Bollywood Top 7 Films: बॉलीवुड के गलियारों में एक से बढ़कर एक फिल्में देखने को मिल रहीं हैं. ओटीटी के दौर में असली सितारा वही बन रहा है, जिसकी स्टोरी और डायलॉग्स में जान है, और हम ये भी जानते हैं कि आप भी ऐसी ही फिल्म की तलाश में हैं. लीग से हटकर बनी इन फिल्मों में ड्रामा है, सस्पेंस है, और इमोशन भी हैं, यानी की बोरियत को मिटाने वाली हर वो बात है जिसका आपको इंतजार है. इस लिस्ट में देखिए बॉलीवुड गलियारों में छाई ऐसी ही 7 धमाकेदार सीरीज और फिल्में जो आपका भरपूर मनोरंजन करेंगी.


Sunflower Review
सनफ्लावर सोसायटी में कई खट्टे-मीठे-टढ़े-मेढ़े किरदार हैं. जैसा कि हमेशा होता है, अपराधी के पकड़ में आने तक पुलिस की नजर में तमाम लोग संदिग्ध होते है. यहां भी वही है. सोसायटी का बैचलर सोनू सिंह (सुनील ग्रोवर) प्यारा इंसान है. वह हमेशा राज कपूर की तरह मुस्कराता है. सबको हाय-हैलो बोलता है. प्यार बांटता चलता है. अपने लिए प्यार ढूंढता भी है. वह भोला है मगर तेज है. इसीलिए तो कंपनी में उसे बेस्ट एंप्लॉई, बेस्ट सेल्समैन और बेस्ट बिहेवियर का अवार्ड एक ही साल में मिला. क्या ऐसा सोनू मर्डर कर सकता है? कपूर के सामने वाले फ्लैट में रहने वाला रसायनशास्त्र का प्रो.आहूजा (मुकुल चड्ढा) भी पुलिस-रडार पर हैं क्योंकि दोनों के बीच बात-बात पर झगड़े-मारपीट होती थी. कपूर की घरेलू नौकरानी और बिल्डिंग का सिक्योरिटी गार्ड भी शक के घेरे में हैं. यहां जांच कर रहे पुलिसवाले हैं, इंस्पेक्टर डीजी (रणवीर शौरी) और सब इंस्पेक्टर तांबे (गिरीश कुलकर्णी).



The Last Hour Review
द लास्ट आवर की कहानी पहले-दूसरे एपिसोड में रोचक ढंग से शुरू होती है और रफ्तार भी पकड़ती है. सिक्किम के लोकेशन और उत्तर-पूर्व के कलाकार इसके दृश्यों को नया रंग देते हैं. लेकिन क्रूर यमू नाडु से भागते नायक की कहानी के बीच जीवन-मृत्यु से परे संसार के रहस्यों वाली यह कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, भटकने लगती है. लेखक-निर्देशक की पकड़ ढीली पड़ जाती है. आप पाते हैं कि अचानक मीडिया में यमू नाडु, खूब सारी हत्याओं और क्षेत्र में लड़कियों के असुरक्षित होने की बातें होने लगी हैं. बार-बार हत्याएं और देव का मृतकों के अतीत में झांकना, दोहराव पैदा करने लगते हैं. अमित कुमार यहां से फिल्मी टोटके इस्तेमाल करते हैं. परी और देव समेत अरूप सिंह और उसकी सहायक लिपिका बोरा (शायना गोस्वामी) के बीच प्रेम के ट्रेक शुरू हो जाते हैं. हालांकि ये मुखर नहीं होते और इनकी रफ्तार धीमी है. इसी तरह यमू नाडु और उसका चेला थापा दो बार पुलिस से टकराने के बावजूद बच कर निकल जाते हैं. यह टोटके असर नहीं करते और तभी पता चलता है कि एक रात कॉलेज में डांस कार्यक्रम से लौट रही परी के साथ रेप हो गया. वह मरने के कगार पर है. देव अपनी अतीत में जाने की शक्ति से भी रेप के रहस्य को नहीं सुलझा पाता. बलात्कारी की उसकी तलाश इस कहानी के पहले सीजन के अंत तक जाती है. यानी कहीं से शुरू हुआ पहला सीजन, कहीं जा पहुंचता है.



