यह कौन तय करेगा कि मरने के बाद किसे स्वर्ग मिलेगा और किसे नर्क. दुनिया में अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, दुख-सुख की तमाम अवधारणाएं हैं. हकीकत में ये कुछ भी सच नहीं हैं. ईश्वर की बनाई दुनिया में न कुछ सकारात्मक है और न नकारात्मक. जो जैसा है, वैसा है या फिर मिक्स है. काले में सफेद है और सफेद में काला छुपा है. यह दुनिया कुछ नहीं, सिर्फ खेल है लूडो का. जिसमें मृत्यु के देवता यमराज अपने सहायक चित्रगुप्त के साथ बैठ कर पासे फेंक रहे हैं. शायरों ने इस रहस्य को समझ कर ही शायद दुनिया को बच्चों का खेल कहा है. न कोई अच्छा है, न बुरा. सब लूडो की गोटियों की तरह जिंदगी की रंग-बिरंगी बिसात पर चल रहे हैं. सारा खेल टाइमिंग का है. फिल्म लूडो में यमराज कहते हैं: हम सबके अंदर एक शैतान छुपा होता है. ठीक सोडा बॉटल के अंदर के बुलबुलों की तरह. बस ढक्कन खुलने की देर है.
लूडो भी यही बताती है. जिंदगी क्या है, बुलबुला है. चार कहानियां और उनके किरदार अलग-अलग जगहों पर बुलबुलों की तरह उभरते हैं और जिंदगी-मौत, सुख-दुख और ट्रेजडी-कॉमेडी के झूले झूलते हैं. लेखक-निर्देशक अनुराग बसु की यह फिल्म एक खूबसूरत कोलाज है. जिसमें प्रेम, दांपत्य, सेक्स, हत्या, छल, झूठ और कपट की उजली-अंधेरी दुनिया है. दुनिया की नरम-गरम तबीयत दिखाती लूडो में कुख्यात अपराधी सत्तू भाई (पंकज त्रिपाठी) द्वारा बिल्डर भिंडर के मर्डर के साथ खेल शुरू होता है. लूडो की इस बिसात पर समानांतर समय में चार अलग-अलग कहानियां चलती हुईं एक ही मोड़ पर पहुंचती हैं.
भिंडर के मर्डर की जगह पर पहुंचा एक युवा सत्तू भाई के हाथ पड़ जाता है. वहीं सत्तू भाई का एक दोस्त अपनी खूबसूरत पत्नी को छोड़ गैर-स्त्री साथ रात बिताने पहुंचता है. एक महत्वाकांक्षी लड़की की अमीर घराने में शादी हो रही है और अचानक एक्स-बॉयफ्रेंड के संग बना उसका सेक्स-वीडियो पोर्नसाइट पर अपलोड होकर वायरल होता है. बॉयफ्रेंड चाहता है कि लड़की पुलिस में शिकायत करे तो चोरी-छिपे वीडियो बनाने वाले को सजा हो. एक अपराधी छह साल बाद जेल से लौटकर पाता है कि पत्नी उसके बेस्ट फ्रेंड से शादी रचा ली है. एक नन्हीं बच्ची अपने माता-पिता द्वारा समय न दिए जाने से उदास होकर अपने अपहरण का नाटक रचती है. ये तमाम किरदार और इनकी जिंदगी के हादसे एक-दूसरे की राहों से गुजरते हुए अंत में एक मुकाम पर पहुंचते हैं और फिर उनकी जिंदगी नए सिरे से अलग-अलग राहें पकड़ लेती हैं.
लूडो की बुनावट रोचक है और कहानियां फार्मूलों से अलग. अनुराग बसु ने इन्हें लिखने और पर्दे पर उतारने में मेहनत की है, यह साफ नजर आता है. रिश्तों के सुख-दुख के धागों से इन कहानियों को उन्होंने बुना है. कभी ये रिश्ते मैजिक जगाते हैं तो कभी ट्रैजिक हो जाते हैं. खास तौर पर राजकुमार राव-फातिमा सना शेख और आदित्य रॉय कपूर-सान्या मल्होत्रा की कहानियां कभी हां कभी ना वाले अंदाज में एंटरटेन करती हैं. इन चारों कलाकारों ने यहां अपना बेस्ट दिया है. लेकिन पंकज त्रिपाठी अपने अंदाज से मोह लेते हैं. बेझिझक-बेखौफ एक के बाद एक खून करने वाले इस शायराना अंदाज वाले हत्यारे के बारे में लगता है कि तमाम दुर्घटनाओं में मौत के मुंह में जाने के बावजूद इसे जिंदगी का एक्सटेंशन मिलता जा रहा है. यह बात चौंकाती है. अभिषेक बच्चन इन शानदार अदाकारों के बीच दुर्भाग्यशाली रहे कि उनकी कहानी सबसे फीकी है. अपने लुक में अभिषेक यहां मणिरत्न की युवा की याद दिलाते हैं और कम से कम संवाद बोलते हैं. खामोश रह कर प्रभाव छोड़ने की उनकी कोशिश असर पैदा नहीं करती. अन्य कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं को बखूबी निभाया है.
नेटफ्लिक्स पर आई लूडो हाल के समय की उन फिल्मों में है, जिनमें निर्देशक ने नए अंदाज-ए-बयां का जोखिम उठाया और कामयाब रहे. खुद अनुराग बसु भी पर्दे पर नजर आते हैं मगर थोड़ी कोशिश के बाद ही उन्हें पहचाना जा सकता है. यह फिल्म का ताना-बाना भले ही बच्चों के खेल लूडो पर आधारित है परंतु यह बच्चों के लिए नहीं है. फिल्म में कसावट है और इसे अच्छे ढंग से संपादित किया गया है. अनुराग ने इन अपराध कथाओं के डार्क होने के बावजूद उनमें बर्फी और जग्गा जासूस जैसे ह्यूमर को बनाए रखा. यह फिल्म की खूबसूरती है. ह्यूमर के कारण कहानी का भारीपन खत्म हो जाता है और आप उससे सहज ही जुड़ जाते हैं. फिल्म का गीत-संगीत कथा-भावों के साथ चलता है और बात आगे बढ़ाने में सहयोग देता है. इन दिनों यह बात कम देखने को मिलती है. यह फिल्म खास तौर पर उन दर्शकों को पसंद आएगी, जो डार्क कॉमेडी देखना पसंद करते हैं. दीवाली के अंधेरे में इसे आप दीये का उजाला कह सकते हैं.