दीवाली पर भूत-प्रेत की कहानी लाई अक्षय कुमार स्टारर लक्ष्मी ने निराश किया था. ऐसे में हॉरर-थ्रिलर दुर्गामती पर नजरें थी कि शायद यह डर में मजा लेने वालों का मनोरंजन करेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अमेजन प्राइम वीडियो पर आई दुर्गामती भी इस मामले में कमजोर साबित हुई. यह तमिल-तेलुगु फिल्म भागमती (2018) का हिंदी रीमेक है. दुर्गामती को देखने के लिए मजबूत दिल चाहिए. ढीली, बिखरी कहानी और तमाम किरदारों को जरूरत से ज्यादा सरल बना देने वाली यह फिल्म अंत आने से पहले ही निराश करने लगती है. फिल्म में दुर्गामती गुजरे जमाने की एक रानी है, जिसका प्रेत आज भी गांव की पुरानी हवेली/महल में रह रहा है. लेखक-निर्देशक जी. अशोक ने यहां दुर्गामती के बहाने आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार की कहानी दिखाने की कोशिश की है. जिसमें लोगों की नजरों में भगवान का दर्जा पाए नेता ईश्वर प्रसाद (अरशद वारसी) को उसकी ही पार्टी भ्रष्ट साबित करने पर तुली है.
लेखक-निर्देशक का विश्वास है कि आज के जमाने में इंसान ने इंसान पर भरोसा करना छोड़ दिया है इसलिए एक राजनेता के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने के लिए ईश्वर और भूत-प्रेत को लाने की जरूरत पड़ी. वह यहां घटनाओं को साइंस की सीमा से बाहर और तंत्र-मंत्र की परिधि में ले गए हैं. दुर्गामती जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इसमें तर्क की गुंजायश पीछे छूटती जाती है. यह हॉरर और थ्रिलर के दायरे से बाहर निकलकर कमजोर फिल्म में बदलती जाती है. भूमि पेडनेकर को आईएएस अफसर से लेकर विखंडित व्यक्तित्व की शिकार दिखाने से ही लेखक-निर्देशक का मन नहीं भरा. तब दुर्गामती बन जाने वाली भूमि का इलाज करने आए मनोचिकित्सक से उसकी स्थिति के बारे में ‘काकोरहाफियोफोबिया’ जैसा शब्द कहलाया गया, जिसका मतलब बताया गया है नाकामी या पराजय का डर. जबकि सच यह है कि इस जगह तक आते-आते दर्शक के लिए दुर्गामती खुद एक फोबिया में बदल जाती है.
दुर्गामती की कहानी कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा टाइप की है. अशोक किसी ठोस हॉरर प्लॉट के अभाव में कई किरदारों और बातों को लेकर कहानी गढ़ते हैं. फिल्म की पटकथा में न प्रवाह है और न प्रभाव. उन्होंने राजनेता, आईएएस अफसर, सीबीआई, अमेरिका रिटर्न सोशल एक्टिविस्ट, गांवों का जल संकट, बांध प्रोजेक्ट, कारपोरेट, मंदिरों से देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां चोरी होना, पुराना महल, जेल में क्लाइमेक्स से लेकर तमाम चालू नुस्खे आजमाए हैं. वह कुछ नया नहीं दिखाते. दुर्गामती के हॉरर के बीच कहानी में राजनीति का लचर ट्रेक है. फिल्म पहले आईएएस चंचल चौहान (भूमि पेडनेकर) की तरफ झुकी रहती है और फिर ईश्वर प्रसाद की तरफ झुक जाती है. मजबूत किरदार वाला यह नेता अंत आते-आते इस संवाद के साथ सबकी नजरों से गिर जाता है कि मैं अपनी आगे की जिंदगी पार्टियां बदल-बदल कर नहीं लड़कियां बदल-बदल कर जीना चाहता हूं.
दुर्गामती में इक्का-दुक्का हॉरर दृश्यों को छोड़ दें तो कुछ नहीं चौंकाता. तमाम दृश्यों में नयापन नहीं है. गीत-संगीत-सैट डिजाइनिंग और सिनेमैटोग्राफी में भी कुछ विशेष उल्लेखनीय नहीं है. जबकि इन सबके अच्छे इस्तेमाल से बढ़िया प्रभाव पैदा किए जा सकते थे. करीब ढाई घंटे की दुर्गामती में आधी फिल्म गुजरने पर कुछ रहस्यों पर से पर्दे उठने शुरू होते हैं लेकिन उनसे पैदा होने वाली जिज्ञासा अधिक नहीं टिकती. निर्देशक ने हॉरर के नाम पर जरूरत से ज्यादा ड्रामा रचा है और भूमि का अधिकतर रोल रंगमंच के सैट जैसे दृश्यों में बिखर गया. भूमि कतई प्रभावित नहीं करतीं. न अपने लुक में और न ही अभिनय से. सच यह है कि बाकी कलाकारों के हिस्से भी परफॉर्म करने को कुछ खास नहीं था. अरशद वारसी, जिशु सेनगुप्ता और माही गिल यहां बेकार गए. उस पर थोड़ी कॉमेडी के लिहाज से भुतहा हवेली के चौकीदार के रूप में शोले के ठाकुर जैसे बिना हाथों वाले चौकीदार का किरदार भी रचा गया, जो एक बार भागने के बाद वापस नहीं दिखता.
लेखक-निर्देशक पूरी फिल्म में यह स्पष्ट नहीं कर पाते कि वह इस जमाने में साइंस के तरक्की के साथ हैं या तंत्र-मंत्र के साथ. इसी तरह न यह साफ हो पाता है कि फिल्म डराने के लिए रची गई कहानी है या एक राजनेता की पोल खोलने के लिए रचा गया ड्रामा. अशोक की दुविधा हर स्तर पर नजर आती है. जब वही कनफ्यूज हैं तो यह कैसे संभव है कि दर्शकों का मनोरंजन कर सकें. दुर्गामती एक अच्छी फिल्म देखने की प्यास को नहीं बुझा नहीं पाती. उल्टे आपका समय अधिक लेती है. जिसमें आप कुछ और बेहतर कर सकते हैं.