80 के दशक में फिल्में सिनेमाघरों तक पहुंचने से पहले वीएचएस के जरिए घर घर पहुंचाई जाती थीं. बासु चटर्जी ने अपने पराए और मनपसंद जैसी फिल्में बनाईं. निर्देशक के तौर पर इसी साल गायक किशोर कुमार की फिल्म दूर वादियों में कहीं, असरानी निर्देशित फिल्म हम नहीं सुधरेंगे और डैनी निर्देशित फिर वही रात भी रिलीज हुईं.



आर्ट और कमर्शियल फिल्मों की इस समानांतर चलती पटरियों के बीच की दो फिल्में इस साल गौर करने लायक रही हैं, पहली ऋषिकेश मुखर्जी की रेखा के साथ बनी फिल्म खूबसूरत और दूसरी देव आनंद के साथ बनी बासु चटर्जी की फिल्म मनपसंद. बासु चटर्जी को अमोल पालेकर के साथ तीन हिट फिल्में बनाने के साथ ही ये समझ आ गया था कि फिल्म में जब तक मौजूदा दौर का बड़ा सितारा न हो, फिल्म बेचने में बहुत दिक्कत आती है. बासु चटर्जी की गिनती ऐसे फिल्मकार के रूप में होती रही जो या तो किसी मशहूर कहानी पर फिल्म बनाते हैं या फिर किसी चर्चित फिल्म की रीमेक और, यही पहचान उनकी फिल्म मनपसंद में भी कायम रही.



फिल्म मनपसंद की कहानी शुरू होती है प्रताप की प्रयोगशाला में. जहां 57 साल के देवआनंद प्रताप के किरदार में अपने दोस्त काशीनाथ (गिरीश कर्नाड) को अपनी एक मशीन के बारे में बता रहे हैं. काशीनाथ और प्रताप के बीच एक पार्टी में शर्त लगती है कि अगर कोई ऐसी लड़की प्रताप ढूंढ सके जो गाती अच्छा हो और जिसकी सूरत सीरत भी अच्छी हो तो काशीनाथ उससे शादी कर लेगा. दोनों को ट्रेन में एक दातून बेचने वाली (टीना मुनीम) मिलती हैं जिसमें प्रताप को काशीनाथ की भविष्य की पत्नी नजर आने लगती है. फिल्म में देव आनंद, गिरीश कर्नाड और टीना मुनीम से ज्यादा दमदार किरदार महमूद का लगता है, जो कमली के पिता के किरदार में हैं. फिल्म में बासु चटर्जी ने इन पर एक आइटम गाना भी फिल्माया जो गाया भी खुद महमूद ने ही है- किस्मत की जेब में अंगूठा नसीब का.



निर्देशक बासु चटर्जी को वैसे तो अपनी हर फिल्म की कास्टिंग के लिए बहुत तारीफ मिली है, लेकिन फिल्म मनपसंद में उनका ये तिलिस्म भी टूट गया. असल में वो ऐसे आर्ट फिल्म डायरेक्टर थे जो कमर्शियल सिनेमा बनाने में अधिकतर फेल ही हुए.



फिल्म मनपसंद में सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए अगर कुछ सीखने लायक है तो वह है इसकी एडीटिंग. फिल्म एक सीन से होकर दूसरे सीन में तैरती सी चलती है. कहीं कोई जर्क नहीं. फिल्म में एडीटिंग का कमाल है बाबू शेख का जो देव आनंद के पसंदीदा फिल्म एडीटर रहे और उनकी तमाम फिल्में भी उन्होंने ही एडिट कीं. बाबू शेख की इस एडीटिंग के साथ साथ तारीफ फिल्म की पटकथा की भी करनी बनती है जो खुद बासु चटर्जी ने लिखी. संवाद भी फिल्म में उन्हीं के है लेकिन फिल्म में कहानी किसकी है ये फिल्म के ओपनिंग क्रेडिट्स से पता नहीं चलता.