हिंदी पट्टी के प्रयागराज के इस परिवार में आप ‘वार’ अंग्रेजी का समझें क्योंकि यहां चारदीवारी के अंदर होने वाले एक ‘युद्ध’ की कहानी है. यह कॉमेडी घर घर की तो नहीं है लेकिन उससे कम भी नहीं है. बेहद मामूली से दिखने वाले पुश्तैनी रईस काशीराम नारायण (गजराज राव) के तीनों वयस्क बच्चे सैटल हैं. बड़का महिपाल (यशपाल शर्मा) वाराणसी में, छुटका शिशुपाल (रणवीर शौरी) मुंबई में और बेटी गुड्डन उर्फ मंदाकिनी (निधि सिंह) यूएस में. समस्या यह कि तीनों ही अपनी जिंदगी में खाली-पीली व्यस्त हैं और पिता के पास आना नहीं चाहते. काशीराम नारायण अपने नौकर बबलू (कुमार वरुण) के भरोसे हैं. बच्चों की याद में परेशान काशीराम क्या करें. तब तय होता है कि अस्पताल में भर्ती हो जाएं. ‘अंतिम समय’ जैसी खबर बच्चों को दी जाए. यहां तक परिवार का प्लॉट सामान्य लगता है मगर इसके बाद की घटनाएं रोमांचित करती हैं. वजह यह कि भाइयों में आपस में बनती नहीं और पिता से भी उन्हें खास लगाव नहीं है क्योंकि वे पिता की जायदाद के होते हुए भी मिडिलक्लास जिंदगी जी रहे हैं. दूसरों के द्वारा हड़काए जा रहे हैं.
लकड़बग्घे जैसे बंधुओं महिपाल-शिशुपाल का दर्द यह है कि जिनके बाप पैसे देने से मना करते हैं उनको दुनिया की गालियां खाने को मजबूर होना पड़ता हैं. दोनों के सीने में तीर तब लगता है जब पता चलता है कि काशीराम ने पुश्तैनी चालीस में से तीस बीघा जमीन एक विधुर आश्रम बनाने के लिए दान करने का फैसला किया है, जो एशिया का सबसे बड़ा आश्रम होगा. इस योजना की अगुवाई कर रहा है थियेटर आर्टिस्ट गंगाराम (विजय राज). अब महिपाल, शिशुपाल और गुड्डन उर्फ मंदाकिनी क्या करेंगे. परिवार का ‘वार’ किस सीमा तक जाएगा. कहानी में कुछ और भी गुदगुदाने वाले किरदार हैं.
ऐसे दौर में जबकि ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर क्राइम और सेक्स वाली वेबसीरीजें सफलता की गारंटी मानी जा रही हैं डिज्नी-हॉटस्टार पर आई परिवार साफ-सुथरा और परिवारिक मनोरंजन है. यह आपको गुदगुदाती और कई जगह पर हंसाती है. यह फ्री है. इस ओटीटी का सब्सक्रिप्शन न होने पर भी आप इसे देख सकते हैं. परिवार औसतन आधे-आधे घंटे की छह कड़ियों वाली कहानी है, जिसे सफाई से बुना गया है. हंसाने के उद्देश्य से ही लिखा गया है. इसे जीवन के करीब से करीब रखा गया है. गगनजीत सिंह और शांतनु अनम ने वेबसीरीज लिखी है. यहां जो कहानी है, वह जोश से कही गई है. कहीं मिन-मिन मिन-मिन नहीं है. कई संवाद रोचक हैं. जैसे शिशुपाल और काशीराम की यह बातचीत. -शिशुपालः इलाहाबाद में तो कोई खुश रह ही नहीं सकता. इसलिए अमिताभ बच्चन बंबई चले गए थे. -काशीरामः नहीं बेटा वो हरिवंश जी गए थे पहले. तुम्हारी हिस्ट्री कमजोर है शुरू से.
कहानी में पारिवारिक उठा-पटक के साथ थोड़ी जगह प्यार करने वालों और अपराध करने वालों को भी दी गई है. इससे मामला एक रस नहीं होता. इसी तरह पिता की आयु बढ़ाने वाले मृत्यु विजय यज्ञ का ड्रामा रोचक है. साथ में महिपाल-शिशुपाल की शादी की संक्षिप्त कहानी और जीवन संगिनियों, अंजू-मंजू के साथ उनके समीकरण भी मजेदार हैं. असल जीवन में जर-जमीन की लड़ाइयों में अक्सर अपने ही अपनों का खून बहाते हैं या फिर अदालत के फेरे करने लगते हैं. लेकिन नारायण परिवार में बात बहुत आगे तक जाने के बाद भी लिमिट में रहती हैं. दोनों भाई एक-दूसरे के दुश्मन होकर भी शाम को युद्ध विराम करके साथ में ड्रिंक करते हैं. उनकी पत्नियां सगी बहनें हैं, इसलिए उनके बीच का तनाव नियंत्रित रह कर रोमांचक स्थितियां पैदा करता है. किसी भी कॉमेडी की अच्छी बात यह होती है कि तमाम लाठी-डंडे चलने के बावजूद अंत में सब हंसते-हंसते ठीक हो जाता है. आप बिना किसी तनाव के फ्री होते हैं.
परिवार में किरदारों को रोचक ढंग से गढ़ते हुए उन्हें हल्का कॉमिक टच दिया गया है. यही वजह है कि काशीराम के शुभचिंतक से बढ़कर उत्तराधिकारी लगने वाले विजय राज भी यहां लाउड नहीं होते. फिल्म बधाई हो के साथ गजराज राव ने तेजी से दर्शकों में पहचान बनाई है और इधर उनकी कॉमेडी का खास अंदाज उभर कर आया है. जिसमें न तो वह ज्यादा बोलते हैं और न अनावश्यक हिलते-डुलते हैं. उनकी आंखें और बुदबुदाते हुए होंठ तमाम बातें कह जाते हैं. यहां निर्देशक ने उन्हें अनोखा गेट-अप दिया है. यशपाल शर्मा और रणवीर शौरी ने अपना काम मंजे हुए ढंग से किया है. दोनों की ट्यूनिंग भी अच्छी रही. अन्य कलाकार भी अपने-अपने किरदारों में फिट हैं. सागर बेल्लारी ने 2007 में फिल्म भेजा फ्राई से तहलका मचाया था लेकिन उसके बाद बनाई फिल्में कब आईं, कब गईं पता नहीं चला. मगर परिवार के साथ एक बार फिर लगता है कि वह अपनी पुरानी ट्यून को काफी हद तक पकड़ने में कामयाब हैं.