Silence… Can You Hear It? Review: हर दिन दुनिया के किसी न किसी कोने में जो आम घटनाएं कुछ-कुछ मिनटों-घंटों में घट रही होती हैं, उनमें से एक है मर्डर. इनमें से अधिकतर मौका-ए-वारदात के लड़ाई-झगड़ों और गुस्से में होते हैं लेकिन कुछ के पीछे ईष्या-द्वेष और साजिशें रहती हैं. इनका रहस्य सुलझाने में पुलिस की परीक्षा होती है और कई बार इन्हीं में रोमांचक कहानियां निकलती हैं. जिन्हें दर्शकों को चौंकाने के लिए पर्दे पर उतारा जाता है.
इस फिल्म का नायक कहता है, ‘मौत भी एक मनोरंजन है.’ रहस्यमयी हत्याओं की कहानियों के कुछ फॉर्मूले होते हैं, जिनमें सबसे चालू फार्मूला हैः जिस पर सबसे कम शक जाए, वही अंत में कातिल निकलता है! क्या जी5 पर रिलीज हुई 'साइलेंस... कैन यू हीयर इट' में भी ऐसा है. यह आपको फिल्म देख कर पता चलेगा.
साइलेंस... की अच्छी बात यह है कि लेखक-निर्देशक ने इसे भले ही चालू मसालों से बनाया मगर संतुलन बनाए रखा. शोर-शराबा, बेवजह भाग-दौड़, धमाकेदार बैकग्राउंड म्यूजिक, उत्तेजक दृश्यों का तड़का यहां नहीं है. हवस, दौलत, कारपोरेट प्रतिद्वंद्विता भी यहां हत्या की वजह नहीं है.
प्लॉट सीधा-सरल है कि एक खूबसूरत युवती पूजा चौधरी (बरखा सिंह) रात को अपनी सहेली के घर आती है. सहेली पूणे गई है. सहेली का नेता पति रवि खन्ना (अर्जुन माथुर) है. पूजा सहेली को एक सरप्राइज देना चाहती है और कहती है कि वह रात में यहीं रुकेगी और सुबह पूना निकल जाएगी. सुबह पूजा को बाय कह कर रवि खन्ना काम से निकल जाता है और घर में पूजा का मर्डर हो जाता है. मगर लाश मिलती है एक पहाड़ीनुमा ट्रेकिंग साइट पर. क्यों हुआ मर्डर, किसने किया और लाश घर से ट्रेकिंग साइट पर कैसे पहुंची. इस पूरे हादसे का कोई गवाह नहीं है. तमाम कहानी इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द घूमती है. मर्डर की जांच मुंबई पुलिस के एसीपी अविनाश वर्मा (मनोज बाजपेयी) को सौंपी जाती है. काम उसे देते हुए कमिश्नर उससे कहते हैं, ‘रिजल्ट वो जो हम चाहें. तरीका वो जो तुम चाहो.’
साइलेंस सधी रफ्तार से चलती है. उसका लक्ष्य साफ है, हत्यारे को ढूंढना. कहानी में रवि खन्ना के घर में रामू काका टाइप नौकर दादू, पूजा के रिटायर जज पिता और मां, उनके घर में रहने वाला उनके दोस्त का बेटा ऋषभ और उसकी मंगेतर, सीढ़ियों से गिर कर कोमा में चली गई रवि खन्ना की पत्नी कविता में भी हैं. यूं तो कहानी बार-बार रवि खन्ना के अपराधी होने की तरफ संकेत करती है मगर आप अपने फिल्मी अनुभव से जानते हैं कि उसने हत्या नहीं की होगी. अतः निगाहें बाकी सब पर ठहरती है. बीच में रवि खन्ना के घर में आने वाली नौकरानी और लाश ठिकाने लगाने वाला एक बार बाउंसर भी आता है. दोनों कहानी में अपनी-अपनी जगहों पर फिट हैं.
साइलेंस... पूरी तरह मनोज बाजपेयी के परफॉरमेंस से बंधी हुई कहानी है. हाल में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है और इस फिल्म में वह फिर खुद को शानदार साबित करते हैं. वह जब स्क्रीन पर होते हैं तो नजरें उन्हीं पर गड़ी रहती है. निश्चित ही माहौल बनाए रखने में उन्हें साथी कलाकारों का सहयोग मिला है. यहां एक मोड़ आता है, जब लगता है कि एसीपी वर्मा और उनकी जूनियर संजना भाटिया (प्राची देसाई) के बीच रोमांस पनप सकता है लेकिन लेखक-निर्देशक ने खूबसूरती से यह एक्सीडेंट बचा लिया. हालांकि कुछ पुलिसिया-फार्मूलों का मोह वह नहीं छोड़ सके. जैसे, काबिल एसीपी के काम करने के अंदाज से सीनियरों का नाराज रहना. बीच में उसे केस से बेदखल करने की कोशिश करना या बेदखल कर देना, एसीपी का बिखरा पारिवारिक जीवन. यहां एसीपी के सुंदर घर के रैक शराब की बोतलों से सजे हैं और मां समय-समय पर फोन कर बेटे की चिंता करती रहती है.
बीच में थोड़ी ढीली पड़ने के बावजूद साइलेंस... बांधे रहती है. आखिरी आधे घंटे से पूर्व जिस तरह निर्देशक तमाम किरदारों को एक छत के नीचे इकट्ठा करते हैं तो लगता है कि अब ड्रामा होगा और कुछ धमाकेदार राज खुलेंगे मगर ऐसा नहीं होता. यहां थ्रिलर में नाटकीयता नहीं है. अबन भरूचा देवहंस 2015 में शॉर्ट फिल्म टीस्पून से चर्चा में आए थे. उस फिल्म में उन्होंने चम्मच की आवाज को कहानी का आधार बनाया था, जबकि यहां वह खाली मकान की खामोशी में हुई हत्या को विस्तार देते हैं. अगर आप सहज कहानियों से असहज नहीं होते तो फिल्म एक बार देखने योग्य है और निराश नहीं करती.
Saina Movie Review: साइना में ड्रामा कम और इमोशन हैं ज्यादा, परिणीति का परफॉरमेंस करता है प्रभावित