Kaagaz Review
जी5 पर आई 116 मिनट की इस फिल्म को रोचक बनाए रखने में कड़ी मेहनत की और भरत लाल बनकर लाल बिहारी के जीवन को जीया. फिल्म अलग-अलग मोड़ों से गुजरती हुई बार-बार सवाल करती है कि क्या कागज की कीमत आदमी से ज्यादा है. वह भी तब जबकि आदमी सामने जिंदा खड़ा हो. वह जज जो कचौड़ी देख कर यह जज कर लेता है कि वह किस दुकान की है, आदमी और कागज में फर्क को जज करके फैसला नहीं दे पाता. सिस्टम की फाइल में लगा कागज लोहे की मजबूत जंजीर में बदल जाता है. फिल्म में न्याय व्यवस्था से जुड़े करदार स्वीकार करते हैं कि हमारा सिस्टम आम आदमी के उत्पीड़न का हथियार बन गया है. वह 1980-90 का दौर था, जहां जाने कितने भ्रष्ट लेखपालों/रजिस्ट्रार ने रिश्वत लेकर जाने कितने जिंदा लोगों को अपनी कलम से मार दिया. आज ऑन लाइन दौर में भी अपने जिंदा होने के सुबूत के तौर पर बार-बार लगने वाले आधार, पैन, ड्राइविंग लाइसेंस, बिजली बिल, रेंट एग्रिमेंट से लेकर पासपोर्ट की इतनी फोटो कॉपियां करानी पड़ती है कि आम आदमी कागजी लतीफा लगने लगता है.



The White tiger Review
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म द व्हाइट टाइगर (The White Tiger) 2008 में देश-दुनिया में चर्चित हुए अरविंद अडिगा के इसी नाम वाले अंग्रेजी उपन्यास का फिल्मी रूपांतरण है. रमीन बहरानी ने इसे स्क्रीन के लिए लिखा और निर्देशित किया है. किताब को पर्दे पर उतारना आसान नहीं होता मगर रमीन यहां बहुत हद तक कामयाब रहे हैं. निश्चित ही इसमें उन्हें तीनों मुख्य ऐक्टरों का जबर्दस्त सहयोग मिला है. खास तौर पर आदर्श गौरव शुरू से अंत तक छाए हुए हैं. हाव-भाव-संवादों के साथ वह अपने किरदार में डूब गए हैं. प्रियंका चोपड़ा अपनी सीमित भूमिका में प्रभाव छोड़ती हैं और राजकुमार राव प्रतिभा-प्रतिष्ठा के अनुरूप काम कर जाते हैं. कैमरे ने भी अपना काम बखूबी किया है.



Ok Computer Review
करीब पौन-पौन घंटे की छह कड़ियों वाली ओके कंप्यूटर देखते हुए आपको खुद से नकली बुद्धिजीवी होने का ढोंग करते रहना पड़ेगा वर्ना आत्मा की आवाज सुन कर तो इसे बीच में ही बंद कर देंगे. वेबसीरीज में न ढंग की कहानी है, न संवाद और न कलाकारों का अभिनय. हालांकि कलाकार कम दोषी हैं. असली जिम्मेदारी लेखकों-निर्देशकों की है. 2013 में एक खास दर्शक वर्ग द्वारा खूब सराही गई फिल्म ‘शिप ऑफ थीसियस’ से आनंद गांधी ने नाम कमाया था. फिर तुंबाड (2018) जैसी सफल फिल्म से जुड़े मगर उसी साल ‘हेलीकॉप्टर एला’ जैसी बोर फिल्म भी उन्होंने दी. ओके कंप्यूटर में वह क्रिएटर प्रोड्यूसर है. इसकी कहानी उन्होंने निर्देशक जोड़ी पूजा शेट्टी-नील पागेडार के साथ मिलकर लिखी है. आनंद गांधी के रिकॉर्ड से साफ है कि उनके पास आम दर्शकों के लायक कुछ नहीं है. अध्यात्म-केंद्रित अति-बौद्धिकता उनकी रचना प्रक्रिया के केंद्र में है.



Decoupled Review
पूरी कहानी कॉमिक और रोमांटिक टोन में कही गई है.लेकिन सतह के नीचे बीच-बीच में कामुक संदर्भ आते हुए कहानी पर एडल्ट मार्क लगाते हैं. लगभग आधे-आधे घंटे के आठ एपिसोड का फॉर्मेट थोड़ा टीवी सीरियल और थोड़ा सिटकॉम जैसा है. हर एपिसोड इस जोड़े के बीच कोई नई समस्या, किसी नए ड्रामे से रू-ब-रू कराता है. दोनों का विवाहेतर संबंधों की तलाश करना भी समानांतर चलता है. धीरे-धीरे बात बढ़ती है और आखिर में आर्या और श्रुति तय करते हैं कि वे गोवा में दोस्तों और परिवार के साथ जश्न मनाते हुए अपने अलगाव को अंजाम देंगे.