Dolly Kitty Aur Woh Chamakte Sitare Review: अंधेरे से डर तो लगता है लेकिन सितारे रात में ही चमकते हैं. अंधेरे से डर इसलिए लगता है कि इसके पंजे अचानक निकल कर नोंच लेते हैं. तब क्या अंधेरे से लड़ा ही न जाए. क्या सितारों की चमक से प्यार ही न किया जाए. बिहार के दरभंगा से देश की राजधानी दिल्ली के दमकते पड़ोस ग्रेटर नोएडा में रह रहीं चचेरी बहनें डॉली और किट्टी अपनी जिंदगी के अंधेरों में सितारों की चमक ढूंढ़ती हैं. घायल होती हैं. रोती हैं. गलतियां करती हैं. सुधारती हैं. भटकती हैं लेकिन अपनी राह खुद बनाने की जिद नहीं छोड़तीं. यह नई सदी में बदल चुकी 2020 की आधी दुनिया है. जो डरती तो है मगर हार नहीं मानती. दिल की सुनती है. दिल की करती है. ऐसा करके वह क्या गलत करती हैॽ


निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव 2016 में लिपस्टिक अंडर माई बुर्का जैसी फिल्म बना कर चर्चित हो चुकी हैं. डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे में भी वह बैकवर्ड क्लास के मध्यमवर्ग-निम्न मध्यमवर्ग की दहलीज पर अंदर-बाहर की दुनिया के संघर्षों में डटी स्त्रियों की कहानी लाई हैं. मगर यहां कहानी के सिरे बेडरूम के असंतोष से खुलते हैं और घटनाएं इनके इर्द-गिर्द दर्ज होती हैं. डॉली (कोंकणा सेन शर्मा) के घर नोएडा में उसकी चचेरी बहन काजल उर्फ किट्टी (भूमि पेडनेकर) आई है. उसे यहां नौकरी लगी है. जीजा की नजर किट्टी पर है. वह किट्टी से कहता है कि अनारकली के बिना मुगल-ए-आजम बनी है क्याॽ परंतु किट्टी को नहीं बनना अनारकली. वह डॉली से बताती है कि अमित जीजू हमारे साथ सेक्स करना चाहते हैं.



डॉली का जवाब है कि यह दोष तो 21 प्लस किट्टी की उम्र का है क्योंकि इस उम्र में हारमोन की बरसात हो रही होती है, जिससे कनफ्यूजन पैदा होता है. अंततः किट्टी डॉली का घर और जीजा की दिलाई नौकरी छोड़ देती है. नया काम ढूंढती है. रेड रोज रोमांस एप के कॉल सेंटर में, जहां नंबर घुमाने वाला हर चौथा आदमी फोन सेक्स चाहता है. जबकि किट्टी ने किसी को कभी आई लव यू तक नहीं बोला. बावजूद इसके अंधेरी जगमग रातों में फोन पर प्यार की बातें चालू रहती हैं. अब इसे मजबूरी कहिए या फिर मर्जी से चुना पेशा.


डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे में हम पुरुष की घोटालेबाज और हवस भरी दुनिया के साथ वह स्त्री भी देखते हैं, जो आदर्श-फ्रेम में फिट नहीं बैठती. एक तरफ डॉली है, जो खूब शो-ऑफ करती है. दूसरों को देखकर कुंठित होती है. चादर से ज्यादा पैर पसारती है. बच्चों से ज्यादा ध्यान घर आए डिलेवरी बॉय पर देती है. शराब पीती है. उसके दांपत्य जीवन से रस विदा हो चुका है. पति भी नीरस-उदासीन हो गया है.


दूसरी तरफ किट्टी अपने संस्कारों में तोड़-फोड़ कर बिंदास यहां-वहां घूम रही है. सिगरेट पी रही है. शराब पी रही है. पुरुषों को खुश करने वाली पार्टियों में जा रही है. अपनी इच्छाओं का दमन करना उसने बंद कर दिया है. वह पैरों पर खड़ी है. किसी से बंधी नहीं है. वह चाहती है कि उसे कोई प्यार करे. वह किसी को अपनी मर्जी से भी प्यार करना चाहती है.



डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे हमें दो और तस्वीरें दिखाती है. एक यह कि छोटे शहर वालों में बड़े शहरों की लाइफ स्टाइल के प्रति कैसा भय मिश्रित आकर्षण होता है. दूसरी तस्वीर यह कि कैसे वह डर बीयर की बोतल के छन्न की आवाज से खुले ढक्कन की तरह एक पल में उड़ जाता है. तब कुछ देर के लिए लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया.


फिर धीरे-धीरे झाग नीचे बैठता है और गिलास में उंडेली बीयर में छोटी-छोटी चमकदार बूंदे सितारों की तरह तैरने लगती हैं. ऐसे जीवन में काउंसिलिंग और थैरेपी की कोई जगह नहीं है. जिंदगी का हर दिन काउंसिलिंग और थैरेपी के साथ जीया भी नहीं जा सकता. समय अपने हिसाब से हर टूट-फूट को अंततः समतल बना देता है. कुल जमा डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे हमारे आज का सिनेमा है. आप चाहें या न चाहें, इसका सामना करना है. आप नजरें नहीं चुरा सकते.



अलंकृता श्रीवास्तव ने कहानी पर पकड़ तो बनाए रखी परंतु यहां रफ्तार की थोड़ी समस्या है. कभी बात धीमी हो जाती है और कभी रफ्तार से बढ़ जाती है. पटकथा में ठेठ रीयलिज्म के बीच कहीं-कहीं कुछ आर्टीफिशिल आ जाता है. इन बातों का संतुलन फिल्म को अधिक बेहतर बना सकता था. जहां तक अभिनय का मामला है तो कोंकणा सेन शर्मा बेहद सहज और मंजी हुई हैं. वह डॉली उर्फ मिसेज यादव ही बन गई हैं. यह उनका एक और याद रखने योग्य रोल है. जबकि भूमि पेडनेकर कई बार अपने किरदार को संभालने की कोशिश में अतिरिक्त प्रयास करती हैं. विक्रांत मैसी और अनमोल पाराशर ने अपने रोल बखूबी निभाए हैं.