Cargo Review: मनुष्य और राक्षसों के संसार में सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो
हिंदी में तय फार्मूलों और हकीकत से हटकर कम ही फिल्में बनती हैं. कभी बनती हैं तो उनमें ऐसे प्रयोग होते हैं कि फिल्म आम दर्शक के सिर पर से गुजर जाती है. कार्गो लीक से अलग होने के बावजूद सहज फिल्म है, जो एक मजेदार कल्पनालोक में ले जाती है. जहां जीवन और मृत्यु के गंभीर प्रसंगों पर कभी-कभी आप मुस्करा देते हैं.
आरती कदव
विक्रांत मैसी, श्वेता त्रिपाठी, नंदू माधव
Cargo Review: पृथ्वी पर वर्चस्व के लिए इंसानों और राक्षसों की लड़ाई पुरानी नहीं बल्कि पौराणिक है. लेखक-निर्देशक आरती कदव अपनी डेब्यू फिल्म कार्गो (Cargo) में इस पौराणिक मिथक को कई ट्विस्ट एंड टर्न के साथ पेश करती हुई नई-रोचक कहानी बुनकर लाई हैं. जिसमें विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान के साथ आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु का दर्शन भी है लेकिन इसे फैंटेसी में सहजता से बुना गया है. ऐसे दौर में जबकि हिंदी सिनेमा में रियलिटी का जोर है, आरती काल्पनिक कहानी को जमीनी सच की तरह पेश करती हैं. हल्के-फुल्के कॉमिक अंदाज में. साल 2027 में शुरू होने वाली यह फिल्म अपनी कालगणना में हमारे कैलेंडरों से काफी दूर की है.
2027 में यहां ऐसा समय दिखाया गया है, जब इंसान चांद-मंगल से आगे बृहस्पति तक पहुंच गया है. लेकिन धरती पर हालात 2020 जैसे हैं. वही लोकल ट्रेनें, वही घरों की पलस्तर उखड़ती दीवारें और उनमें काले पड़ते इलेक्ट्रिक सॉकेट. वही प्यार के झूठे वादे और रिश्तों में धोखे. इंसान पैदा हो रहा और मर रहा है. लेकिन कार्गो (Cargo) में इस जीवन-मरण के बीच में बड़ा बदलाव दिखता है. मरे हुए इंसान को लेने के लिए भैंसे पर सवार यमराज या उनके नुमाइंदे नहीं आते. यह काम मनुष्यों जैसे दिखने वाले राक्षस करते हैं. साथ ही यहां न स्वर्ग है, न नर्क. पृथ्वी पर मनुष्यों और राक्षसों के समझौते के बाद आकाशगंगा में ‘पोस्ट डैथ ट्रांसपोर्टेशन सर्विस’ करने वाले अंतरिक्ष स्टेशन बने हैं, जहां आदमी मर कर पहुंचता है. यहां उसे कार्गो यानी डिब्बाबंद माल कहा जाता है. स्टेशन में उसकी ‘मेमोरी इरेज’ की जाती है और फिर धरती पर नए शरीर में उसका जन्म होता है.
काल्पनिक काल और स्थान के बैकग्राउंड वाली यह कहानी एक अंतरिक्ष स्टेशन पुष्पक 634-ए पर 75 साल से रह रहे होमो-राक्षस प्रहस्थ (विक्रांत मैसी) की है. जिसकी उम्र कितने सौ बरस होगी, कह नहीं सकते. लेकिन चूंकि अब उसके स्टेशन में जन्म-मृत्यु के कई चक्रों से गुजर कर आते लोग कहने लगे हैं कि उसे कहीं देखा है, तो इसका मतलब है कि धरती पर कई युग बीत चुके हैं. रिटायरमेंट का समय आ गया. उसकी जगह लेने के लिए राक्षसों-मनुष्यों के इंटरप्लेनेटरी स्पेस ऑर्गनाइजेशन ने युविष्का शेखर (श्वेता त्रिपाठी) को भेजा है. पुष्पक 634-ए में किसी इंसानी रोबोट की तरह दोनों थोड़े समय तक साथ रहते हैं. प्रहस्थ को धरती पर लौटना मुश्किल लगता है क्योंकि उसकी भावनाएं अपने काम से जुड़ी हैं. मगर यहां उसकी एक छोटी-सी प्रेम कहानी भी आरती ने दिखाई है.
ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर आई कार्गो का ढांचा रोचक है. हॉलीवुड या पश्चिमी देशों में बनने वाली महंगी अंतरिक्ष फिल्मों की तुलना में सीमित संसाधनों में बनी कार्गो अंतरिक्ष फैंटेसी का सुंदर नमूना है. कहानी और स्क्रिप्ट में दम है. यह आपको बांधे रखती है. मृत्यु का सफर और वहां से पुनर्जन्म की राह पर लौटना क्या इतना ही सहज किंतु रोचक होता होगा. फिल्म में मर कर अंतरिक्ष स्टेशन में आने वाले किरदारों में एक बात लगभग समान दिखती है. वे अचानक मर गए हैं और एक बार अपने किसी प्रियजन या परिवारवाले से बात करना चाहते हैं. मृत्यु यहां मशीनी है. जिसमें कोई दर्द नहीं, तकलीफ और इमोशन भी नहीं. स्मृति को ‘इरेज’ कर देने वाली कुर्सी पर बैठने के बाद इंसान जैसे कोरी स्लेट हो जाता है और धरती पर ट्रांसपोर्ट होने के लिए रबर के गुड्डे जैसा तैयार रहता है. ऐसे तमाम दृश्य और प्रसंग यहां आकर्षक हैं. कार्गो जीवन से मोह और मृत्यु के भय को एक समान दूरी और एक नजर से देखने की कहानी मालूम पड़ती है. कई बार जैसे हमें यह पता नहीं होता कि हम जी रहे हैं, वैसे ही हमें यह भी पता नहीं चलता कि हम मर चुके है. कुछ ऐसी ही बात कहते हुए कार्गो कहीं-कहीं हल्की मुस्कान पैदा करती है. इसमें हल्का व्यंग्य भी है.
लगभग एक घंटे 50 मिनट की यह फिल्म बांधे रहती है. अगर आप रूटीन फिल्मों से अलग कुछ देखना पसंद करते हैं और साइंस फिक्शन में रुचि है तो कार्गो आपके लिए है. हिंदी में ऐसी फिल्में दुर्लभ है. अतः एक अलग अनुभव के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है. विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी ने अपनी भूमिकाएं सहजता से निभाई हैं. फिल्म के सैट अच्छे डिजाइन किए गए हैं. इसका आर्ट डायरेक्शन और वीएफएक्स कहानी के अनुकूल हैं.