बीती सदी से आखिरी दो दशकों में भारतीय मूल के लेखकों की अंग्रेजी लेखनी ने दुनिया का खूब ध्यान खींचा था. वी.एस. नायपॉल, सलमान रुश्दी, विक्रम सेठ, अरुंधति रॉय से लेकर झुंपा लाहिड़ी तक साहित्य के सितारे थे. इनमें विक्रम सेठ सबसे अलग थे. उन्होंने अपने दौर का सबसे मोटा करीब 1500 पन्नों का उपन्यास लिखा, अ सूटेबल बॉय (1993). करीब 27 साल बाद इस उपन्यास पर वेबसीरीज बन कर आई है. बीबीसी के लिए इसे निर्देशक मीरा नायर ने बनाया है और एंड्र्यू डेविस ने पटकथा लिखी है. यह बीबीसी की अब तक की सबसे महंगी सीरीजों में है. इसका बजट 150 करोड़ रुपये से अधिक है. यह नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है. बीबीसी की यह पहली कथा-सीरीज है, जिसमें कोई अंग्रेज मुख्य पात्र नहीं है. सभी भारतीय हैं.



अ सूटेबल बॉय आपको उस दौर में ले जाती है, जब देश को नई-नई आजादी मिली थी. राजा थे, जमींदार थे, तवायफें थीं, गरीबी-गुलामी थी, नेहरूवादी नेता थे, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष था, ट्रेन कोयले के इंजन से चलती थी, तांगे और साइकिलें मुख्य सवारी गाड़ियां थीं. कहानी में इन सबके बीच उत्तरी प्रांत के बलरामपुर में युवावस्था की दहलीज पर लता मेहरा (तान्या माणिकतला) खड़ी है. विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई करती हुई. उसकी बहन सावित्री (रसिका दुग्गल) की शादी से कारवां बढ़ता है और मां (माहिरा कक्कड़) साफ कहती है कि अगला नंबर लता का है. उसके पिता जिंदा होते तो यह जिम्मेदारी खुद संभाल रहे होते. एक-एक कर लता की जिंदगी में तीन लड़के आते हैं. युनिवर्सिटी में गणित पढ़ने वाला कबीर दुर्रानी (दानिश रजवी), अंग्रेजी कविताओं से लड़कियों के दिल लूटने वाला उसकी भाभी मीनाक्षी (शाहना गोस्वामी) का भाई अमित (मिखाइल सेन) और एक शू फैक्ट्री में जूते डिजाइन करने वाला मिडिल क्लास हरेश खन्ना (नमित दास).


छह एपिसोड की इस सीरीज में गुजरा हुआ वक्त आपको हर फ्रेम में दिखता है. आप 1951-52 के गवाह होते हैं. शहर, सड़कें, इमारतें, कमरे, फर्नीचर, गाड़ियां, पहनावा और तमाम माहौल सुंदर ढंग से रचा गया है. लता की कहानी के साथ यहां राजनेता महेश कपूर (राम कपूर) और नवाब (अमीर बशीर) तथा उनके बेटों की कहानियां समानांतर चलती हैं. खास तौर पर महेश कपूर के बेटे मान कपूर (ईशान खट्टर) और गानेवाली सईदा बेगम (तब्बू) की प्रेम कहानी. सईदा उम्र में मान से काफी बड़ी है मगर उनका प्रेम जबर्दस्त ढंग से परवान चढ़ता है. दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है/आखिर इस दर्द की दवा क्या है... जैसा रूमानी प्यार रोचक उतार-चढ़ाव से गुजरता है. इन निजी कहानियों के बीच देश के गरीबों को राजाओं-जमींदारों के चंगुल से छुड़ाने के लिए भूमि सुधार की राजनीतिक कोशिशें, हिंदू-मुस्लिमों का सांप्रदायिक संघर्ष, हिंदू लड़की का मुस्लिम लड़के से और हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़की से इश्क समेत आजादी के बाद पहला आम चुनाव (1952) भी यहां बखूबी दर्ज है. अ सूटेबल बॉय सिर्फ लता मेहरा के परिवार की कहानी मात्र नहीं रह जाती. यह देखने योग्य सीरीज है. एक अलग अनुभव है.



पटकथा पर एंड्र्यू डेविस ने पूरी कसावट के साथ काम किया है. वह सभी किरदारों की भिन्न-भिन्न दिशाओं में जा रही कहानियों को सिलसिलेवार दृश्यों में बांधते हैं. निश्चित ही इस बड़े कथानक को छह कड़ियों में समेटना आसान नहीं रहा होगा. मीरा नायर ने पूरी कुशलता और कल्पनाशीलता के साथ दृश्यों को साकार किया है. उन्हें ऐक्टरों की टीम के एक-एक सदस्य का मजबूत साथ मिला है. तान्या माणिकतला इस वेबसीरीज की खोज हैं. जबकि शाहना गोस्वामी का बिंदास किरदार जब-जब स्क्रीन पर आता है, हलचल मचाता है. तब्बू उम्रदराज प्रेमिका के रूप में जमी हैं जबकि ईशान खट्टर के अब तक के करियर का यह सबसे बढ़िया काम है. अन्य सभी कलाकार अपने किरदारों में फिट हैं और अपनी-अपनी भूमिकाओं का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया है.



अ सूटेबल बॉय की खूबी यह भी है कि मीरा नायर ने लता के लिए योग्य वर ढूंढने की कवायद में पूरी चिंता-गंभीरता बरतते हुए भी कॉमिक टोन को बनाए रखा है. इससे मनोरंजन की फुहार कभी धीमी नहीं पड़ती. संवाद सरल-सहज हैं और उनमें भी कॉमिक पुट है. अब सवाल यही कि क्या लता को वाकई उसके योग्य वर मिल सका. विक्रम सेठ के इस उपन्यास के बाद सीक्वल अ सूटेबल गर्ल आने की 2013 में चर्चाएं थीं. मगर वह अभी तक इसे पूरा नहीं कर सके हैं. मीरा नायर ने सीरीज को कुछ इस अंदाज में समाप्त किया है कि लता के बाद मेहरा परिवार के सबसे छोटे लड़के वरुण (विवान शाह) का नंबर है. लड़कियां विवान को रिझाने में लगी हैं. यह देखकर मां उससे साफ कहती हैं जैसे उन्होंने लता के लिए एक अच्छा-सा लड़का ढूंढा है, उसके लिए भी अच्छी-सी लड़की वही ढूंढेंगी.