नई दिल्ली: शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्म ‘मुल्क’ की चर्चा इस हफ्ते रिलीज हुई तीन फिल्मों (कारवां, फन्ने खां, मुल्क) में सबसे ज्यादा है. ऐसा क्यों है इसे जानने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरुरत नहीं. साफ है  ‘हिंदू-मुस्लिम’ भारत ही नहीं दुनिया में इस वक्त सबसे हॉट टॉपिक है और 'इस्लामी आतंकवाद' जैसा कुछ सालों से चलन में आया शब्द ये बताता है कि किस तरह आतंकवाद को एक धर्म विशेष से जोड़ा जा रहा है. आज जब देश हिंदू-मुसलमान में बंटता जा रहा रहा है या मुल्क की भाषा में कहें तो 'हम और वो' में बंटता जा रहा है तो ऐसे वक्त में ये फिल्म लोगों के अपने मानकों के हिसाब से तैयार किए गए चश्में पर चढ़ी परत (धूल) को साफ करने में कितनी मदद करेगी ये चश्मा पहने वाले लोगों को तय करना होगा.  एक दर्शक के तौर पर ये तारीफ सिर्फ फिल्म के टॉपिक के लिए है.


अब तक बॉलीवुड को कोई बेहद यादगार फिल्म ना दे पाने वाले डायरेक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘मुल्क’ से काफी उम्मीदें जगी थीं, लेकिन ये फिल्म इसका उदाहरण है कि कैसे बेहद संजीदा और प्रासंगिक स्टोरीलाइन वाली फिल्म को हल्का और लगभग बेअसर किया जा सकता है.



‘मुल्क’ की कहानी ऐसी है कि इस वक्त चल रहे सामाजिक और राजनीतिक समीकरण पर लोगों की सोच को उधेड़ कर रख दे लेकिन एक डायरेक्टर के तौर पर अनुभव सिन्हा की इस फिल्म में कोई ऐसा सीन भी नहीं है जो सिनेमा हॉल से निकले के बाद आपके दिलो-दिमाग पर हावी होती रहे और आप खत्म हो चुकी फिल्म में वापस लौटते रहें.


इस वक्त चारों ओर टीवी डिबेट से लेकर नुक्कड़ तक पर बैठे ज्यादातर लोग मुसलमानों को पानी पी पीकर गरियाते रहते हैं. देश में लोगों के फोन में एक नंबर बिना उनकी जानकारी के सेव हो रहा है इसमें उन्हें कोई इंटरेस्ट नहीं, इंटरेस्ट है तो ये बताने और बतियाने में कि वो लोग गाय खाते हैं और उनके घर में हथियार रहते हैं, हर वक्त 'दंगा रेडी' रहते हैं मुसलमान. ऐसे वक्त में ‘मुल्क’ वो दर्द दिखाने की कोशिश है जो भारत नहीं दुनियाभर के मुसलमान झेल रहे हैं. सोचिए इस स्टोरी लाइन वाली फिल्म से देखने वाले का कलेजा बाहर लाया जा सकता था, लेकिन आप मुल्क के मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) के परिवार के साथ सिंपथाइज्ड फील नहीं करते. एक परिवार जिसके घर की दीवारों पर गो बैक टू पाक, टेररिस्ट लिख दिया जाता है, जिसके घर पर लोग पत्थर फेंकते हैं, जिसके घर की मय्यत पर मुहल्ले का कोई शख्स नहीं आता, वह ये सबकुछ झेल रहा है और यह सब इस परिवार का दुख देखने वाले के दिल में धंस नहीं पाते. बस इतना ही लगता है कि हां गलत हो रहा है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कैसे पावरफुल सीन को हल्के तरीके से दिखाया गया है.



फिल्म के कोर्ट रुम सीन की तारीफ होनी चाहिए. ये वो कोर्ट है जो आपको असल जिंदगी में दिखती है. यह बॉलीवुड की उन सुंदर और चमकीले वुड पॉलिश वाले विटनेस बॉक्स वाली फैंसी कोर्ट से अलग है जो ज्यादतर हिंदी सिनेमा में हमें देखने को मिल जाता है. कोर्ट में आरती मोहम्मद और संतोष आनंद की बहस, दलीलें सच्ची लगती हैं. लेकिन यहां भी कोई डायलॉग आपके दिमाग में घर नहीं कर पाता. फिल्म के ट्रेलर में मुराद अली का ये कहना 'आगर आप मेरी दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में अंतर नहीं कर पा रहे हैं फिर भी मुझे हक है अपनी सुन्नत निभाने का'  काफी असरदार लगता है, लेकिन फिल्म में ये डायलॉग भी कब आकर निकल जाता है, आपको ठीक से याद भी नहीं रह पाता. संतोष आनंद के डायलॉग आपको गुस्सा दिलाएंगे लेकिन ये इस किरदार को निभाने वाले आशुतोष राणा का असर है. उनके बोले शब्द कपोल कल्पना आपके साथ सिनेमा हॉल से घर आएंगे.


इस फिल्म की तारीफ केवल इसलिए होनी चाहिए क्योंकि ऐसे वक्त में इस मुद्दे को लाया गया है जब हम सभी एक बायस से गुजर रहे हैं.  एक 'प्रिज़म्पशन' है हमारे भीतर, समाज के भीतर जिसका ये फिल्म जवाब देती है. ये फिल्म देखी जानी चाहिए इसके मुद्दे के लिए, आतंकवाद को लेकर लोगों में जो सतही समझ है उसे सही और सटीक बनाने के लिए, ये जानने के लिए कि मुसलमानों के समाज से आए कलाम, बिसमिल्लाह खान जैसे लोग अपवाद नहीं हैं और सबसे जरुरी ये समझने के लिए की कैलेंडर में चुनाव की तारीख तो पास नहीं और ये तय करने के लिए कि 'कौन कैसा है.'


यहां देखें फिल्म का ट्रेलर...