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Roohi Review: कहानी में उलझी जाह्नवी-राजकुमार की अदाकारी, कमजोर स्क्रिप्ट ने मेहनत पर फेरा पानी

Roohi Review: एक रोचक आइडिया कमजोर स्क्रिप्ट और अनावश्यक प्रयोग करने से कैसे खराब होता है, यह रूही में दिखता है. जाह्नवी कपूर रूही और अफजा बनकर रूह-अफजा बनती हैं, मगर दर्शक के दिल को इससे ठंडक नहीं मिलती.

Roohi Review: 2018 में राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की फिल्म स्त्री देखने वालों ने कहा था, ‘ओ स्त्री फिर आना’. लेकिन अब वही बैनर (मैडॉक फिल्म्स) उसी तर्ज पर बनी रूही लाया है तो लोग कह रहे हैं, ‘ओ स्त्री तुम क्यों आई.’ करीब एक साल बाद थियेटरों में बॉलीवुड की कोई सितारा-फिल्म आई और उसने दर्शकों को निराश किया है.

राजकुमार राव और वरुण शर्मा के साथ यहां जाह्नवी कपूर हैं. मगर इस हॉरर-कॉमेडी में स्त्री वाली बात नहीं है. तुलना न भी हो तो रूही पैसा वसूल नहीं है. वास्तव में फिल्म की कहानी छोटी-सी है, जिसे खींच-तान कर लंबा किया गया है. नतीजा यह कि गढ़ी हुई कॉमेडी और मेक-अप से डरावनी बनी नायिका में जल्दी ही दर्शक की दिलचस्पी खत्म हो जाती है.

कथा-पटकथा-संवाद लेखक मृगदीप सिंह लांबा और गौतम मेहरा कई सिरे ठीक से बांध नहीं पाते. वे कभी अंग्रेजी की टांग तोड़ने वाले शब्दों से कॉमेडी पैदा करने की कोशिश करते हैं तो कभी पुरानी फिल्मों के संवादों को नई सिचुएशन में डाल कर हंसाना चाहते हैं. मगर दोनों ही मामले में वे नाकाम हैं. रूही के मूल आइडिया में भले ही नएपन की थोड़ी चमक दिखती है लेकिन देखते-देखते भी गायब हो जाती है. कहा जाता है कि हॉरर फिल्मों में तर्क नहीं ढूंढना चाहिए मगर यहां कई बातें चाहते हुए भी गले नहीं उतरती.

Roohi Review: कहानी में उलझी जाह्नवी-राजकुमार की अदाकारी, कमजोर स्क्रिप्ट ने मेहनत पर फेरा पानी

फिल्म में यूपी/बुंदेलखंड के नजर आते बागड़पुर में लड़कियां पसंद आने पर उन्हें पकड़ कर ब्याह कर लिया जाता है. ‘पकड़वा शादी’ में आम तौर यह दिखता रहा है कि दबंग लोग पढ़े-लिखे-अफसर लड़कों को किडनैप करके उनसे अपनी लड़कियों की शादी करा देते हैं. मगर बागड़पुर में लड़कियां शादी के लिए उठवाई जाती हैं.

यह अपने आप में स्त्री-विरोधी आइडिया है. लोकल डॉन गुनिया शकील (मानव विज) यहां अपने लोगों से लड़कियां उठवाता है. उसी के लिए काम करने वाले लोकल पत्रकार भंवरा पांडे (राजकुमार राव) और कट्टानी कुरैशी (वरुण शर्मा) अमेरिकी रिपोर्टर (एलेक्स ओनील) की ‘पकड़वा शादी’ पर डॉक्युमेंट्री बनाने में मदद भी करते हैं. कहानी में ट्विस्ट यह कि उठाई गई लड़कियों के शरीर में शादी के बाद चुड़ैल घुस जाती है. जब भंवरा और कट्टानी मिलकर रूही को उठा लाते हैं तो ठिकाने पर पहुंचाने के बजाय हालात उन्हें जंगल में पहुंचा देते हैं. यहां पता चलता है कि रूही के जिस्म में अफजा नाम की लड़की की रूह है. रूही और अफजा मिलकर रूह-अफजा बनता है, मगर इससे दर्शक के दिल को ठंडक नहीं मिलती. अफजा बदला लेना चाहती है.

Roohi Review: कहानी में उलझी जाह्नवी-राजकुमार की अदाकारी, कमजोर स्क्रिप्ट ने मेहनत पर फेरा पानी

अफजा कब रूही बन जाती है, रूही को पता नहीं चलता और रूही जब अफजा बनती है तो दर्शक के दिल में कई सवाल पैदा हो जाते हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा आप तब चौंकते हैं, जब देखते हैं कि भंवरा रूही को दिल दे बैठा है मगर कट्टानी का दिल रूही के जिस्म में रह रही अफजा पर आ जाता है. इस तरह चार आत्माओं के प्रेम का यह अनोखा त्रिकोण बन जाता है. वास्तव में फिल्म यहीं से पटरी से उतरने लगती है, जो चीज अनोखी नजर आती है, वही लेखकों के लिए चुनौती बन जाती है. वे इसे संभाल नहीं पाते हैं और फिल्म दर्शकों से दूर निकल जाती है. फिल्म का क्लाइमैक्स स्त्री की तरह रखने के चक्कर में दर्शक को निर्माता-निर्देशक दुविधा में फंसा देते हैं. वह पलट कर देखता है तो कई सवालों के जवाब उसे नहीं मिले और अंततः वह खुद पर हंस कर रह जाता है.

फिल्म की नाकामी की वजहें इसकी स्क्रिप्ट में है. जो कहानी बढ़ने के साथ ढीली पड़ती जाती है. लेखक आइडियों से खाली होते जाते हैं और लगता है कि वह वाट्सऐप यूनिवर्सिटी में चलने वाले मैसेजों के भरोसे पर कहानी बढ़ा रहे हैं. हॉरर न तो कहानी में दिखता है और न रूही के अफजा बनने में. दूसरे हिस्से में फिल्म पूरी तरह से ढलान पर आ जाती है. इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ कर राजकुमार राव प्रभावित नहीं करते.

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जबकि उनके सहायक की भूमिका में दिखने वाले वरुण शर्मा कई जगह उन पर भारी पड़ जाते हैं. लेकिन वरुण की समस्या यह है कि वह छिछोरे (2019) को छोड़ कर कभी फुकरे (2013) के चूचा वाले रोल/छवि से बाहर नहीं निकल सके हैं. जाह्नवी जैसी अभिनेत्रियां अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए नायिका-प्रधान फिल्मों के मोह में फंसती हैं. ऐसे में उनमें सिर्फ संभावना ही दिखती है, प्रतिभा नहीं. आधी फिल्म तक उन्हें यहां संवाद बोलने का मौका नहीं मिला. सरिता जोशी छोटी सी भूमिका में असर छोड़ जाती हैं.

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पिछले साल संजय मिश्रा को लेकर कामयाब जैसी फिल्म देने वाले हार्दिक मेहता का यहां कहानी पर नियंत्रण नहीं रहता. अंतिम मिनटों में जरूरत से ज्यादा प्रयोग करने की जिद, अतिरंजित ड्रामा और असमंजस के साथ तेज-धूम-धड़ाम करता बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म का मजा खराब करते हैं. भूतहा कहानी को मजे के लिए मान भी लें तो इसमें जादू-टोने-टोटके, झाड़-फूंक के लंबे दृश्य और अपहरण की घटनाओं पर मौज, आपको समय से पीछे ले जाती है.

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