादी रचाने का हो. उस सोच का ही नतीजा है कि आज भी घर में शौचालय की बात आते ही ये सुनने को मिलता है कि 'जिस आंगन में तुलसी है वहां शौचालय कैसे बन सकता है.' इस फिल्म के जरिए ये लोगों को ये घर में शौचालय के महत्व को एक प्रेम कहानी के जरिए समझाने की कोशिश की गई है.



सदियों से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं हो शौच के लिए सुबह-शाम बाहर खेतों में जाती हैं. मर्द तो खुले में कहीं भी बैठ जाते हैं लेकिन औरतों को तो पेट पकड़कर शाम होने का इंतजार करना पड़ता है. लेकिन वो आखिर कब तक ऐसा करेंगी. जब कोई एजुकेटेड महिला घर में टॉयलेट की मांग करे तो उसे ये ताना मारा जाता है कि पढ़ने लिखने के बाद दिमाग खराब हो जाता है, सभ्यता की कद्र नहीं होती... इत्यादि-इत्यादि. यहां ये संदेश देने की कोशिश की गई है कि महिलाओं को खुद की इज्जत करनी चाहिए और बाहर जाने से ऐतराज जताना चाहिए. महिलाओं को घर से बाहर जाने की आजादी हो लेकिन वो शौच के लिए नहीं.


कहानी


आपने घर में टॉयलेट ना होने पर पति से तलाक की कई खबरें पढ़ी होंगी. ये कहानी भी कुछ ऐसी है लेकिन थोड़ी बॉलीवुड टाइप की है. साइकिल की दुकान चलाने वाले केशव (अक्षय कुमार) को अमीर खानदार की लड़की जया से पहली नज़र में ही प्यार हो जाता है. प्यार परवान चढ़ता है और दोनों शादी कर लेते हैं. शादी की पहली रात ही जब महिलाएं सुबह होने से पहले जया को शौच के लिए खेतों के जाने के लिए जगाती हैं तो उसे पता चलता है कि घर में शौचालय नहीं है.



जया का कहना है कि उसे घर में टॉयलेट चाहिए. केशव की मुश्किल उसके पिता हैं जो घर में पंडित हैं और वो मानते हैं कि जिस आंगन में तुलसी है वहां टॉयलेट नहीं बन सकता है. वैसे तो ये कोई बड़ी बात नहीं है कि जैसे सारी महिलाएं लोटा लेकर खेतों में चली जाती हैं वैसे जया भी चली जाए लेकिन वो ऐसा नहीं करती है. वो केशव को छोड़कर मायके चली जाती है और फिर शुरू होती है केशव की शौचालय बनवाने के लिए घर, परिवार और समाज से लड़ाई. बात जया और केशव के तलाक तक पहुंच जाती है लेकिन शौचालय नहीं बन पाता. यहां केशव डायलॉग भी मारता है, 'आशिकों ने तो आशिकी के लिए ताजमहल बना दिया, हम एक संडास ना बना सके.' इसके बाद केशव अपना प्यार बचाने और लोगों की सोच से लड़ने के लिए क्या-क्या करता है यही पूरी कहानी है.


एक्टिंग


जया की भूमिका में भूमि पेडनेकर ने कमाल कर दिया है. इस फिल्म में उन्होंने खुद बेहतरीन साबित कर दिया है. इससे पहले 'दम लगाके हईशा' फिल्म में भी भूमि को एक्टिंग के लिए भी बहुत तारीफ मिली थी. इस फिल्म में भी भूमि ने बहुत ही शानदार एक्टिंग की है.



केशव के भाई की नरू की भूमिका में दिव्येंदु शर्मा हैं  और उन्होंने दिल जीत लिया है. इससे पहले प्यार का पंचनामा और चश्मे बद्दूर में अपनी एक्टिंग के लिए खूब तारीफें बटोर चुके दिव्येंदु इस फिल्म में अक्षय पर भी भारी पड़ते हैं.


अक्षय कुमार भी अपनी भूमिका के साथ न्याय करते हैं. फिल्म में उनकी एक्टिंग हो या फिर लुक दोनों में ही वो  36 साल के 12 वीं पास युवक की भूमिका के साथ न्याय कर लेते हैं. भूमि के साथ अक्षय की केमेस्ट्री भी बहुत ही दमदार है.



इसके अलावा सुधीर पांडे ने पंडित की अपनी भूमिका में ऐसी जान डाल दी है कि उन्हें देखते समय उनसे चिढ़ हो जाती है.


म्यूजिक और कहानी


इस फिल्म की कहानी सिद्धार्थ सिंह और गरिमा बहाल ने लिखी है जो इससे पहले 'गोलियों की रासलीला: रामलीला' लिख चुके हैं. इस फिल्म के गाने भी इन्होंने ही लिखे हैं. इस फिल्म के एक गाने 'गोरी तु लट्ठ मार' में दीपिका-रणवीर के 'लहू मुंह लग गया' की झलक भी मिलती है.


कमियां

इस फिल्म की सबसे बड़ी परेशानी ये है कि ये अपने विषय के हिसाब से बहुत ही लंबी है. ये फिल्म 2 घंटे 35 मिनट की है जो देखते समय खत्म ही नहीं होती. फिल्म का मुद्दा तो वास्तविक है लेकिन इसका क्लाइमैक्स उतना ही फिल्मी है. फिल्म में एक साथ बहुत सारे मुद्दों को समेटने की कोशिश की गई है और इसी चक्कर में फिल्म बहुत ही ज्यादा लंबी हो गई है. कभी-कभी लगता है कि फिल्म अब खत्म हो जाती चाहिए.



ये फिल्म पीएम मोदी के स्वच्छता अभियान को प्रमोट करने के लिए बनाई गई है जिसे अक्षय कुमार और नीरज पांडे ने प्रोड्यूस किया है. इस फिल्म में कुछ ऐसी भी बातें दिखाई गई हैं जो बहुत ही हास्यास्पद हैं. फिल्म में एक जगह दिखाया गया है कि टॉयलेट स्कीम के लिए फाइलें कई दफ्तरों से होकर गुजरती हैं जिसमें  बहुत समय लगता है. अगर जल्दी काम कराना है तो पहले उन अधिकारियों को सबक सिखाने की जरूरत है. ऐसे में एक डायलॉग आता है, 'अगर हमारे प्रधानमंत्री देश की भलाई के लिए नोटबंदी करा सकते हैं तो हम शौचालय बनवाने के लिए सरकारी अफसरों के टॉयलेट में ताले क्यों नहीं लगवा सकते.' तभी तो उन्हें समझ आएगा और वो काम जल्दी करेंगे. फिल्म में कई जगहों पर सरकार के बचाव वाली ऐसी लाइनें भी देखने को मिलती हैं. यही बात अखरती है कि फिल्म को फिल्म ही रहने देना चाहिए था इसे सरकार के प्रचार का जरिया बनाने की क्या जरूरत थी.


क्यों देखें-


ये एक बहुत ही साधारण सी लव स्टोरी है जो बॉलीवुड की अब तक की फिल्मों से थोड़ी अलग है. इस वीकेंड इसे फैमिली के साथ देखा जा सकता है. यहां एक सामाजिक संदेश भी है और इंटरटेनमेंट भी.