Bahut Hua Samman Review: सिर्फ सिनेमा में ही पर्दे के पीछे खेल नहीं होते. डेमोक्रेसी की फिल्म में भी पीछे बहुत कुछ पकता है. सत्ता और सिस्टम मे बैठे लोग खुद बढ़ना और पब्लिक को पीछे रखना चाहते हैं. वे तरह-तरह की अफीम जनता को चटाते और नचाते हैं. निर्देशक आशीष एस. शुक्ला की यह फिल्म ऐसे ही सिस्टम की कहानी है, जिसका आज तक बहुत सम्मान हुआ.


यहां वाराणसी की उत्तर भारत यूनिवर्सिटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के दो सबसे खराब स्टूडेंट बोनी (राघव जुयाल) और फंडू (अभिषेक चौहान) बैच के लड़कों से पीछे रह गए हैं. वे देखते हैं कि देश में पांचवी पास ढोंगी तो करोड़ों कमा रहे हैं और 9-टू-5 में फ्यूचर ढूंढने वाले ग्रेजुएट को जॉब नहीं है. मतलब प्रॉब्लम देश में है, यूथ में नहीं. मिसगाइडेड लगते बोनी-फंडू को गाइड के रूप में तभी कैंपस में 25 साल सात महीने से रह रहे बाबा (संजय मिश्रा) से ज्ञान मिलता है.


बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया. कैंपस का एमसीबीसी बैंक लूटो. बाबा को लोग पागल समझते हैं. वह मानता है कि पूंजीवाद और कंज्यूमरिज्म से मानवता मर रही है. बैंक में सेंध लगने के साथ कहानी रफ्तार पकड़ती है. गुरु बैरागी आनंद महाराज, नेता अजय परमार, पुलिस इंस्पेक्टर बॉबी तिवारी से लेकर रेत माफिया गैंग के राजू-भोला (भूपेश कुमार सिंह-शरत सोनू) और उनकी संयुक्त प्रेमिका सपना (फ्लोरा सैनी) की एंट्री हो जाती है.


 


कहानी के केंद्र में बोनी-फंडू है लेकिन इसका पूरा नियंत्रण बाबा के हाथ में है. वह हर चीज का मास्टर माइंड है और तमाम फिलॉसफी उसकी जेब में है. वह बताता है कि बैंक पूंजीवाद की कोख हैं और आतुरता ही आविष्कार की जननी है. वह कहता है कि क्रांति कोई दो-ढाई घंटे की फिल्म नहीं है. डेमोक्रेसी में क्रांति निरंतर चलनी चाहिए. धाराप्रवाह. क्रांति का बहाव रुक गया तो विचारों की नदी कट्टरवाद का नाला बन जाएगी.


लोकतंत्र में अच्छी बात यह है कि लोगों के पास सवाल पूछने का अधिकार है. सवाल करो. लोग आवाज नहीं उठाएंगे तो भक्त बन कर रह जाएंगे. भक्त नहीं भागीदार बनें क्योंकि यह देश आपका भी है. संजय मिश्रा का रोल बढ़िया ढंग से लिखा गया है, उसमें ऐसी फकीरी है जो कभी भी झोला उठा कर इस संसार को त्याग के आगे निकल सकती है. संजय ने इसे खूबसूरती से निभाया है.


डिज्नी+हॉट स्टार पर गांधी जयंती पर आई यह फिल्म देश के वर्तमान हालात, नेताओं, अपराधियों और धंधेबाज बाबाओं पर बहुत कुछ इशारों में कहती है. चेहरों पर पड़े नकाब उठाती है. समझदार को इशारा काफी वाले अंदाज में कहानी कहती है कि आज धर्म का अफीम की तरह इस्तेमाल हो रहा है और इसकी आड़ में बड़ा बाजार भी खड़ा कर लिया गया है. लोग आज नहीं चेते तो शायद वह भी समय आएगा जब सबकी सोचने-समझने की ताकत छीन ली जाएगी. कंज्यूमरिज्म और धर्म का नशा मिलकर लोगों को पंगु बना देगा और कारखानों-दफ्तरों में इंसान की जगह मशीनें ले लेंगी. तब क्या होगा। एक नई गुलामी की शुरुआत होगी.



खास बात यह है कि फिल्म इन बातों को कॉमेडी और फैंटेसी जैसी शैली में कहती है। बैकग्राउंड में 1970-80 के दशक का संगीत कड़वी गोली पर मीठी परत का काम करता है. यह अलग बात है कि इसमें ऐसे शब्दों की भरमार है जिन्हें यहां लिखा नहीं जा सकता मगर फिल्म गुदगुदाती है और सोचने पर भी मजबूर करती है. फिल्म में बैंक से लुटा एक कोहिनूर है, जिसका रहस्य रोमांचित करता है. यहां सब पे भारी बॉबी तिवारी पुलिसवाली (निधि सिंह) और उसके शिक्षा विभाग में काम करने वाले पति का रोचक ट्रेक है.


फिल्म की रफ्तार कुछ धीमी होने के बावजूद अंत में यह तेज गति से आगे बढ़ती है. आशीष एस. शुक्ला ने किरदारों में संतुलन बनाए रखा और कहानियों के अलग-अलग ट्रेक समय से खत्म करने की समझदारी दिखाई. हाल के दिनों में ऐसे कम निर्देशक आए हैं जिन्होंने कहानी के समानांतर इशारों में कुछ कहने की कोशिश की. वर्ना ज्यादातर सपाटबयानी से काम चलाते हैं.


राइटरों ने भी अपना काम बढ़िया ढंग से किया है. जब लड़ाई सिस्टम से हो तो सिस्टम के कायदे-कानून को साइड में रखना पड़ता है, गोरखपुर कौन सेक्स करने जाता है और जीवन क्या है अनुभवों का एक कारवां हैं, जैसे संवाद याद रह जाते हैं. इस गैर सितारा फिल्म में दिखाई बातों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं परंतु एक अनुभव के लिए इसे देख ही सकते हैं. सितारों वाली फिल्मों का सम्मान तो पहले बहुत हो ही चुका है.