AK vs AK Review: फिल्म लाइन में कोई किसी का अच्छा नहीं सोचता. सब खुद को दूसरे से बड़ा और बढ़िया समझते हैं लेकिन मौका आने पर गधे के आगे भी सिर झुका देते हैं. यहां चलती का नाम गाड़ी है. चल रही हो तो लोग खटारा में भी सवार होने से नहीं हिचकते. इस इंडस्ट्री में सितारा किसी का भी चमके लेकिन समय से बड़ा सुल्तान कोई नहीं. जो चालीस साल से स्टार है कि वह कल किसी अंधेरी गली में पड़ा दिख सकता है और जो चालीस साल से स्ट्रगल कर रहा है, कल वह फ्लैश चमकाते कैमरों से घिरा एक मशहूर चेहरा हो सकता है. इस दुनिया में न दोस्ती सदा के लिए है और न दुश्मनी. लेकिन यहां की सच्ची कहानियां बरसों में कभी एकाध ही सामने आती है. निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी अपनी एके वर्सेज एके में इस दुनिया की कुछ तस्वीरें लाए हैं, जो असली नहीं बल्कि फिल्मी हैं. हां, वह असली होने का भ्रम जरूर पैदा करती हैं.
नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म पारंपरिक खांचों में फिट नहीं है. इसकी बुनावट अलग है. यहां स्क्रीन पर आप किरदारों को उनके असली नाम के साथ देखते हैं, जिससे उनके संग एक अलग तरह का कनेक्ट बनता है. एक तरफ झक्कास ऐक्टर अनिल कपूर हैं तो दूसरी तरफ लोगों से लगातार प्यार और नफरत पाने वाले निर्देशक अनुराग कश्यप. अनिल चाहते हैं कि अनुराग उन्हें बतौर हीरो लेकर कोई फिल्म बनाएं.
अनुराग का कहना है कि अनिल बुढ़ा चुके हैं और उन्हें हीरोइनों के बूढ़े बाप के ही रोल करने चाहिए. एक फिल्मी मंच पर दोनों एक-दूसरे पर लगातार तंज कसते हैं. बात इतनी बढ़ती है कि गुस्साए अनुराग टेबल पर रखे गिलास का पानी अनिल के मुंह पर दे मारते हैं.
इंडस्ट्री में उनका बहिष्कार होता है और नवाजुद्दीन सिद्दिकी तक उनकी फिल्म करने से मना कर देते हैं. हर तरफ से पराजित-पस्त अनुराग अपनी फिल्म की कहानी सुनाने अनिल के पास जाते हैं. अनिल उन्हें टका सा जवाब देते हैं कि अगले दो साल तक टाइम नहीं है. दो साल बाद मिलोगे तब भी यही जवाब दूंगा. यहां कहानी में ट्विस्ट है.
अनुराग कश्यप अनिल कपूर को बताते हैं कि तुम्हारी बेटी सोनम कपूर को मैंने किडनैप कर लिया है. रात के दस घंटे हैं उसे खोजने और जिंदा छुड़ाने के लिए. बेटी को ढूंढने के लिए वह जो भी करेंगे, वह कैमरे में रिकॉर्ड होता रहेगा. यही फिल्म होगी. जिसमें सारा इमोशन-ऐक्शन-ड्रामा असली होगा. क्या है पूरे मामले की हकीकत, यही आगे की कहानी है.
कटोरे के अंदर कटोरा, बेटा बाप से भी गोरा. इसी पहेली की तरह फिल्म के अंदर चलती हुई फिल्म में कुछ चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं. यहां दो खूबसूरत बातें हैं. एक तो यह कि स्क्रीन पर अनिल कपूर और अनुराग कश्यप कब अभिनय करते हैं और कब सचमुच होते हैं, इसे पकड़ना कठिन है. उनकी निजी जिंदगी की बातें फिल्म में संवादों की तरह चली आती हैं.
दूसरी खूबसूरती है फिल्म की लिखावट. विक्रमादित्य मोटवानी ने स्क्रिप्ट से न्याय किया है और इसे पूरी समझदारी के साथ स्क्रीन पर उतारा है. यह फिल्म वास्तव में उन्हें साहस देगी, जो सिनेमा में नए प्रयोग करने का जोखिम उठाना चाहते हैं. इसमें युवा फिल्मकार भी शामिल हैं और बुजुर्ग हो चले ऐक्टर भी. फिल्म अनिल कपूर के करिअर की उम्र बढ़ाएगी.
एके वर्सेज एके संजय दत्त जैसों के लिए सबक है कि बायोपिक फिल्म करिअर का बोर्नविटा नहीं बन सकती. नया करने की धुन और जोखिम उठाने के साहस से ही करिअर को टॉनिक मिलेगा. ऐसे में हिंदी सिनेमा को उज्ज्वल भविष्य के लिए विधु विनोद चोपड़ा और संजू हीरानी से ज्यादा जरूरत अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवानी की है.
अनिल कपूर फिल्म में बार-बार कहते हैं कि चालीस साल से स्टार हूं और मरते दम तक रहूंगा. उनकी बात में दम लगता है क्योंकि उनके काम में दम दिखता है. लेकिन अनुराग जैसे फिल्म मेकर के बगैर क्या उनका स्टार बने रहना संभव है. कौन बड़ा. सितारा या डायरेक्टर. कम से कम हिंदी में यह इस बहस का कोई निष्कर्ष संभव नहीं है.
एके वर्सेज एके सिनेमा से प्यार की पैदाइश है. ऐसे सिनेमा से प्यार की, जिसके लिए कोई मर भी सकता है. अनुराग कश्यप ऐक्टर के रूप में यहां अच्छे लगे हैं. उन्होंने अपने काम को सही ढंग से अंजाम दिया है. फिल्म का ट्रीटमेंट इतना रीयल है कि अनुराग से नफरत करने वालों के मन की बात कई जगह ज्यों की त्यों रख ली गई हैं. अतः यह फिल्म उन्हें भी देखनी चाहिए.