सांप जैसी कुंडली मारे बैठा बाजार मौलिकता को डस लेता है. ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ और ‘डॉली किट्टी’ और ‘वो चमकते सितारे’ के बाद लेखक-निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव के साथ यह दुर्घटना घट गई है. नेटफ्लिक्स ओरीजनल ‘बॉम्बे बेगम्स’ में वह फार्मूलेबाजी का शिकार हो गई हैं.
विश्व महिला दिवस (आठ मार्च) पर रिलीज हुई इस वेबसीरीज में अलंकृता पिछली फिल्मों की तरह स्त्री विमर्श की जरूरी परतों में उतरने के बजाय सस्ते, चटपटे और मसालों के तड़के लगाती हैं. इससे रायता फैल जाता है. यहां वह जमीन से नहीं जुड़ीं और कॉरपोरेट जगत की हवा में तैरते मी-टू अभियान के गुब्बारे पर कब के मुंबई बन चुके बॉम्बे का स्टीकर छाप कर ले आईं. यहां नायिकाओं को उन्होंने बेगम क्यों कहा, यह साफ नहीं है. बाजार तुकबंदी कराता है. संवेदनाएं तुकबंदियों में असर खो देती हैं. ‘बॉम्बे बेगम्स’ भी तुकबंदी है और अंत आते-आते मी-टू की नारेबाजी में बदल जाती है.
यहां पांच नायिकाएं हैं. एक लिली (अमृता सुभाष) को छोड़ें तो बाकी चार कॉरपोरेट जगत, अमीर और उच्च मध्यमवर्गीय जीवन जीती हैं. लिली जिस्मफरोशी के पेशे में है मगर अपने लिए इज्जत और बेटे को जीवन में आगे बढ़ते देखना चाहती है. कॉरपोरेट की महिलाएं महत्वाकांक्षी हैं. वे सफलता के शिखर पर आसीन हैं या वहां पहुंचना चाहती हैं. शिखर के रास्ते कम-ज्यादा नुकीले दांतों-नाखूनों वाले भेड़िया-पुरुषों की गुफाओं से होकर गुजरते हैं. यही असली संघर्ष है. महिलाओं को इनसे निपटना भी है, बना कर भी रखनी है, इनके साथ घर भी बसाना है, जीवन भी बिताना है, इन्हें बर्दाश्त भी करना है और प्यार भी करना है. सारे सुख-दुख, नाच-गाने, ऊंच-नीच के बाद लंबी सांस भरते हुए यह भी मानना है कि मैन विल बी मैन. कहानी को ट्विस्ट चाहिए, इसलिए अंत में लेखक-निर्देशक खलनायक की हकीकत को विस्तार देते हुए, देर आए दुरुस्त आए अंदाज में उसे अंततः पुलिस के हवाले कर देती हैं. यह ‘बॉम्बे बेगम्स’ का पहला सीजन है. दूसरे सीजन में खलनायक की खलनायकी और गहरी होगी.
‘बॉम्बे बेगम्स’ की बेगमें सामान्य स्त्रियों से बिल्कुल जुदा, हैरान-परेशान हैं. उनके जीवन में कुछ ठीक नहीं चलता. हर किरदार उलझा, जटिल और असहज है. कॉरपोरेट बीवियां विवाहेतर संबंधों में लिप्त हैं और फ्रेशर लड़की अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर असमंजस में है. वह समलैंगिक संबंध बनाती है और अपने पुरुष सह-कर्मी के साथ लिव-इन में रहती है. तर्क यह कि वह खुद को तलाश कर रही है.
वास्तव में यहां अलंकृता श्रीवास्तव और बोरनीला चटर्जी उलझन में हैं क्योंकि वह असामान्य चीजों को सामान्य दिखाना चाहती हैं. मगर यह संभव नहीं होता. अलंकृता-बोलनीला कॉरपोरेट स्त्री के बहाने एक साथ बहुत कुछ दिखाने की कोशिश करती हैं. इसलिए यहां स्त्री के विवाहेतर यौन संबंधों के साथ ब्रा, मासिक धर्म, प्रेग्नेंसी, मेनोपॉज, गर्भपात, लिव-इन, समलैंगिक संबंध, स्पर्म डोनेशन, सरोगेसी, वेश्यावृत्ति, शराब और ड्रग्स से लेकर करवाचौथ तक को कहानी में बुन देती हैं. मगर स्क्रीनप्ले कई जगहों पर ढीला है और कहानी में दोहराव हैं. पौन घंटे से एक घंटे तक के छह एपिसोड तीसरे तक आते-आते बोर करने लगते हैं. सब कुछ ठहर जाता है. बिजनेस और बैंकिंग की बातें इतनी तकनीकी हैं कि आपकी उनमें दिलचस्पी न हो तो वे बुरी तरह उबाती हैं. एपिसोड को आगे बढ़ाने के लिए पीछे से अंग्रेजी में कॉमेंट्री चलती रहती है.
कॉरपोरेट जगत में अपनी मजबूत जगह बनाती नायिकाओं की कहानी एक सेक्स स्कैंडल/सेक्सुअल हेरासमेंट के मामले के साथ साधारण बन जाती है. वह इस धारणा को पक्का करती है कि कॉरपोरेट में सफल हर स्त्री के पीछे ‘मी-टू’ है. भले ही उसने कभी मुंह नहीं खोला. ‘बॉम्बे बेगम्स’ स्त्री-देह की सीमा को नहीं लांघ पाती. इसकी एक नायिका फातिमा वारसी (शाहना गोस्वामी) लंदन से आए एक गोरे की बांहों में कहती हैः मैं थक चुकी हूं. मेरा लगातार अपनी देह के साथ संघर्ष चलता रहता है.
मुख्य कहानी रानी सिंह ईरानी (पूजा भट्ट) की है, जो रॉयल बैंक ऑफ बॉम्बे की नई सीईओ नियुक्त हुई है. उसे बैंक को कमजोर स्थिति से उबार कर मजबूत बनाना है. यहीं फातिमा वारसी को प्रमोशन मिलता है और वह हेड ऑफ प्राइवेट इक्वीटी एंड वेंचर की डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर बना दी जाती है. जबकि उसे पांचवें आईवीएफ प्रयास में प्रेग्नेंट होने की खबर ताजा-ताजा मिली है.
तीसरी नायिका यहां आयशा अग्रवाल (प्लाबिता बोरठाकुर) है, जो इंदौर से मुंबई पहुंची है. फाइनेंस में उसकी विशेषज्ञता है और वह बैंक में आगे बढ़ना चाहती है. कुल जमा वेबसीरीज प्रभावित नहीं करती. अलंकृता से आप फार्मूलेबाजी से अलग कुछ बेहतर की उम्मीद करते हैं. पूजा भट्ट, प्लाबिता बोरठाकुर और अमृता सुभाष का अभिनय अच्छा है मगर शाहना गोस्वामी सबसे बेहतर हैं. इन नायिकाओं का कहीं-कहीं इतना अधिक मेक-अप किया गया है कि लगता है, स्क्रीन को अंगुली से छू देंगे तो उसकी परत गिर पड़ेगी. मनीष चौधरी अच्छे अभिनेता हैं मगर फिल्म और वेबसीरीज वालों ने उन्हें कॉरपोरेट लुक में बांध दिया है.
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