शिक्षा तंत्र समाज की सबसे जरूरी परंतु सबसे भ्रष्ट संस्थाओं में से एक है. इसके इस स्थिति में पहुंचने को लेकर सबके अपने-अपने तर्क हैं. शिक्षा का एक धंधेबाज हलाहल में कहता है कि क्या करें इस देश में जैसे ही बच्चा पैदा होता है, मां-बाप उसे डॉक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं. अब सीटें तो गिनती की हैं. जबकि फिल्म के नायक पुलिसवाले का कहना है कि ये तो मैं आईपीएस करते हुए ही समझ गया था कि बच्चे पैदा करके उन्हें एजुकेशन दिलाने से अच्छा है, कुत्ता पाल लेना चाहिए. आप समझ सकते हैं कि शिक्षा की व्यवस्था आपको कैसे पीस सकती है. शिक्षण तंत्र से समाज जितना त्रस्त और पीड़ित है, उतना संभवतः किसी और संस्था से नहीं. यह ऐसा हलाहल यानी जहर बन चुकी है, जिसे पीना हर मां-बाप और इस समाज की भी मजबूरी है.


लेखक जीशान कादरी और जिब्रान नूरानी की कथा-पटकथा पर निर्देशक रणदीप झा ने हलाहल को रचा है. यूं तो शिक्षा तंत्र की खामियों पर हाल के वर्षों में आमिर खान की तारे जमीन पर (2007) और थ्री इडियट्स (2009), सैफ अली खान-अजय देवगन स्टारर आरक्षण (2011) से लेकर लेकर इमरान हाशमी की वाय चीट इंडिया (2019) तथा ऋतिक रोशन की सुपर 30 (2019) तक अगल-अलग कोणों से फिल्में बनी हैं मगर हलाहल थोड़ी अलग बात करती है. यह मध्य प्रदेश में इस सदी के अब तक के सबसे चौंकाने वाले घोटालों में से एक व्यापाम पर आधारित है. हालांकि इस घोटले की दर्जनों परतें और सैकड़ों कहानियां हैं मगर हलाहल में मेडिकल शिक्षा में हुए घोटाले की बात की गई है. यहां मेडिकल सीट के लिए असली पात्र/परीक्षार्थी की जगह नकली परीक्षा लिखने वाले बैठाने का धंधा चलता है. यह पूरा रैकेट है. जिसमें स्टूडेंट, कोचिंग क्लास के अध्यापक-संचालक, मेडिकल विश्वविद्यालय के डीन से लेकर, मेडिकल काउंसिल और भैयाजी उर्फ बड़े राजनेता तक शामिल हैं.



कहानी शुरू होती है अर्चना शर्मा की मौत के साथ. वह गाजियाबाद की एस कोचिंग एकेडमी में टीचर थी और हाईवे पर सड़क दुर्घटना में मारी जाती है. दुर्घटना के बाद उसकी लाश सड़क किनारे जला दी गई है. पुलिस इसे आत्महत्या बताती है. मगर अचर्ना के पिता डॉ.शिव शर्मा (सचिन खेड़ेकर) घटना को आत्महत्या स्वीकार करने को तैयार नहीं. वह न्याय चाहते हैं. तभी अर्चना के बैंक अकाउंट में उन्हें 12 लाख रुपये होने का पता चलता है. वह हैरान हैं कि इतना धन कैसे आया. उधर, एक भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर यूसुफ (बरुण सोबती) को भी फर्जी परीक्षार्थियों के रैकेट का पता चलता है. वह इसे लेकर कोचिंग क्लास वालों को ब्लैकमेल करके पैसा बनाने लगता है. डॉ.शिव शर्मा से मिलने के बाद उसके इरादे बदलते हैं और वह भी मामले की तह तक जाना चाहता है. कहानी नए ट्रेक पर आती है और एक-एक कर खुलते हुए राज चौंकाते हैं.



इरोज नाऊ पर आई इस फिल्म में कथानक यूपी-पंजाब का रखा गया है मगर आप व्यापम घोटाले के बारे में जानना-समझना चाहते हैं तो हलाहल मदद करेगी. यह शिक्षा की दुनिया का अंडरवर्ल्ड है. माफिया है. जिसके पीछे की बदबूदार गंदगी यहां सामने आई है. अगर यही वास्तविक सिस्टम है तो पढ़-लिख कर कुछ बनने के सपने देखना किसी हिमाकत से कम नहीं. नाकाबिल पैसा देखकर किसी भी कॉलेज में सीट खरीद सकते हैं. काबिल और काबिलीयत की किसी को जरूरत नहीं. खास बात यह कि तमाम किताबी और फिल्मी आदर्शवादी द एंड के बाद दुनिया की असली हकीकत कुछ और ही होती है. सवाल यह है कि क्या सब कुछ यूं ही चलता रहेगा. शायद, हां. लोगों को अशिक्षित और अचेत बनाए रखने की साजिश कामयाब है. सफलताओं के कई-कई लेने वाले हाईवे पर बढ़ने के लिए नौकरीपेशा-मजदूर और सामान्य मध्यमवर्ग की जेब के अनुपात में मोटे एंट्री-टोल टैक्स नाके हैं. फिर कैसे कुछ बदल सकता है. अगर संभव हो तो भ्रष्टाचार से ही इसमें सेंध लगाई जा सकती है.



हलाहल कड़वा घूंट है. जिसे न चाहकर भी आपको गले के नीचे उतारना पड़ता है. डॉ.शिव शर्मा और इंस्पेक्टर यूसुफ के किरदार अच्छे ढंग से लिखे गए हैं. बर्ताव में भ्रष्ट और दिल से नेक पुलिसिये बने बरुण सोबती को अच्छे संवाद भी मिले. मौका-ए-वारदात पर अक्सर अपने सीनियर से पहले पहुंचे दिखाए गए बरुण का यह डायलॉग रोचक है कि फिल्मों ने ही नाम खराब कर रखा है, हम तो टाइम से ही आते हैं वैसे. सचिन खेड़ेकर बेटी को न्याय दिलाने की कोशिश में लगे पिता के रूप में जमे हैं. बरुण का किरदार थोड़ा फिल्मी बनकर पर्दे पर रंग ही भरता है. इक्का-दुक्का बातें नजरअंदाज करें तो रणदीप झा ने फिल्म को रफ्तार में कहा है और कहानी का रोमांच बनाए रखा है. वह कुछ स्थितियों और किरदारों को अधिक स्पष्ट करते तो बेहतर होता. यह फिल्म उन्हें पसंद आएगी जो शिक्षा माफिया का सच जानना चाहते हैं.