Crackdown Review: क्रेकडाउन में विलेन (अंकुर भाटिया) डायलॉग मारता है कि ज्यादातर जंग में हार तभी होती है जब हुकूमतें अपने सिपाहियों से ज्यादा खबरों पर यकीन करती हैं. पर्दे की कहानियों का भी यही हाल है. जब निर्माता या ओटटी प्लेटफॉर्म कंटेंट से ज्यादा बाजार के चालू मसालों पर भरोसा करते हैं तो गच्चा खा जाते हैं. क्रेकडाउन भी एंटरटेनमेंट बाजार के मसालों को लेकर गढ़ी कहानी है, जिसमें कुछ खास नया करने का ध्यान नहीं रखा गया. कुछ ऐसा नया जो दर्शक को आकर्षित करे.


यहां बड़े पर्दे से लेकर ओटीटी पर कई बार दोहराए जा चुके भारत-पाकिस्तान के रिश्ते हैं, रॉ-आईएसआई हैं, हिंदू-मुसलमान हैं, अपने-पराये हैं, दोस्ती-धोखे हैं. मगर नहीं है तो कहानी में ताजगी. पटकथा में कसावट. संवादों में जोश. वूट सिलेक्टर पर आई यह थ्रिलर देशप्रेम का तड़का तो लगाती है लेकिन कई जगह धीमी और बोरिंग है. खास तौर पर पहली चार कड़ियां. जिनमें साफ दिखता है कि लेखक-निर्देशक को आगे के रास्ते ढूंढने में मुश्किल आ रही है. चौथी कड़ी खत्म होते-होते उन्हें अंधेरी सुरंग में दूर हल्की रोशनी दिखती है तो वह किसी तरह असमंजस से उबर पाते हैं. इस बीच कहानी का संतुलन और रोमांच बार-बार गड़बड़ाता है. जबकि बाद में यहां जल्दबाजी में बहुत सारी चीजें समेट दी गई हैं.


क्रेकडाउन में रॉ में अलग से बनाए गए एक डिपार्टमेंट की कहानी है जो पाकिस्तान द्वारा भारत में आतंक फैलाने के षड्यंत्रों को नाकाम करता रहता है. इसमें है आरपी उर्फ रियाज पठान (साकिब सलीम). बॉस अश्वनी राय (राजेश तैलंग) से उसकी ट्यूनिंग बढ़िया है मगर बॉस के सहायक जोरावर कालरा (इकबाल खान) की नजरों में वह खटकता रहता है. अश्वनी की कुर्सी पर भी कालरा की नजर है. दिल्ली में आरपी और उसकी टीम कुछ आतंकियों मार गिराती है. मरने वालों में एक लड़की भी है, जिसकी टिप उनके पास नहीं थी.



रॉ इन आतंकियों के पाकिस्तान में बैठे आका हनीफ तक पहुंचना चाहती है. तभी अश्वनी को एक लड़की की याद आती है, जो उन्हें एक परिचित की शादी में दिखी थी. यह है दिव्या (श्रीया पिलगांवकर). दिव्या शादियों में मेहंदी लगाने का काम करती है और आतंकियों के साथ मारी गई लड़की मरियम की हमशक्ल है. इस हमशक्ल के माध्यम से रॉ हनीफ तक पहुंच सकती है क्योंकि मरियम की शादी हनीफ के मारे गए आतंकी भाई जहीर से होने वाली थी.



इस बिंदु के बाद लंबा उबऊ ड्रामा है. दिव्या को ट्रेनिंग देकर मेहंदी लगाने वाली लड़की से कमांडो में बदल देना. पाकिस्तान में बैठे लोगों का षड्यंत्र रचना. अफगानिस्तान से एक आतंकी का इंडिया आना ताकि यहां धमाके किए जाएं. इनके बीच कहानी में ट्विस्ट यह कि रॉ का कौन सा सूत्र ऐसा है जिससे खबरें लीक हो कर दुश्मनों तक पहुंचती है. शक की सुई विभाग के कुछ लोगों से लेकर आरपी, दिव्या और कालरा की तरफ तक घूमती है और दुश्मन रॉ प्रमुख अश्वनी राय की हत्या में तक कामयाब हो जाते हैं. यहीं से थोड़ा रोमांच पैदा होता है.



क्रेकडाउन की मुश्किल यह है कि इसे सही ढंग से लिखा नहीं गया. एक तो यह देर से पटरी पर आती है और दूसरे इसका संतुलन लगातार बिगड़ता है. देश के लिए लड़ने वाले आपस में लड़ते हैं. आतंकियों और आईएसआई के षड्यंत्रों से ज्यादा लेखक-निर्देशक का ध्यान रॉ वालों के आपसी झगड़े दिखाने में लगा रहा. कहानी में लगातार आता है कि आरपी किसी समय पाकिस्तानियों की कैद में छह-आठ महीने रहा. ऐसे में कहीं उन्होंने इसे ब्रेनवॉश करके यहां धोखा देने तो नहीं भेजा है. मगर उसकी एक भी ऐसी हरकत को कहानी दर्ज नहीं करती. कहानी को रीयल ट्रीटमेंट देते-देते इसमें मरियम की हमशक्ल का एंगल डालना, वेबसीरीज को फिल्मी बना देता है.



लेखक-निर्देशक का फोकस पूरी कहानी के बजाय साकिब सलीम और श्रीया पिलगांवकर पर है. नतीजा यह कि इकबाल खान, वेलुशा डिसूजा, राजेश तैलंग, अंकुर भाटिया के किरदार भटकते रह गए हैं. ऐसा लगता है कि ये लोग शाकिब-श्रीया की कहानी को ब्रेक देने के लिए बीच-बीच में एंट्री लेते हैं. खास तौर पर इकबाल-वेलुशा के ट्रेक और कैरेक्टरों पर काम का अभाव खटकता है. राजेश तैलंग की प्रतिभा का भी यहां सही इस्तेमाल नहीं हुआ.



यह अलग बात है कि इन सभी कलाकारों ने अपने-अपने हिस्से में आए काम को अच्छे ढंग से निभाया. वेबसीरीज को बढ़िया शूट किया गया है और बैकग्राउंड म्यूजिक समेत तकनीकी विभाग मजबूत हैं. वेबसीरीज में सीजन के मोह में भी अक्सर कहानियों से न्याय नहीं हो पाता. खास तौर पर सटीक अंत का अभाव खलता है. यह क्रेकडाउन में भी हुआ है. दूसरे सीजन के इशारे के साथ यहां पहला सीजन खत्म होता है.