हर मोहल्ले, हर गली में इंग्लिश मीडियम खुल चुके हैं मगर शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल की बात ही अलग होती है. वहां अपने बच्चे को भेजने का ख्वाब कच्ची बस्ती वालों की आंखों में भी होता है. मगर सवाल हैसियत का उठता है. सबको समान शिक्षा का लक्ष्य पाना इतना आसान नहीं. निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा ‘अंबेडकर बस्ती’ में रहने वाले बुच्ची पासवान (आदिल हुसैन) के सपने की कहानी अपनी फिल्म परीक्षा (Pareeksha movie review) में लाए हैं. सपना अपने बेटे बुलबुल (शौर्य दीप) को रांची के सबसे बड़े अंग्रेजी मीडियम सेफायर इंटरनेशल में पढ़ाने का. बुच्ची हर रोज इस स्कूल के बच्चों को साइकल रिक्शा पर ढोकर ले जाता और यही सोचता है कि क्या उसके किशोरवय बुलबुल का यहां एडमीशन हो सकेगा. परंतु महंगी फीस कैसे भरी जाएगी.
इस कहानी में प्रकाश झा ने टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों के बजाय कुछ सीधे-सरल रास्ते बनाए हैं. वह अपनी पिछली सामाजिक फिल्मों की तरह यहां किसी बहस में नहीं पड़ते और सीधे-सीधे बात कहते हैं. उन्होंने बुच्ची के सपनों को धैर्य से रचा है. बुच्ची बने आदिल हुसैन की खूबी यह है कि जब-जब वह बुलबुल की पढ़ाई की बात करते हैं तो आपको सपने उनकी आंखों में दिख भी जाते हैं. बुच्ची की सीधी-सच्ची राय है कि स्टेट बोर्ड वाले सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल में उसका बेटा भले ही अव्वल आए मगर जिंदगी में तरक्की की राह निकलेगी तो सीबीएसई के कोर्स वाले सेफायर इंटरनेशल में पढ़ने से ही. ऐसा नहीं हुआ तो बुलबुल को भी शायद साइकल रिक्शा के पैडल मार कर ही जिंदगी गुजारनी पड़े. बुच्ची के सपने को उसके आस-पास रहने वालों का सपोर्ट नहीं है. एक कहता है, हो सकता है कि बुलबुल अंग्रेजी पढ़ ले तो इलेक्ट्रिक रिक्शा भी चला सकता है. जबकि दूसरे का कहना है, सफायर में पढ़ाई का ख्याल तो बहुत फॉरवर्ड है पर पॉसिबल नहीं है.
क्या वाकई सच का एक ही पहलू है. प्रकाश झा ने सिटी एसपी बने संजय सूरी के रूप में बुच्ची के ख्वाबों का काउंटर बुना है. जो बुलबुल की तरह ही किसी सरकारी स्कूल में पढ़ता हुआ दिल्ली युनिवर्सिटी में टॉपर बना. असल मुद्दा है पढ़ाई की भूख का. किसमें वह कितनी है. जिसे पढ़ने की भूख होगी, वह आगे निकल जाएगा. परीक्षा में बुच्ची का सपना पूरा होता है. उसके बच्चे का सफायर इंटरनेशनल की क्लास टेन में एडमीशन हो जाता है. बच्चे की महंगी फीस, एक्स्ट्रा क्लास और कोचिंग के लिए वह दिन-रात एक करता है मगर फिर कहानी में एक ट्रेजडी होती है. जो बुलबुल की स्कूली परीक्षा से कहीं बड़ी है.
प्रकाश झा ने शिक्षा जगत में किसी खास वर्ग के लिए आरक्षण की डिमांड टाइप लटके-झटके और ऐक्शन कहानी में नहीं रखा. मगर वह शांत-संयत ढंग से वंचित वर्ग के बुद्धिमान, प्रतिभावान बच्चों के लिए एक प्रकार के आरक्षण की ही डिमांड यहां करते हैं. उनका तर्क है कि अगर समाज में तरक्की कर चुका, संपन्न वर्ग पीछे रह गए लोगों की मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाएगा, उनके काबिल बच्चों को अपने बीच जगह नहीं देगा तो वे लोग आगे कैसे बढ़ेंगे. इस गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा वाली व्यवस्था में प्रकाश झा गांधीवादी सादगी की उम्मीद करते हैं. जो एक किस्म का आदर्श हो सकती है. परंतु क्या सचमुच यह संभव है या ऐसा भी होता है.
मृत्युदंड (1997), गंगाजल (2003), अपहरण (2005), राजनीति (2010), आरक्षण (2011), चक्रव्यूह (2012), सत्याग्रह (2013) और जय गंगाजल (2016) जैसी फिल्मों में समाज, प्रशासन तथा सत्ता से टकराते रहने वाले प्रकाश झा के तेवर परीक्षा में पूरी तरह बदले हुए हैं. वह यहां किसी से नाराज तक नहीं होते. बल्कि टकराव पैदा करने वाली परिस्थितियों का सिंपल बना देते हैं. बुरे आदमी यहां उतने बुरे नहीं हैं कि आपके रक्त का ताप बढ़ जाए. क्या प्रकाश झा में आया बदलाव यह बताता है कि सत्ता से टकराव वाला सिनेमा बनाने का वक्त बीत चुका है. यह अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का समय नहीं है. अगर ऐसा है तो सचमुच बहुत दुखद है. बावजूद इसके कि फिल्म समाज में परिवर्तन की कुछ जरूरी बातें करती हैं, इसकी आवाज में इंकलाब नहीं है. जो पिछली फिल्मों में प्रकाश झा का मुख्य स्वर रहा है.
परीक्षा की कहानी भले ही रूमानी-सी हो मगर इसकी सख्त रीढ़ हैं, आदिल हुसैन. वह जिस अंदाज और रंग-ढंग में अपने किरदार में ढले हैं, उसे देख कर लगता है कि वह बरसों से बच्चों को अपने साइकिल रिक्शा पर ढो रहे हैं. उनका यह किरदार सिनेमा के अध्ययन की किताबों में दर्ज होने काबिल है. प्रियंका बोस, शौर्य दीप और संजय सूरी अपनी भूमिकाओं में फिट हैं. प्रकाश झा के अनुसार परीक्षा सच्ची घटना या घटनाओं से प्रेरित है. इससे हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि जब चारों ओर घनघोर अंधेरा हो, तब भी कहीं न कहीं एक दीया जलता रहता है.