मुग़ल-ए-आज़म के लिए इस शख्स ने खर्च कर दी थी अपनी सारी दौलत, फिल्म ने रचा भारतीय सिनेमा का इतिहास
जब तक हिंदी सिनेमा रहेगा. तब तक मुगल ए आजम का ज़िक्र होता रहेगा. जब भी हिंदी सिनेमा का इतिहास याद किया जाता है. तब एक फिल्म का नाम ज़ुबा से निकलता है.
मुगल प्रिंस सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी को के. आसिफ प्रेम की चाशनी में डूबो कर इस तरह पेश किया कि ये फिल्म भारत की महानतम फिल्मों में शामिल हो गई. के. आफिस ने इसे पूरी तल्लीनता के साथ बनाया और किसी भी किस्म का समझौता नहीं किया. भारतीय सिनेमा में जब भी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म का नाम लिया जाता है. उस हिंदी सिनेमा की भव्यता का ज़िक्र होता है. मुग़ल-ए-आज़म फिल्म ही नहीं इतिहास है.
जब तक हिंदी सिनेमा रहेगा. तब तक मुगल ए आजम का ज़िक्र होता रहेगा. जब भी हिंदी सिनेमा का इतिहास याद किया जाता है. तब एक फिल्म का नाम ज़ुबा से निकलता है. उस फिल्म का नाम है मुगल ए आज़म शानदार, बेमिसाल और लाजवाब मुगल ए आज़म की जिनती भी तारीफ की जाएं उतनी ही कम है. तारीख गवाह है कि ऐसी फिल्म सौ साल में शायद एक ही बार बनती है.
फिल्म मुगल सल्तनत के शहज़ादे सलीम और एक मामूली सी कनीज़ अनारकली की अधूरी मोहब्बत की दास्तां है. ये दो आशिक अपनी मोहब्बत की राह में आने वाली हर मुश्किल को पार कर एक ऐसे मुकाम पर पहुंच जाते है. जहां वो एक दूसरे की बाहों में दम तोडने के लिए भी तैयार रहते है, लेकिन इन दोनो की मोहब्बत के बीच खडी हो जाती मुगलो की आन बान और शान शहंशाह अकबर. मुगले ए आज़म में एक तरफ है मुगलो की हूकूमत और सख्त कानून और दूसरी तरफ सलीम और अनारकली का बेशुमार इश्क.
इस फिल्म ने सलीम और अनारकली की मोहब्बत को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया, लेकिन पर्दे पर जितनी शिद्दत इनकी मोहब्बत में दिखी है. उससे कहीं ज्यादा शिद्दत इस फिल्म को बनाने वाले डायरेक्टर में थी. जिन्होने अपनी आंखो में सजाए प्यार के इस अफसाने को सुनहरे पर्दे पर फिर से जिंदा करने की कमस खाई थी और वो महान हस्ती जिन्होने हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी फिल्म बनाने के बारे में सोचा वो थे. करीमुद्दीना आसिफ जिन्हें लोग के आसिफ के नाम से भी जानते है.
के. आसिफ़ इस फिल्म को अपने जीवन का महान् स्वप्न बनाने के लिए उन्होंने बहुत पापड़ भी बेले, मगर फिल्म के नायक गुरुदत्त की असमय मौत के कारण फिल्म रुक गई. मोहब्बत को के. आसिफ कायनात की सबसे बड़ी दौलत मानते थे. नौशाद फिल्म के लिए बड़े गुलाम अली साहब की आवाज़ चाहते थे, लेकिन गुलाम अली साहब ने ये कहकर मना कर दिया कि वो फिल्मों के लिए नहीं गाते. लेकिन आसिफ ज़िद पर अड़ गए कि गाना तो उनकी ही आवाज में रिकॉर्ड होगा. उनको मना करने के लिए गुलाम साहब ने कह दिया कि वो एक गाने के 25000 रुपये लेंगे. उस दौर में लता मंगेशकर और रफ़ी जैसे गायकों को एक गाने के लिए 300 से 400 रुपये मिलते थे.