Kaali Khuhi Review: इस हॉरर फिल्म में ना कोई डर, ना रहस्य-रोमांच और मनोरंजन भी गायब
Kaali Khuhi Review: अगर ऐसी हॉरर फिल्म देखना चाहते हैं जिसमें डर न लगे तो काली खुही आपके लिए है. कमजोर कहानी और कई अतार्किक-अनसुलझी बातों वाली इस फिल्म से रहस्य-रोमांच-मनोरंजन गायब है. नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म जिस सामाजिक संदेश की बात करती है, वह दर्जनों कमियों के मलबे में दब जाता है.
टैरी समुंदरा
शबाना आजमी, लीला सैमसन, संजीदा शेख, सत्यदीप मिश्रा, रीवा अरोड़ा, हेतवी भानुशाली, रोज राठौड़
सबसे पहली बात तो यही कि निर्माता-निर्देशक काली खुही को हॉरर फिल्म बता कर प्रमोट करते रहे, मगर यह हॉरर-शून्य है. फिल्म आज ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई. अगर आपने नेटफ्लिक्स पर बीते जून में अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस की बुलबुल देखी थी तो समझ लीजिए कि काली खुही उससे भी कमजोर है. काली खुही डेढ़ घंटे की है मगर यहां आपको फिल्म में नहीं बल्कि अपने वक्त की बर्बादी से डर लगता है. बेटी बचाने-बेटी पढ़ाने का मैसेज हो या फिर हॉरर, काली खुही से कई गुना बेहतर फिल्में हिंदी में बन चुकी हैं. यह नेटफ्लिक्स पर हाल दिनों की सबसे कमजोर फिल्म है.
खुही का अर्थ पंजाबी में है कुआं. फिल्म में यहां काले कुएं से मतलब है, मौत का कुआं. पंजाब के एक गुमनाम गांव की कहानी कहती फिल्म बताती है कि यहां पैदा होने वाली लड़कियों को एक-दो पीढ़ी पहले तक गहरे-अंधेरे कुएं में फेंक कर मार दिया जाता था. कभी जहर चटा दिया जाता था. वक्त बदला तो थोड़ी चेतना बढ़ी. वह कुआं ढंक दिया गया.
इसके बावजूद जाने क्या हुआ कि एक दिन वह कुआं खुल गया. उसमें से एक लड़की (साक्षी) की रूह बाहर निकल आई. यही रूह अब उस घर के सदस्यों की जान ले रही है, जहां पैदा होने पर उसे मार दिया गया था. इसी घर में है 10 साल की बालिका शिवांगी (रीवा अरोड़ा). जो अंत में रूह को मुक्ति देती है और फिर सब ठीक हो जाता है.
भले ही पटकथा में कसावट है परंतु फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है. इसमें नयापन कुछ नहीं है. रामगोपाल वर्मा की वास्तुशास्त्र के जमाने से हमारे यहां बच्चों को हॉरर फिल्मों में भूत दिखते हैं. काली खुही में भी शिवांगी केंद्र में है. वास्तव में इस फिल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं, जो डरा सके.
लेखक-निर्देशक ने तार्किकता का भी ख्याल नहीं रखा. जो बच्ची अपने बड़े भाई के बाद पैदा हुई और जन्मते ही मार दी गई, उसकी रूह किशोरवय लड़की के रूप में सामने आती है. वक्त के साथ यहां रूह की उम्र भी बढ़ी और रूप बदल गया. हॉरर घटनाएं यहां रामसे ब्रदर्स मार्का फिल्मों जैसी हास्यास्पद हो जाती हैं और भैंस दूध के बजाय खून देने लगती है.
काली खुही सामाजिक कुरीतियों के नाम पर अंधविश्वास भी ऐसे दिखाती है, मानो उन्हें बढ़ावा दे रही हो. फिल्म में सास (लीला सैमसन) अपनी बहू प्रिया (संजीदा शेख) से नाराज है कि उसने अपनी जिद से बेटी पैदा कर ली. अगर बहू ने सास की दी हुई लड़का पैदा करने वाली दवा खाई होती, तो परिवार के गले लड़की (शिवांगी) के रूप में यह बोझ नहीं पड़ता. कहानी में बार-बार जिक्र आता है कि गांव को रूह का शाप लगा है, महामारी लौट आई है, साढ़े साती लग गई है. परंतु यह कहीं स्पष्ट नहीं होता कि गांव को किस रूह का कौन सा शाप लगा और कौन सी महामारी लौट कर आई है या कैसी साढ़ी साती लगी.
विदेश में ऐसी ही खराब फिल्मों द्वारा भारत को अंधविश्वसी और पिछड़ा दिखाया जाता है. जिनके लेखक-निर्देशक भारतीय संस्कारों, धर्म, रीति-रिवाजों और बदलते समाज से अनभिज्ञ रहते हैं. कहानी में सत्या मौसी (शबाना आजमी) के पास एक किताब है, जिसमें गांव में पैदा हुई उन लड़कियों के नाम दर्ज हैं, जिन्हें पैदा होते ही मार दिया गया. क्या पैदा होते ही लड़कियों के नाम रखे गए और फिर मारा गया. भूत से डरी हुईं शबाना आजमी यहां भगवान के सामने गायत्री मंत्र पढ़ती हैं. कहानी और किरदारों के स्तर पर यहां कई बातें हैं जो फिल्म में साफ नहीं होतीं.
निर्देशक टैरी समुंदरा भारत में पैदा हुईं और अमेरिका मे रहती हैं. उनके सह-लेखक अमेरिकी हैं. इससे पहले टैरी शॉर्ट फिल्में निर्देशित करती रही हैं. यह उनकी पहली फुल लेंथ फिल्म है. जो भटकी हुई है. निराश करती है. शबाना आजमी आधी फिल्म गुजरने के बाद केंद्र में आती हैं. लेकिन किसी तरह फिल्म को सहारा नहीं दे पातीं.
काली खुही का कलर टोन अधिकतर डार्क है और इसमें किसी तरह का एंटरटेनमेंट नहीं है. फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है और थ्रिल गायब है. भूत या रूह के बहाने भारतीय समाज में कन्या-जन्म और कन्या-भ्रूण का अधकचरा यर्थाथ दिखाने की कोशिश करती यह फिल्म अंत आते-आते फंतासी में बदल जाती है क्योंकि लेखक-निर्देशक को नहीं पता कि समस्या का हल क्या हो और बदलाव कैसे लाया जाए.