The White Tiger Review: मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने कहा है कि जिस पल से तुम दुनिया की खूबसूरती समझने लगोगे, उस पल से तुम आजाद हो जाओगे. इस आजाद प्रजातंत्र में, जहां गरीब प्रजा होना सबसे बड़ा पाप है कोई गरीब कैसे दुनिया की खूबसूरती का अहसास कर सकता है. ऐसे प्रजातंत्र में, जहां शुरू से मालिक-नौकर और अमीर-गरीब के भेद सिखाए-समझाए जाते हैं, लोग कब दड़बों में बंद मुर्गों की तरह जीना सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता. मुर्गे देखते हैं कि कसाई उन्हीं के बीच के किसी को उठा कर गर्दन तराश रहा है, पंख नोंच रहा है, फिर भी वे सिर नहीं उठाते. फिल्म का नौजवान नायक बलराम हलवाई उर्फ मुन्ना (आदर्श गौरव) कहता है कि इस देश में किसी को मुक्ति मिलना मुश्किल है. लेकिन फिर भी वह अपनी मुक्ति के आधे सच्चे, आधे कच्चे सपने देखता है. वह बिहार के उसी सासाराम के एक गांव का रहने वाला है, जिसके रास्तों से चलते हुए भगवान बुद्ध ने गया पहुंच कर जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाई थी.
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म द व्हाइट टाइगर (The White Tiger) 2008 में देश-दुनिया में चर्चित हुए अरविंद अडिगा के इसी नाम वाले अंग्रेजी उपन्यास का फिल्मी रूपांतरण है. रमीन बहरानी ने इसे स्क्रीन के लिए लिखा और निर्देशित किया है. किताब को पर्दे पर उतारना आसान नहीं होता मगर रमीन यहां बहुत हद तक कामयाब रहे हैं. निश्चित ही इसमें उन्हें तीनों मुख्य ऐक्टरों का जबर्दस्त सहयोग मिला है. खास तौर पर आदर्श गौरव शुरू से अंत तक छाए हुए हैं. हाव-भाव-संवादों के साथ वह अपने किरदार में डूब गए हैं. प्रियंका चोपड़ा अपनी सीमित भूमिका में प्रभाव छोड़ती हैं और राजकुमार राव प्रतिभा-प्रतिष्ठा के अनुरूप काम कर जाते हैं. कैमरे ने भी अपना काम बखूबी किया है.
फिल्म उस पिछड़े भारत की बात करती है, जो इंडिया की रफ्तार के बराबर दौड़ने के लिए जी-जान एक रहा है. सफलता की रेस वाली सड़क एक जंगल है और एक अच्छे ड्राइवर को आगे बढ़ने के लिए दहाड़ना पड़ता है. यहां मुन्ना दौड़ता भी है और दहाड़ता भी है. वह उस बेबस जिंदगी से छूटने के लिए सब कुछ करता है, जिसमें अमीरों का नौकर बनने के लिए तक अपने नाम और मजहब को छुपाना पड़ता है. वह सदियों से चले आ रहे गरीबी, बेबसी, अपमान और गुलामी के पिंजरों को तोड़ने के लिए पीढ़ियों में एकाध बार पैदा होने वाला व्हाइट टाइगर है. यह अलग बात है कि अतीत के दाग आसानी से खत्म नहीं हो पाते.
कहानी बलराम हलवाई की है, जो गांव के जमींदार के यूएस रिटर्न बेटे अशोक (राजकुमार राव) का कार ड्राइवर बन जाता है. अशोक की भारतीय मूल की अमेरिकी पत्नी पिंकी (प्रियंका) भी उसके साथ आई है. यह नई सदी का शुरुआती दौर है, जिसमें अशोक बंगलुरू जाकर आउटसोर्सिंग बिजनेस में पैर जमाना चाहता है.
अशोक और पिंकी बलराम को जमींदार परिवार से अलग इंसानी नजरिये से देखते हैं. लेकिन कहानी तब मोड़ लेती है, जब अपने जन्मदिन पर पिंकी शराब के नशे में कार चलाते हुए अंधेरी-सुनसान सड़क पर एक बच्ची को उड़ा देती है. जमींदार-परिवार बलराम से स्टांप पेपर पर लिखवा लेता है कि यह एक्सीडेंट उसने किया है. तब बलराम को महसूस होता है कि अमीर मुफ्त में कुछ नहीं देते. बराबर बैठाने के पीछे भी उनका स्वार्थ होता है. धीरे-धीरे कहानी में पैदा होने वाले एहसास रक्त-रंजित होते चले जाते हैं. बलराम इस नतीजे पर पहुंचता है कि गरीब के लिए ऊपर आने के दो ही रास्ते हैं, जुर्म या पॉलिटिक्स.
दो घंटे 16 मिनट की द व्हाइट टाइगर नए जमाने में सफलता के सूत्र भी देती है. वह बताती है कि कई बार आप चाबी ढूंढ रहे होते हैं जबकि दरवाज खुला ही होता है. यह जमाना भावुक लोगों के लिए नहीं है. बलराम कहता है, ‘मेरी सफलता की आखिरी सीढ़ी थी दूसरों की भलाई को छोड़ कर अपनी भलाई को सोचना. पर यह आसान नहीं था.’ द व्हाइट टाइगर में बलराम खुद अपनी कहानी कहता है. जो गरीबी से ऊपर उठ कर सफल कारोबारी बन चुका है. रमीन बहरानी ने स्क्रिप्ट को सहज-सरल बनाया है. गांव से शुरू होती कहानी धीरे-धीरे थ्रिलर जैसा आकार लेती है लेकिन वैसी रफ्तार नहीं पकड़ पाती.
फिल्म इंटेलिजेंट सिनेमा का उदाहरण है, जो अमीर-गरीब की पारंपरिक थीम पर अलग अंदाज-ए-बयां सामने लाती है. फिल्म देश की दो तस्वीरें समानांतर दिखाने में सफल है. समस्या यह है कि विपरीत दिशाओं में बढ़ते भारत और इंडिया को साथ लाकर तरक्की के रास्ते पर बढ़ने का फार्मूला फिलहाल किसी के पास नहीं है. किसी को किसी से सहानुभूति नहीं है. स्वार्थ सबसे ऊपर है. उद्योगपति, अमीर और राजनेता अपनी झोलियां भरने लगे हैं. ऐसे में कोई सनकी, जिद्दी और बागी व्हाइट टाइगर ही अपने पिंजरे को तोड़ पाता है. ऐसे ही लोग इतिहास की धारा को मोड़ते हैं.
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