The Big Bull Review: जिसे भी लगता है कि पिछले साल आई वेबसीरीज स्कैम 1992 की डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई फिल्म द बिग बुल से तुलना नहीं होनी चाहिए तो वह सही है. दोनों का कोई मुकाबला संभव नहीं है. वेबसीरीज के आगे द बिग बुल हर लिहाज से बौनी है. यहां कहानी 2020 में शुरू होती है, जब आर्थिक पत्रकार मीरा राव (इलियाना डिक्रूज) स्टॉक ब्रोकर से बिग बुल बने हेमंत शाह (अभिषेक बच्चन) पर लिखी अपनी किताब के बारे में लोगों से बात कर रही है. असल में यह फिल्म 1980-90 के दशक में भारतीय शेयर बाजार में तूफान लाने वाले हर्षद मेहता की कहानी है, जिसका लेखक-निर्देशक ने जिक्र नहीं किया है. इस लिहाज से यह पराया माल अपना वाला मामला है.
फिल्म बताती है कि साधारण नौकरी करने वाला हेमंत रातोंरात शेयर ब्रोकर और फिर उससे बढ़कर बड़ी चीज बन जाता है. इतनी बड़ी कि लोग उसे शेयर मार्केट का अमिताभ बच्चन कहते हैं. मगर मीरा उसे सिर्फ एक बुलबुला बता कर सवाल उठाती है कि क्या हेमंत को अंडरवर्ड फंडिंग कर रहा है. हेमंत शेयर बाजार में कंपनियों के शेयर कैसे अपने इशारों पर गिरा-उठा रहा है. अखबारों में विज्ञापन दे रहा है. हर तरफ उसकी तारीफ है और देखते-देखते वह देश का सबसे बड़ा करदाता बन गया है.
कहानी बताती है कि हेमंत कैसे भारतीय बैंकिंग सिस्टम की खामियों का फायदा उठाते हुए, उनके पैसे का इस्तेमाल शेयर बाजार में करता है और बिचौलिया बन कर मुनाफा अपनी जेब में डालता है. जबकि बैंकों का पैसा शेयर मार्केट में लगाना गैर-कानूनी है. इस काम में वह कुछ बैंकवालों को भी साधे रहता है. उनकी जेबें गर्म करता है. मगर आखिर में घर के भेदी भाई (सोहम शाह) के कमजोर आत्मविश्वास और राजनेताओं की चालाकी का शिकार बन जाता है.
हेमंत को धीरे चलना पसंद नहीं और यही बात उसे ले डूबती है. वह अपनी पत्नी प्रिया (निकिता दत्ता) से कहता है, ‘नेता किसी और को अमीर बनते नहीं देखना चाहते. नेता बस झूठे वादे करने में उस्ताद हैं. वे आपके सपने दफन करते. मैंने लोगों को सपने देखना सिखाया.’ फिल्म में हेमंत अपने पास तुरुप का इक्का होने की बात बार-बार करता है कि किसी भी संकट में वह उसे बचा लेगा. यह थोड़ा सस्पेंस है. फिल्म इस इक्के का पता सात रेसकोर्स रोड (तत्कालीन प्रधानमंत्री आवास) बताती है.
फिल्म में कुछ अहम समस्याएं हैं. स्क्रिप्ट कमजोर है. इलियाना डिक्रूज के बालों में चूने वाली सफेदी से पहले ही सीन में जी उचट जाता है. टीवी पर हेमंत का मीरा द्वारा लिया गया इंटरव्यू और हेमंत के दफ्तर-घर में आईटी वालों की रेड के दृश्य लंबे, उबाऊ और बेकार हैं. अखबार का दफ्तर यहां नकली लगता है. इन सबसे बढ़ कर अभिषेक बच्चन नहीं जमते. वह किरदार में फिट नहीं हैं. उनके हाव-भाव, संवाद अदायगी और बॉडी लैंग्वेज पैसे के चतुर गुज्जू भाई जैसी नहीं है. सिर्फ सफारी सूट, कोट और कुर्ते पाजामे से बात बन नहीं पाती. अभिनय जूनियर बच्चन से पहले भी कभी-कभार ही सधा है. अभिनेता और किरदार का मामला पैर और जूते की तरह होता है. पैर जूते में फिट नहीं बैठते तो आदमी लंगड़ता है. यहां फिल्म लड़खड़ाती है. फिल्म में हेमंत इतने रुपये गिनना चाहता है कि कैलकुलेटर में जीरो फिट न हो पाएं. मगर 20 साल के जवान करिअर में अभिषेक अपनी यादगार भूमिकाओं को दहाई तक नहीं ले जा सके हैं. आज भी उनका एकमात्र यादगार रोल गुरु (2007) है.
द बिग बुल से आप यह जरूर समझ सकते हैं कि नेता हों या उद्योगपति, उन्हें धन का फ्रॉड करने वाले काम के लगते हैं क्योंकि उनकी मदद से वे पैसा कमाते हैं. नेता अपनी सुविधा के लिए कानून और व्यवस्था को भी तोड़ते-मरोड़ते हैं. इसलिए आप सिस्टम से लड़ नहीं सकते. बीती सदी के आखिरी दो दशकों ने दुनिया और देश में जबर्दस्त बदलाव लाए. अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुलने से पहले मिडिल क्लास मनुष्य के लिए फ्रिज, टीवी, मोटर बाइक से लेकर परिवार के साथ कहीं जाकर छुट्टियां मनाना हसीन सपने की तरह था.
क्या 5000 करोड़ रुपये के बैंक प्रतिभूति घोटाले के आरोपी हर्षद मेहता ने शेयर बाजार में जो हालात पैदा किए, उसने मध्यम वर्ग की किस्मत पलटी? उससे ‘इंडिया रीबॉर्न’ हुआ. इसका इतिहास लिखा जाना बाकी है. फिल्म भी किसी विश्लेषण के चक्कर में नहीं पड़ती. वह हर्षद से प्रेरित, बगैर पैराशूट के ऊंची उड़ान भरने वाले हेमंत को नायक और खलनायक के बीच एक धुंध में खड़ा करती है. हेमंत कहता है कि पैसा कमाना एक कला है, स्कैम नहीं. हेमंत से उसकी पत्नी कहती है, ‘इस दुनिया में ज्यादातर लोग अपनी किस्मत लिखवा कर लाते हैं, लेकिन कुछ लोग अपनी किस्मत खुद लिखते हैं. तुम उनमें से एक हो.’ फिल्म का एक संवाद हैः कहानी किरदार से नहीं, हालात से पैदा होती है. लेखक-निर्देशक कुकी गुलाटी यहां वे हालात यहां नहीं बना पाते कि हेमंत या उसकी कहानी में दम नजर आए. ये कहानी में पैदा हालात ही थे, जिन्होंने स्कैम 1992 को मजबूत और यादगार बनाया.