अमेजन प्राइम वीडियो पर ब्रीद सीजन वन (2018) में साफ मैसेज था कि अपनों को बचाने का केवल एक रूल होता है कि कोई ब्लडी रूल नहीं होता. इसी लीक पर ब्रीद का सीजन टू शुरू होता है. जब किसी पेरेंट को पता चलता है कि उसके बच्चे की जान दांव पर है तो वह हत्यारा भी बन सकता है. ब्रीदः इनटू द शैडोज में ये शब्द सच साबित होते हैं, जब मनोचिकित्सक अविनाश सभरवाल (अभिषेक बच्चन) की छह साल की बेटी अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी से उठा ली जाती है और अपहरण करने वाला इस डॉक्टर से एक-एक कर हत्याएं करने को कहता है. बेटी की जान बचाने के लिए डॉक्टर तीन लोगों की जान भी ले लेता है, मगर पुलिस को कैसे और कब तक अंधेरे में रख सकता है.
अपनी फिल्मी पारी में लगातार संघर्ष करने वाले अभिषेक बच्चन डिजिटल डेब्यू में क्या ‘व्हाट एन आइडिय सर जी’ टाइप कुछ करेंगे, कोरोना काल में यह बड़ा सवाल था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह वेब सीरीज के सीधे-सरल बिना जोखिम वाले रास्ते पर चले, जो अपहरण, हत्या, फोरेंसिक जांच, मेडिकल की कुछ शब्दावलियों, किसी पुलिस अधिकारी की निजी ट्रेजडी और पुलिस विभाग की आपसी रंजिशों से होकर गुजरता है. इन बातों के बहाने रोमांच और रहस्य पैदा करने की कोशिशें की जाती है. तब कहानी से ज्यादा पुलिस फाइल नजर आती है. भावनाओं से ज्यादा अपराध करने के तौर-तरीके दिखाई पड़ते हैं. संभवतः इसी का नतीजा है कि नियमित वेबसीरीज देखने वालों को ब्रीदः इनटू द शैडोज के कुछ हिस्सों पर इसी साल वूट पर आई चर्चित वेबसीरीज असुर की छाया नजर आएगी तो आश्चर्य नहीं होगा.
ब्रीद जैसी कहानियां असल में पश्चिमी देशों में होने वाले अपराधों की तर्ज पर रची-गढ़ी जाती हैं. लेकिन फिर उन्हें देसी बनाने-दिखाने के लिए भारतीय/हिंदू पुराण कथाओं के प्रतीक उठा कर मिठाई पर चांदी के वरक की तरह सजा दिया जाता है. ब्रीदः इनटू द शैडोज भी यही करती है. जब नन्हीं सिया के अपहरणकर्ता द्वारा डॉ.अविनाश से हत्याएं कराने का सिलसिला शुरू होता है तो सवाल उठता है कि आखिर वह क्यों ऐसा करा रहा है. बारह कड़ियों में धीरे-धीरे आगे बढ़ती कहानी में जवाब मिलता है कि सिया को उठाने वाला रावण है. जिसके दस अदृश्य सिर काम, क्रोध, मोह, अहंकार, नशा, लोभ, भय, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष हैं. ये सिर यूं तो नकारात्मक शक्तियां हैं परंतु रावण इन्हें अपनी ताकत मानता है. ब्रीद का रावण अपने सामने इन शक्तियों का प्रदर्शन करने वालों की डॉक्टर अविनाश से हत्या करा रहा है. हत्यारे को ढूंढने के साथ पुलिस यह पता लगाने के प्रयास में है कि हत्याओं द्वारा क्या संदेश देने की कोशिश है. मगर सच यह है कि सारी कड़ियां खत्म होने पर भी दर्शक को इसका ठीक-ठीक जवाब नहीं मिलता.
ब्रीदः इनटू द शैडोज शुरुआत में थोड़ा रहस्य जगाती है परंतु रोमांच पैदा नहीं करती. अभिषेक बच्चन का ठंडे-कूल भावों वाला चेहरा दर्शक से कनेक्ट नहीं होता. यही कमी उनकी फिल्मों में थी. कहानी अभिषेक को केंद्र में रखती है और उन्हें जादू पैदा करने के कई मौके देती है. मगर वह चमक दिखाने में खास सफल नहीं होते. वहीं कथा-पटकथा लेखक मयंक शर्मा-विक्रम तुली-भवानी अय्यर ब्रीदः इनटू द शैडोज के रहस्य को ज्यादा देर संभाले नहीं रख पाते और चौथी-पांचवी कड़ी तक सामने आ जाता है कि नन्हीं सिया का अपहरण किसने किया, उसे किस ‘निर्जन वाटिका’ में रखा. सवाल रह जाता है कि क्यों. इसका जवाब आगे बढ़ने के साथ उबाऊ और बोझिल है. यहां से रावण की कहानी शुरू होती है जो मुखौटे में चेहरा छुपाए भारी-भारी सांसे लेते हुए कुछ लंगड़ा कर चलता है. रावण के साथ कहानी भी लंगड़ाने लगती है. कहानी में राम या हनुमान तो नहीं है मगर दिल्ली क्राइम ब्रांच का अफसर कबीर सावंत (अमित साध) हत्यारे की तलाश करता-करता अंततः सिया तक जा पहुंचता है. थोड़े ड्रामे के बाद उसे बचाने में कामयाब होता है.
अमित साध का किरदार (कबीर सावंत) सीजन वन से आगे बढ़ा है और उनका ट्रांसफर मुंबई से दिल्ली क्राइम ब्रांच में हो जाता है. उन्होंने अपने रोल की जटिलता को जीया है और वह जिन दृश्यों में आए, वहां कहानी ठहरी-संभली है. आभा सभरवाल के किरदार में नित्या मेनन के हिस्से बहुत उल्लेखनीय दृश्य नहीं हैं मगर कॉलगर्ल शर्ली के रोल में संयमी खेर को कम परंतु छाप छोड़ने वाला समय पर्दे पर मिला है. वेबसीरीज लेखन की चुनौती यह है कि उसे निरंतर रोचक बनाए रखा जाए मगर हिंदी में कहानी को खींच-खींच कर बढ़ाने का मोह छूटता नहीं दिख रहा. गैर-जरूरी किरदार और दृश्य मूल कथा में बुन दिए जाते हैं. जो एडिटिंग में भी नहीं हटाए जा पाते. ब्रीदः इनटू द शैडोज में भी यह हुआ है. नतीजा यह कि कई जगहों पर इसकी रफ्तार धीमी हो जाती है और एक बार अपहरणकर्ता का रहस्य खुलने के बाद कई जगहों पर बातें-ही-बातें रह जाती हैं. ठोस कुछ नजर नहीं आता.