कोई पूछे कि कुली नं.1 में सबसे अच्छा कब लगता है तो जवाब होगा, जब फिल्म खत्म होती है. यह मजाक नहीं है. अमेजन प्राइम वीडियो की क्रिसमस के मौके पर रिलीज हुई यह फिल्म निर्देशक डेविड धवन और उनके बेटे वरुण की सबसे कमजोर फिल्मों में से है. इससे लाख गुना बेहतर गोविंदा-करिश्मा कपूर की वह फिल्म थी, जो डेविड ने 1995 में बनाई थी. वैसे आपने वह फिल्म नहीं देखी, तब भी यह कुली नं.1 मनोरंजन के पैमानों पर खरी नहीं उतरती. गोविंदा से दोस्ती खत्म और दुश्मनी शुरू होने के बाद डेविड लगातार यह साबित करने में लगे हैं कि वह अपने बेटे को गोविंदा बना सकते हैं. कुली नं.1 साफ कर देती है कि वरुण एंटरटेनर होने के मामले में गोविंदा के आस-पास नहीं फटकते.


यह कुली नं.1 थोड़े नाम-स्थान परिवर्तन के साथ पुरानी फिल्म के ट्रेक पर ही चलती है. गोवा में होटलों का मालिक, दौलत का लालची जेफ्री रोजेरियो (परेश रावल) जवान बेटियों सारा (सारा अली खान) और अंजू (शिखा तलसानिया) के लिए खरबपति दामाद चाहता है. पंडित जयकिशन (जावेद जाफरी) द्वारा लाए रिश्ते को ठुकराते हुए, वह उसे अपमानित करता है. पंडित कसम खाता है कि जेफ्री की बेटियों को गरीबों के पल्ले बंधवा कर अपमान का बदला लेगा. मिशन दामाद लिए वह मुंबई पहुंचता है. पंडित के हाथों से छूटी सारा की तस्वीर हवा मे उड़ती हुई स्टेशन के कुली राजू (वरुण धवन) के सीने पर गिरती है और वह उस पर फिदा हो जाता है. पंडित राजू को सिंगापुर के राजा महेंद्र प्रताप सिंह का बेटा कुंवर राजप्रताप सिंह बना कर गोवा ले जाता है. अगर आप इतना झेल लें तो आगे का ड्रामा बर्दाश्त करने के लिए बहुत सारे साहस और धैर्य की जरूरत पड़ेगी.



सबसे ज्यादा हैरानी इस पर होती है कि क्या डेविड और वरुण धवन नए जमाने की फिल्में नहीं देखते. गांवों-कस्बों तक में दर्शक अंतरराष्ट्रीय सिनेमा देख रहे हैं. सिनेमा के नए-नए अंदाज-ए-बयां को सराह रहे हैं. अच्छे और गुणवत्तापूर्ण मनोरंजन के प्रति संवेदनशील हो रहे हैं. ऐसे में क्या धवन पिता-पुत्र को अंदाजा नहीं कि सिनेमा किस दिशा में जा रहा है. दर्शक क्या पसंद कर रहे हैं. सोशल मीडिया ने लोगों की सोच-समझ को पर्याप्त धार दे दी है. वाट्सएप युनिवर्सिटी के चुटकुले और वन-लाइनर तक कुली नं.1 के संवादों से ज्यादा पैने और मनोरंजक होते हैं. सच यह भी है कि राइटिंग छोड़ दें तो अपनी निर्देशन कला में डेविड धवन 1990 के दशक से पिछड़े नजर आते हैं. वह कुली नं.1 अगर बेटे को लेकर 1995 जितनी भी बना पाते, तो खुशी होती. मगर दुख है कि वह ऐसा नहीं कर पाए. यह उनके करिअर की 49वीं फिल्म है. जो दर्शकों के लिए किसी बोझ से कम साबित नहीं होती. फिल्म में अपने समय के सिनेमा की सामान्य समझ का भी इस्तेमाल किया जाता तो बेहतर बनती. परंतु ऐसा नहीं हुआ.


यहां कॉमेडी के नाम पर वरुण धवन की उछल-कूद, परेश रावल की लापरवाह अदाएं, जॉनी लीवर का हर पल मटकना और राजपाल यादव का तुतलाना-रोना फिल्म को लगातार नीचे धकेलते हैं. सारा अली खान सिर्फ नेपो-किड हैं और उन्हें ऐक्टिंग नहीं आती. चौथी फिल्म में भी वह पहली फिल्म जितनी कच्ची हैं. यहां उनके रोल में कुछ करने-धरने को भी नहीं था. करिश्मा कपूर की अदाएं, मासूम चंचलता और आंखों की चमक सारा में सिरे से गायब हैं. वाकई अगर किसी बॉलीवुड परिवार से सारा न हों तो उनका करिअर यहीं भरभरा के गिर जाए. फिल्म वरुण के कंधे पर थी और वह बुरी तरह निराश करते हैं. वह कुली दिख सकें, इसलिए उनकी त्वचा के मूल रंग को गहरा करने के वास्ते जो मेक-अप लगाया गया, वह साफ दिखता है. हाव-भाव उनके चेहरे पर ठहरते नहीं और गोविंदा की नकल करने के चक्कर में वह बुरी तरह फिसल गए. शायद इतना ही काफी नहीं था. निर्देशक ने कॉमेडी के नाम पर वरुण से अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती और दिलीप कुमार तक की मिमिक्री करा ली. कुल जमा यहां वरुण में कुछ भी मौलिक नजर नहीं आता और किसी ऐक्टर के लिए इससे खराब कुछ नहीं हो सकता. स्टूडेंट ऑफ द ईयर (2012) से बदलापुर (2015) तक वरुण में जो विविधता दिखी थी, वह इसके बाद लगातार खोती चली गई. कुली नं.1 के साथ वह धूल फांकते हुए चित नजर आते हैं. कुली नं.1 अपनी भव्यता में भले ही मूल फिल्म से बड़ी है मगर उसके आगे इसका कद छोटा है. कहानी-अभिनय-गीत-संगीत में सहजता गायब है. अगर आप वरुण-सारा के बहुत बड़े फैन हैं तभी इस फिल्म को देख सकते हैं.