Mirzapur 2 Review: 2018 में मिर्जापुर जहां था, दूसरे सीजन में भी वहीं खड़ा है. अपराध, खून-खराबा, राजनीति, गालियां और सेक्स. मुख्य किरदारों की कहानियों में यहां कोई ऐसा रोचक मोड़ नहीं आता कि आप चौंक जाएं. लगभग सभी पुराने सफर पर आगे निकले हैं और उन्हें ऐसे लिखा गया है कि कमोबेश आप जानते हैं, उनकी मंजिल क्या होगी. उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर पर बाहुबली अखंडानंद उर्फ कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) का शासन अब भी है और पहली बीवी से हुए बेटे मुन्ना भैया (दिव्येंदु शर्मा) को उनकी कुर्सी चाहिए. उधर कालीन भैया के तैयार किए गुर्गे गुड्डू पंडित (अली फजल) और पुलिस अधिकारी गुप्ता की बेटी गोलू (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) क्रमशः अपने भाई और बहन की पिछली सीरीज में की गई हत्या का बदला लेने के मिशन से नई सीरीज में घूम रहे हैं.



अमेजन प्राइम पर मिर्जापुर सीजन-2 का इंतजार लंबे समय से था. मगर यह सीजन मिर्जापुर की मुख्य कहानी के दाएं-बांए जोड़े गए कई सब-प्लॉट्स से भरा हुआ है. खास तौर पर यूपी के मुख्यमंत्री सूर्यप्रताप यादव, उसके भाई जेपी. यादव, विधवा बेटी माधुरी यादव त्रिपाठी का प्रसंग हो या यूपी से बिहार के सिवान पहुंची कहानी में अद्धा-डॉन दद्दा (लिलीपुट) और उनके जुड़वां बेटों भरत-शत्रुघ्न (विजय वर्मा) का ड्रामा, बेहद लंबे हैं. इसी तरह पिछली बार मारे गए कालीन भैया के प्रतिद्वंद्वी जौनपुर के गैंगस्टर शुक्ला के बेटे शरद को भी यहां एंट्री मिली है. जो कहानी में कुछ नया नहीं जोड़ती. अपराध जगत के इस कथानक में पुलिस सबसे पीछे और नाकिबल है. कुल जमा मिर्जापुर का दूसरा सीजन छोटी-छोटी कहानियों को जोड़ कर मिर्जापुर के मुख्य कथानक को धक्के लगाता है. परिणाम यह कि मूल कहानी बिखर जाती जाती है. पत्नी बीना (रसिका दुग्गल) के लिए पहले ही सीजन में नॉन परफॉरमिंग एसेट बन चुके कालीन भैया को यहां पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है. गर्भवती बीना के मायके जाने और गुड्डू-गोलू की भेदिया बनने से लंका में विभिषण कांड भी यहां तैयार किया गया है. कहानी के इस हिस्से में थोड़ी देर को सही, कुलभूषण खरबंदा प्रभाव पैदा करते हैं.



सीजन-2 में पिछली बार से अधिक साफ है कि त्रिपाठी परिवार बहुत खोखला है और कभी भी बिखर सकता है. मुन्ना और कालीन भैया के संबंधों में का पुराना टेप ही यहां बजा है. कालीन भैया मुन्ना को काबिल बनते देखना चाहते हैं और मुन्ना भैया गद्दी की रट लगाए हैं. इस सीजन में दस एपिसोड हैं, जिनमें शुरुआती दो धीमी और उबाऊ गति से चलते हैं. तीसरे से कहानी थोड़ी जमती है और फिर यहां-वहां बिखरते हुए कुछ रफ्तार पकड़ती है मगर अंतिम दो एपिसोड में फिर ध्वस्त हो जाती है. निर्देशक जोड़ी गुरमीत सिंह और मिहिर देसाई ने जितनी कलात्मकता और नएपन से मिर्जापुर को पहले सीजन में रचा था, वह दूसरे सीजन में गायब हैं. यहां ज्यादातर यही महसूस होता है कि पहले सीजन की सफलता को भुनाने की कोशिश मात्र है.



कहानी में इंट्रोड्यूस किए गए नए किरदार प्रभाव नहीं पैदा करते और पुराने वाले घिसे हुए मालूम पड़ते हैं. इसकी वजह है पटकथा. मिर्जापुर-2 की कहानी में कालीन भैया के डर से ज्यादा बिजनेस और पॉलिटिक्स का असर है. जबकि इन दोनों मामलों में कालीन भैया लगातार पिछड़ते जाते हैं. यहां ऐसा भी नहीं है कि उनसे बदला लेने को आतुर गुड्डू-गोलू कोई शह-मात का खेल खेल रहे हैं. उनकी यहां अलग सुरक्षित और बिना किसी जोखिम वाली दुनिया है. मिर्जापुर के संवाद भले ही कहें कि यह जंगल है, परंतु जंगल की भयावहता और खूंखार जानवरों का डर इस सीजन में गायब है. मिर्जापुर-2 का ही एक संवाद है कि आदमी का डरना जरूरी है, मरना नहीं.



लेखक-निर्देशक ने इस बात का ध्यान कहानी में नहीं रखा क्योंकि इस बार किरदार डरते कम हैं, मरते ज्यादा हैं. उस पर गुड्डू-शबनम, रॉबिन-डिंपी की कमजोर प्रेम कहानियां कोई रोमांच पैदा नहीं करतीं. सीजन वन के मुकाबले मिर्जापुर-2 में जो किरदार सबसे कमजोर हुआ वह है, गोलू. गोलू बनी श्वेता त्रिपाठी के हिस्से में यहां बेकार बदहवासी आई है. यहां उनके कैरेक्टर का कोई ग्राफ ही नहीं बनता. न वह गुड्डू से प्रेम कर पाती हैं और न ही अपनी बहन तथा प्रेमी की हत्या के बदले की आग में जलती दिखती हैं. वह पूरे समय गुड्डू पंडित के आगे दबी-सहमी रहती हैं. हाथों में गन से उनके व्यक्तिक्त का वजन नहीं बढ़ता. लगभग यही रसिका दुग्गल के साथ हुआ. उनका शुरुआती प्रभाव कहानी बढ़ने के साथ कम होता जाता है. यह जरूर है कि उनके किरदार के बदलते रंग के कारण उनमें दिलचस्पी बनी रहती है. पंकज त्रिपाठी, अली फजल और दिव्येंदु शर्मा ने अपने किरदारों को पूरी ऊर्जा के साथ निभाया है. उनकी वजह से मिर्जापुर-2 में थोड़ा दमखम बना रहता है.