Bicchoo Ka Khel Review: बनारस को बीजिंग बनाने के प्लान में क्राइम-कथा का तड़का, दिव्येंदु ने फिर दिखाया दम
यह वेबसीरीज की दुनिया का एक और क्राइम ड्रामा है. मुजफ्फरपुर वाले मुन्ना भैया दिव्येंदु यहां बनारसी अंदाज में कहानी को अपने कंधों पर लेकर बढ़े हैं. उनके फैन्स को मजा आएगा. जर-जोरू-जमीन के कारण फसाद का फार्मूला लेखक ने फिट किया है. सांप-सीढ़ी जैसी कहानी में जो ऊपर दिखता है, पल भर में ही नीचे आ जाता है.

आशीष आर. शुक्ला
दिव्येंदु शर्मा, अंशुल चौहान, सैयद जीशान कादरी, राजेश शर्मा, तृष्णा मुखर्जी, मुकुल चड्ढा, सत्यजित शर्मा
इन दिनों वेब की दुनिया में उत्तर भारतीय अपराध-कथाओं की धूम है. बिच्छू का खेल उसी की नई कड़ी है. जिसमें बनारसी पिता-पुत्र, बाबू श्रीवास्तव (मुकुल चड्ढा) और अखिल श्रीवास्तव (दिव्येंदु शर्मा) मुकेश चौबे (राजेश शर्मा) की मिठाई की दुकान पर काम करते हैं. तेजी से घूमते घटनाक्रम में बाबू पुलिस थाने में फंदा लगा कर आत्महत्या कर लेता है. तब अखिल कसम खाता है कि वह बाबू को यह कदम उठाने पर मजबूर करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाएगा. बाबू की मौत के पीछे बनारस को बीजिंग बनाने का ठेका उठाए लोगों का हाथ है. वे खतरनाक हैं. कहानी एक मर्डर से शुरू होती है. हत्या के पीछे के षड्यंत्र का ताना-बाना यहां बिछा है. अखिल इसे छिन्न-भिन्न करता है. यहां अखिल की लवस्टोरी भी है और बाबू समेत कुछ लोगों के अवैध संबंधों की कथाएं भी.
बिच्छू का खेल मनोरंजक है. उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि वाली अपराध कथाओं के मुरीदों का यह मनोरंजन करेगी. दिव्येंदु यहां मिर्जापुर वाले मुन्ना भैया के ही अंदाज में हैं. इसमें संदेह नहीं कि इस सीरीज को उन्होंने बहुत हद तक अपने कंधों पर किनारे लगाया. उतार-चढ़ाव भरी कहानी में कहीं-कहीं तर्क के पेंच ढीले पड़ते हैं और स्क्रिप्ट की कसावट कई जगहों पर ढीली पड़ी है. कुछ अहम किरदार तक गड्ड-मड्ड हो जाते हैं. पटकथा किरादरों को साफ-साफ उनके खांचे में खड़ा नहीं कर पाती और कनफ्यूजन की धुंध देर से छंटती है. बेहतर स्क्रिप्ट बिच्छू का डंक को जबर्दस्त बना सकती थी. कथा-पटकथा की कमियों की भरपाई काफी हद तक क्षितिज रॉय के संवादों ने की है. दिव्येंदु और पुलिस इंस्पेक्टर निकुंज तिवारी बने सैयद जीशान कादरी ने संवादों के साथ डिलेवरी में न्याय किया है. कुछ संवाद रोचक ढंग से देश-समाज और समय का हाल बयान करते हैं. जैसेः -ये वो देश है जहां पब्लिक कनफर्म टिकट वाले को भी सीट से उठा देती है. -लॉ में बकैती बहुत है. -भगवान से नहीं तो कम से कम इस सिस्टम से डरो. -जिस समुंदर में भांग पड़ी हो, वहां लहरें चुप कब होती हैं. -घास अगर बागी हो जाए तो पूरे शहर को जंगल बना देती है. -जब वक्त अच्छा हो तो कुत्ता भी कोक पीता है. यह जरूर है कि यहां कई संवाद गालियां से भरपूर हैं. अनेक लोग मानते हैं कि अपशब्द ठेठ बनारसी जुबान के आभूषण हैं. अतः आपको उनसे आहत होने की जरूरत नहीं.
बिच्छू का खेल में निर्देशक ने हल्की कॉमिक टोन बनाए रखी और यहां क्राइम केंद्र में होने के बावजूद धड़ल्ले से हत्याएं नहीं हो रहीं. जो आम तौर पर नॉर्थ-केंद्रित वेबसीरीजों में दिखता है. यहां बनारस की टाउन प्लानिंग से जुड़े मुन्ना सिंह की हत्या का रहस्य खोलने की कोशिश का बड़ा घेरा है. साथ ही अखिल द्वारा पिता की आत्महत्या का तमाशा बनाने वालों से बदला लेने और खुलेआम हत्या करके खुद को कानून से बरी करा लेने का ड्रामा भी है. कहानी का अंदाज आपबीती वाला है. जिसमें हीरो-लेखक का नरेशन बीच-बीच में आकर कहानी को अपने ढंग से मोड़ता है. हालांकि इससे ड्रामे का रोमांच बीच-बीच में बाधित होता है.
वेबसीरीज की बड़ी समस्या है कि यह मुख्य रूप से पुरुष पात्रों की ही कहानी है. हालांकि यहां अखिल की प्रेमिका रश्मि चौबे (अंशुल चौहान), मिठाई वाले मुकेश चौबे की पत्नी (तृष्णा मुखर्जी), इंस्पेक्टर तिवारी की पत्नी पूनम (प्रशंसा शर्मा) और अधेड़ मुन्ना सिंह की जवान पत्नी रेणु सिंह (आकांक्षा ठाकुर) के अहम रोल हैं लेकिन लेखक-निर्देशक उन्हें उभरने नहीं देते. महिला पात्र खेल में दब गए हैं. लेखक-निर्देशक ने चुनिंदा पात्रों पर वेबसीरीज को केंद्रित कर दिया है, इससे कहानी पूरी तरह नहीं खिल पाई. बावजूद इसके इसमें रहस्य-रोमांच की गंध है, जो बांधे रखती है.
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