निर्देशकः कुणाल कोहली
कलाकारः ऋचा चड्ढा, अरुणोदय सिंह, करिश्मा तन्ना, खालिद सिद्दिकी
रेटिंग- ***
लाहौर कॉन्फिडेंशियल में एक भारतीय डिप्लोमेट भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के बारे में कहता है कि हम लोग बूढ़े पति-पत्नी की तरह हैं, एक-दूसरे से नफरत करते हैं मगर साथ रहते हैं. अंग्रेजों से देश की आजादी और पाकिस्तान को बने करीब 75 बरस हो रहे हैं. ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 की यह ओरीजनल फिल्म दोनों देशों के बीच तनातनी, धोखेबाजी, खुफियागिरी और ‘हनी ट्रैप’ की नई कहानी है. जिसमें पाकिस्तान की जमीन पर पनपा नया आतंकी सरगना वसीम अहमद खान भारत में खूनी धमाके कराने की योजनाओं पर काम करता रहता है. पाकिस्तान में भारतीय एजेंटों/राजनयिकों की हत्याएं करता है. हमेशा की तरह इस आतंकी को दहशतगर्द संगठनों के संग पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का भी साथ मिलता है. दूसरी तरफ दिल्ली में रॉ का दफ्तर आतंकियों को फंडिंग करने वाले इस आतंकी सरगना की खोज में है. चूंकि दोनों तरफ के राजनयिक एक-दूसरे को पहचानते हैं, इसलिए रॉ लंबे समय से दिल्ली में मीडिया अटैची के रूप में काम कर रही अनन्या (ऋचा चड्ढा) को लाहौर भेजता है. अनन्या शायर मिजाज है. संवेदनशील और छोटी-छोटी बात पर इमोशनल हो जाने वाली. उसे बताया जाता है कि वह लाहौर जाकर रुचि के अनुसार अपने समय के पाकिस्तानी शायरों पर किताब लिख सकेगी. अनन्या जाती है मगर उसे पता नहीं कि किस जासूसी योजना के तहत रॉ ने उसे भेजा है.
बेहद कसी करीब एक घंटे दस मिनट की यह फिल्म तेज रफ्तार से बढ़ती है और शुरू से अंत तक रोमांच को बरकरार रखती है. एस. हुसैन जैदी के फिल्मी आइडिये को विभा सिंह ने लिखा है. कुणाल कोहली ने निर्देशन की बागडोर कुशलता से संभाली है और फिल्म को संपादन द्वारा चुस्त-दुरुस्त बनाए रखा है. लाहौर कॉन्फिडेंशियल की अच्छी बात यह है कि इसमें लो-टोन में तमाम बातें कही गई है. चाहे एक-दूसरे के यहां सेंध लगाने की कोशिशें हो या मोहब्बत का ड्रामा. जो असल में ‘हनी ट्रैप’ है. रॉ की कोशिश है कि अपनी महिला एजेंट के जाल में पाकिस्तानी अधिकारियों/रसूखदारों को फंसा कर खबरें निकाली जाए तो दूसरी तरफ आईएसआई कोशिश करती है कि पाकिस्तानी ‘पठान’ भारतीय दूतावास की महिला एजेंट को अपने आकर्षण में उलझा कर खुफिया खबरें पा लें. इस लिहाज से लाहौर कॉन्फिडेंशियल अब तक भारत-पाक पर आई फिल्मों में अलग है. निर्देशक ने यहां फिल्म में देशभक्ति या पाकिस्तान विरोध को नारेबाजी में बदला. साथ ही वह ऐसे लोगों की कहानी कहते हैं जो देश के लिए दुश्मन की जमीन पर अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं. इसका न उन्हें श्रेय मिलेगा और मुआवजा. यही सच्चा देश प्रेम है. यही अपने लोगों से सच्ची मोहब्बत है.
फिल्म मुख्य रूप से ऋचा चड्ढा और अरुणोदय सिंह के परफॉरमेंस पर खड़ी है. दोनों ने अपनी भूमिकाएं खूबसूरती से निभाई हैं. खास तौर पर ऋचा ने अपने चेहरे के हाव-भाव और बॉडी लैंग्वेज को किरदार के अनुरूप साधे रखा है. वह यहां ऐसी सीधी-सरल युवती हैं, जिसकी उम्र लगातार बढ़ रही है और मां को उसकी शादी की चिंता सता रही है. हालांकि ऋचा के शायराना मिजाज के बावजूद अरुणोदय ज्यादातर शायरी बोलते हैं. भारतीय एजेंट अनन्या और पाकिस्तानी इवेंट मैनेजर रौफ अहमद काजमी (अरुणोदय) के बीच कथित इश्क तेजी से परवान चढ़ता है. तब भी ‘हम नहीं मौत से मरने वाले, तू देख/हम तेरे दिल में बसर करते हैं’ जैसा दावा करने वाले इस प्रेम की परतें जल्द खुलने लगती है.
करिश्मा तन्ना का किरदार रोचक और फिल्म की तमाम सादगी के बीच बोल्ड है. वही कहानी में तड़का लगाती हैं. यह जरूर है कि पाकिस्तान में भारतीय इंटेलिजेंस अफसर के रूप में उनके किरदार का एक ही शेड है और उन्हें स्क्रीन पर कम मौका मिला है. फिर भी वह छाप छोड़ती हैं. लाहौर कॉन्फिडेंशियल जैसी फिल्मों में आपको पता होता है कि जो दिख रहा है, वह सच नहीं है. जल्द ही कुछ अप्रत्याशित आने वाला है. यहां फिल्म के कसे होने से दर्शक को सोचने का अधिक मौका नहीं मिलता, लेकिन अंत आते-आते लगता है कि निर्देशक ने किस्सा तमाम करने में थोड़ी जल्दबाजी की.
जी5 पिछले साल कोरोना के चरम दौर में लंदन कॉन्फिडेंशियल लाया था और वहां वायरस की बातों के बीच चीन की खुफियागिरी को उजागर किया गया था. छोटी और कसी हुई कहानियों का यह अच्छा सिलसिला है, जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है. लाहौर कॉन्फिडेंशियल में चूंकि ऋचा का किरदार शायराना है और अरुणोदय भी उसी मिजाज के हैं, तो आप कुछ उम्दा शायरी की उम्मीद करते हैं. उसका अभाव यहां खटकता है. इसी तरह गीत-संगीत को भी पंजाबी रंग-ढंग में सीमित कर दिया गया. जबकि यहां बढ़िया गजलों की खूब गुंजायश थी. हिंदी फिल्मों में गजल की वापसी का संगीत प्रेमियों को इंतजार है. कार्तिक गणेश का कैमरा वर्क बढ़िया है. लाहौर कॉन्फिडेंशियल हमारे वर्तमान का सिनेमा है, जब सीमा के इधर और उधर रिश्तों में विश्वास खत्म हो चुका है. मुफलिसी और तमाम संकटों के घोर अंधेरों में डूबा पाकिस्तान अपने दिमाग की बत्ती जलाने को राजी नहीं है. वह टेढ़ी पूंछ ही बना रहना चाहता है.